आशुतोष कुमार

जमाना बदलने के साथ-साथ परिवेश और लोग भी बदल गए दिखते हैं। इन बदलावों के बीच प्रकृति अछूती कैसे रह सकती है। यह सही है कि आज प्रकृति के कोप का सामना मनुष्य को करना पड़ सकता है, मगर अपने कुत्सित प्रयासों से मनुष्य ने जिस तरह प्रकृति की गति को भी प्रभावित किया है, उसके नतीजे तो आने ही हैं। मई-जून के महीनों में अब उच्च स्तर पर तापमान को लेकर चिंताएं उभर रही हैं।

मगर हालत यह है कि मार्च बीतते ही भीषण गर्मी लोगों को झुलसाने लगती है। अक्तूबर तक गर्मी की स्थिति कमोबेश ऐसी ही रहती है। बरसात भी कहीं अधिक मेहरबान रहती है, तो बारिश कहीं से बिल्कुल रूठी दिखती है। नतीजतन, कहीं बाढ़ तो कहीं सुखाड़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। पैर पसारती गर्मी के आगे बरसात और शरद हाशिए पर दिखते हैं। प्रकृति में यह परिवर्तन अचानक नहीं हुआ। हां, यह जरूर है कि इस परिवर्तन को लोग आज ज्यादा महसूस कर रहे हैं, जब पानी सिर के ऊपर से गुजर गया।

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प्रकृति की विकृति सिर्फ नगर और शहर में नहीं, गांव में भी दिखती है। गांव में भले ही बड़े-बड़े वाहन नहीं चलते, उपरिपुल और ऊंची रिहाइशी इमारतों या अपार्टमेंट के निर्माण कार्य नहीं होते। लेकिन वहां दूसरी तरह की समस्याएं हैं। इन नई समस्याओं को सामाजिक बदलाव से जोड़कर देखा जा सकता है।

आज से पच्चीस-तीस साल पहले के उस जमाने को याद किया जा सकता है जब खलिहानों में एक खंभे से बैलों को जोतकर दौनी की जाती थी। एक खंभे के चारों तरफ बैल घूमते थे। दौनी के दौरान बैलों का मुंह बांधना मना था। बैल अपने संगी के साथ घूमते और जब मन हुआ, अनाजयुक्त भूंसे में मुंह लगा कर कुछ खा लेते।

बैलों के पीछे घूमने वाला किसान या हलवाहा बैलों की इस शरारत को नजरअंदाज करता था। बैलों का यह हक समझा जाता था कि वह जितना चाहे, अनाजयुक्त भूंसे को खाए। तब बैल और गाय-भैंस भी एक कृषक परिवार के सदस्य होते थे। होली-दिवाली में जब घर में पकवान बनते थे, तब अनिवार्य रूप से बैलों को भी पकवान खिलाए जाते थे। लेकिन आज सब कुछ बदल गया है।

मशीनीकरण के इस युग में बैल गांव से विलुप्त हो गए हैं। पशुपालन अब गृहस्थ जीवन से हटकर व्यवसाय बन गया। पूजा-पाठ में गोबर गणेश के लिए गोबर बड़ी मुश्किल से मिलता है। आज बच्चे गाय को जरूर जानते और पहचानते हैं। संभव है वे सांड को भी समझ पाएं, लेकिन बैल के बारे में नहीं जानते। नए जमाने में बैल का कोई सरोकार और औचित्य भी नहीं रहा। बैल क्या होता है, बच्चे को समझा पाना भी जरा कठिन है।

बहरहाल, अब गांव भी पहले जैसे नहीं रहे। कटनी के बाद रबी फसलों को खलिहान में पहले भी रखा जाता था, अब भी रखा जाता है। मगर अब फसलों के सूखे डंठलों से अनाज दौनी से नहीं, थ्रेसर से निकाले जाते हैं। थ्रेसर चलाने के समय गांव की आबोहवा शहरों से भी खराब हो जाती है। अप्रैल से जून तक गांवों में भी प्रदूषण का स्तर काफी ऊंचा रहता है। इसके कारण उड़ते भूसे के छोटे कण तेज हवा के साथ मिलकर पूरे इलाके के वायु को प्रदूषित कर देते हैं। यह प्रदूषण इतना खतरनाक होता है कि कई लोग सांस और फेफड़े संबंधी बीमारी के शिकार हो जाते हैं।

तात्पर्य है कि आज प्रदूषण की जद में सिर्फ बड़े नगर ही नहीं, गांव भी हैं। प्रकृति अब न शहर में महफूज है, न ही गांवों में। यह किसी एक प्रदेश या देश की नहीं, बल्कि वैश्विक समस्या है। संयुक्त राष्ट्र की मौसम एवं जलवायु एजंसी की रिपोर्ट के मुताबिक, एशियाई देशों में लू का प्रभाव अत्यधिक गंभीर होता जा रहा और ग्लेशियरों के पिघलने से आनेवाले दिनों में क्षेत्र में भीषण जल संकट पैदा होने का खतरा पैदा हो जाएगा।

एशियाई देशों में पिछले कुछ वर्षों में लगातार लू का असर बढ़ता जा रहा है, जिससे ग्लेशियर पिघलने के कारण भविष्य में जल सुरक्षा का खतरा पैदा हो गया है। एशियाई देशों का पिछले साल तापमान 1961 से 1990 के औसत से लगभग दो डिग्री सेल्सियस अधिक था। पिछले साल एशिया दुनिया का सबसे अधिक आपदा प्रभावित क्षेत्र था।

दक्षिण-पश्चिम चीन वर्षा का स्तर कम होने से सूखे से पीड़ित है। तिब्बती पठार पर केंद्रित उच्च-पर्वतीय एशिया क्षेत्र में ध्रुवीय क्षेत्रों के बाहर बर्फ की सबसे बड़ी मात्रा मौजूद है। इस क्षेत्र के बाईस ग्लेशियरों में से बीस को पिछले साल लगातार बड़े पैमाने पर नुकसान हो रहा है। 2023 में उत्तर-पश्चिम प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह का तापमान रिकार्ड पर सबसे अधिक था।

एशिया में अस्सी फीसद से अधिक बाढ़ और तूफान सहित उनासी आपदाएं दर्ज की गईं। इससे करीब नब्बे लाख लोग प्रभावित हुए। सवाल यह है कि इसके लिए दोषी कौन है? यह तय है कि इसके लिए किसी एक देश या किसी एक व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन यह भी कहना गलत नहीं होगा कि इसके लिए कोई देश या व्यक्ति दोषमुक्त भी नहीं है।

आज प्रकृति खतरे में है, इसके लिए हम सभी कठघरे में हैं। पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति की ओर लौटने की जिम्मेवारी हम सबकी है। जब हम प्रकृति के करीब जाएंगे, प्रकृति से जुड़ने की हममें प्रवृत्ति जाग्रत होगी। तभी हम प्रकृति के कोप से बचेंगे। इसलिए यह जरूरी है कि आधुनिकता और मशीनीकरण के इस युग में यह भी ध्यान रहे कि हम कुछ ऐसा न करें, जिससे पर्यावरण दूषित हो।