हेमंत कुमार पारीक
अमेजन के जंगल दुनिया भर में आक्सीजन का ‘पावर हाउस’ कहे जाते हैं। इसी प्रकार अफ्रीका के जंगल अनोखे जीव-जंतुओं से भरे पड़े हैं। मगर धीरे-धीरे इन जंगलों का सफाया होता जा रहा है। शिकारियों और पेड़-पौधों के दुश्मनों की कुदृष्टि इन पर पड़ चुकी है। हाल के वर्षों में दावानल या जंगलों में आग लगने की घटनाएं भी बढ़ी हैं, जो मीलों तक जंगल को राख कर देती है।
लिहाजा वन क्षेत्र कम होते जा रहे हैं। कमोबेश दुनिया के सभी देशों में भी यही हाल है। आज ऐसे देश का नाम खोजना पड़ता है, जहां जलजले न आए हों। ऐसे क्षेत्र जो कभी सूखाग्रस्त कहलाते थे, वहां भी बेलगाम और भयावह बारिश के साथ-साथ बाढ़ का प्रकोप देखने को मिल रहा है। कभी राजस्थान रेत का समुद्र कहलाता था, आज अक्सर बाढ़ की विनाशलीला झेलता रहता है। वजह पर्यावरण और पारिस्थितिकी में असंतुलन माना जाता है।
इसके अलावा, वे इलाके हैं, जहां कभी हरे-भरे खेत हुआ करते थे, वहां अब कंक्रीट के जंगल खड़े हैं। सुबह-सुबह जहां लोग शुद्ध हवा का सेवन करने सैर पर जाते थे, अब वहां भी धीरे-धीरे धूल, धुआं और गंदगी से वातावरण दूषित हो चला है। ऐसे किसान भी मिल जाएंगे, जिनका दो-तीन एकड़ का खेत उन इमारतों के बीच फंसा है। सुबह खेत से लाकर कोई किसान सब्जियां बेचेगा, लेकिन यह अहम बात दर्ज कर देगा कि खेत का दम घुट रहा है। अब वह खेत भी ऊंचे दाम में बेच दिया जाएगा। लेकिन उसकी चिंता यह भी है कि अगर यही सब चलता रहा तो इंसान खाएगा क्या? फल, सब्जियां और अन्न कहां पैदा करेगा? उसकी चिंता निराधार नहीं है।
वास्तव में प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा रहा है। इसके पीछे कारण क्या है, यह अब सामने आने लगा है। इंसान के साथ जीव-जंतुओं का भविष्य भी दांव पर लगा है। कुछ वर्ष पूर्व किसी विदेशी शोधकर्ता की एक शोध रिपोर्ट छपी थी। उसमें कहा गया था कि भविष्य में लोग घरों की छतों पर जलकुंड बनाकर मछलियों की खेती करेंगे। उस वक्त तो यह कथन हास्यास्पद लगा था, मगर अब नहीं।
बदलते परिवेश में एक दूसरी रिपोर्ट में किसी जीव वैज्ञानिक का कहना था कि जिस दिन मधुमक्खियां इस दुनिया से विदा ले लेंगी, दुनिया में जीवन का अंत निकट होगा। हमारे साथ अन्य पशु पक्षियों, कीट-पतंगों का जीवन भी महत्त्वपूर्ण है, जिससे हम अनभिज्ञ रहते हैं। उन्हें उद्देश्यहीन, अनुपयोगी और बेमतलब मानते हैं। जबकि प्रकृति में पाए जाने वाले हर जीव की उत्पत्ति किसी न किसी उद्देश्य को लेकर है।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि प्रकृति बहुत रहस्यमय है। ऐसे-ऐसे जीव-जंतु, जिन्हें हम अस्तित्वहीन मान लेते हैं, वे अचानक प्रकट हो जाते हैं। जलचर, नभचर और थलचरों में एक ही पारिस्थितिकी में रहते हुए सबके बीच भिन्नता है। रंग-रूप और आकार-प्रकार में विसंगतियां मिलती हैं। जमीन पर ‘हार्स’ है तो समुद्र में ‘सी-हार्स’। पर हां, उन्हें जीवन जीने के लिए प्रकृति ने विभिन्न स्थान, भोजन और सुरक्षा के उपाय दिए हैं।
कुछ समय पहले शहर से दूरदराज के इलाके में स्थित एक सैरगाह (रिजार्ट) में किसी के जन्मदिन पर समारोह आयोजित था। वह सैरगाह जंगल के अंदरूनी भाग में स्थित है। कभी वहां घना जंगल था। इतना कि रात में हिंसक जानवरों की आवाजें सुनाई देती थीं। उस सैरगाह के आसपास बड़े-बड़े फार्म हाउस भी हैं। उबड़-खाबड़ रास्तों के बीच छोटा-सा एक गांव भी दिखता है। यदा-कदा वहां बाघ की चहलकदमी सुनने में आती रहती है।
जन्मदिन समारोह में शामिल हुए लोगों में से बाहर के लोगों ने अपना अवकाश होने के कारण वहां कमरा भी लिया हुआ था। देर रात जोर की शोर की आवाज के साथ गीत और संगीत बज रहा था। कुछ लोग तेज रोशनी में नाच रहे थे। एक मचाननुमा संरचना पर बैठे कुछ नौजवान अलग बैठ कर जश्न में शामिल थे। इस दौरान पेड़ की एक टहनी की तरफ इशारा कर मेजबान ने सबका ध्यान खींचा। उस वृक्ष पर बड़े आकार का उल्लू बैठा था।
शायद वाहवाही लूटने के लिए उन्होंने ऐसा किया होगा। उल्लू की शारीरिक संरचना का बखान करते हुए बोले, उल्लू अपनी गर्दन तीन सौ साठ डिग्री घुमा लेता है। अगर आदमी की गर्दन इतना घूमती तो ‘सर्वाइकल’ की समस्या न होती। उनकी वह बात वास्तव में खलने वाली थी। कारण कि प्राकृतिक आवास वन्य जीवों के लिए प्रकृति प्रदत्त है।
पर निहित स्वार्थवश धनलोलुप व्यक्ति प्रशासनिक हेराफेरी और नियमों को ताक पर रखकर ऐसे स्थानों पर हक जमा लेते हैं। पर दुख की बात है कि उस वक्त वह बेबस उल्लू टुकुर-टुकुर वहां मौजूद सब लोगों की ओर लाचारी से देखता प्रतीत हो रहा था। किसने किसका बहुत छीन लिया है? जो हो रहा है, उसका असर जब जमीन पर उतरेगा, तब इंसान किस स्थिति में रहेगा और क्या सोचेगा?