अम्ब्रेश रंजन कुमार
एक नए शहर में सुबह अकेले सैर पर निकल पड़ना शहर को अच्छी तरह पढ़ पाने का अच्छा अवसर होता है। विशेषकर तब जब कि सड़कों पर वाहनों का शोर न हो। नहीं तो उपरिपुल और गाड़ियों की भीड़ के बीच आजकल हर शहर एक से ही लगने लगे हैं। सुबह के शांत परिवेश में मस्तिष्क में सकारात्मक सोच की क्षमता अधिक होती है। इन शहरों में सुबह की गतिविधियों को पढ़ना हो या फिर सुबह सड़कों पर या पार्कों में सैर करने वाले कतारबद्ध से लोग हों या ट्रैफिक-मुक्त इक्के-दुक्के वाहनों का आवागमन। इसके अलावा, चाहे काम पर जाते लोग हों या चाय दुकान पर बैठा कोई समूह।
छोटे और बड़े शहरों में अलग-अलग स्थितियां हैं
इन सभी को पढ़ने और शहर के स्वरूप को समझने का एक अच्छा अवसर सुबह के अलावा और कब मिल सकता है! सुबह के सैर के दौरान इन सभी शहरों में एक समानता दिखी कि महिलाओं की संख्या हर स्थान पर एक जैसी कम नजर आई या यों कहें कि कहीं-कहीं तो बिल्कुल नगण्य नजर आई। सुबह की सैर के वक्त लैंगिक असामनता जैसे विषय पर अमूमन किसी का ध्यान ऐसे नहीं जाता है। लेकिन गौर किया जाए तो बड़े-बड़े महानगरों को छोड़कर अन्य सभी शहरों में कमोबेश यही स्थिति लगती है। हालांकि इस बात में कोई शक नहीं कि सेहत की तंदुरुस्ती पर पुरुष-स्त्री का समान अधिकार है। इन शहरों में सुबह की सैर करने वालों में ज्यादातर पचास वर्ष से अधिक की उम्र वाले लोग नजर आए। इसके अलावा, तीस से कम उम्र वाले युवाओं की संख्या भी अच्छी देखी गई। सेहत को लेकर जागरूक रहने वालों में से एक बड़ा तबका जिम भी जाता है।
बहरहाल, सुबह की सैर में महिलाओं की कम तादाद कई बिंदुओं की ओर ध्यान आकर्षित करता है। छोटे शहरों में महिलाओं की सुरक्षा संबंधी चिंता एक अलग बात हो सकती है। इसके अलावा, कई जगह घरों में महिलाओं का घर से निकलने पर प्रतिबंध या हिचक जैसे कारण हो सकते हैं। सुबह जल्दी उठने में आलस भी एक कारण हो सकता है। शादीशुदा महिलाओं का सुबह-सुबह घरों में घरेलू कामकाज निपटाने में ही समय निकल जाता है। घर के कामकाज की व्यस्तता भी एक वजह हो सकती है। अगर महिलाएं छोटे बच्चे या बच्ची की मां हैं तो गृहिणियों के संबंध में उनका अधिकांश समय तो बच्चे के लालन-पालन में ही निकल जाता है।
ऐसी स्थिति में उनके लिए अपनी सेहत के बारे में सोच पाना उनका प्राथमिक कार्य नहीं होता है। कामकाजी महिलाओं की बात करें तो उन्हें भी अक्सर दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है। एक तरफ दफ्तर के कार्य भी निपटाने होते हैं तो घर के कार्य भी निपटाने की उनसे ही अपेक्षाएं रहती हैं। हालांकि घर में साफ-सफाई करने के लिए सहयोगी और खाना बनाने के लिए भी रसोइए की व्यवस्था हो जाने से कामकाजी महिलाओं को थोड़ी राहत तो मिलती है। लेकिन प्रत्येक के साथ ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं होती है। इस प्रकार समाज की आधी आबादी के लिए अपने लिए समय निकालना वास्तव में किसी चुनौती से कम नहीं है।
बीते दिनों विश्व आर्थिक मंच की ओर से देश के लिए एक अच्छी खबर आई। दरअसल, इस रिपोर्ट में वैश्विक लैंगिक असमानता की सूची में शामिल एक सौ छियालीस देशों की श्रेणी में भारत एक सौ सत्ताईसवें पायदान पर रहा। गौरतलब है कि पिछले वर्ष जारी इस सूची में भारत को इस सूची में एक सौ पैंतीसवां स्थान हासिल हुआ था। इस मूल्यांकन के लिए चार प्रमुख मानदंडों को आधार बनाया गया। ये मानदंड हैं- आर्थिक भागीदारी और अवसर, राजनीतिक सशक्तीकरण, शिक्षा और स्वास्थ्य तथा आजीविका।
इन चारों क्षेत्रों में देश की आधी आबादी की भागीदारी जरूरी है। इस भागीदारी का अंतिम पायदान चाहे जो भी हो, पर यही भागीदारी उनके लिए सामाजिक बराबरी की राह को आसान कर सकती है। चार मानदंडों में से एक प्रमुख मानदंड स्वास्थ्य और आजीविका में से स्वास्थ्य और लैंगिक असमानता पर गौर करना भी जरूरी है।
आज बाजार में कई विशेषज्ञ ऐसे उपाय बताने के लिए मिल जाएंगे कि आप स्वयं के लिए किस तरह समय निकालें। लेकिन कभी-कभी मशविरा और वास्तविकता में जमीन आसमान का अंतर होता है। बड़े-बड़े महानगरों की स्थिति थोड़ी अलग-अलग नजर आती है। वहां यह लैंगिक समानता के बीच की खाई कम नजर आती है, पर इतना भी कम नहीं कि इसकी अनदेखी ही कर दी जाए। समाज के दो प्रमुख हिस्सों के बीच सेहत की जागरूकता में समानता होना जरूरी है। आधुनिक दौर में जब हम कई सुविधाओं की बात करते हैं और जो हमें आसानी से उपलब्ध भी हैं, पर ऐसा भी देखा जा रहा है कि प्रगति की दौड़ में हम सेहत से समझौता भी कर रहे हैं। पुरुषों और स्त्रियों के संबध में यह समझौता अलग-अलग स्तरों का है।