सदाशिव श्रोत्रिय
जिन लोगों में कोई सुंदर सपना देख सकने का सलीका नहीं है, उनसे हम कैसे कोई सुंदर दुनिया बनाने की उम्मीद कर सकते हैं? अगर हम गांधी या मार्क्स जैसे महापुरुषों की बात करें तो उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे उन स्वप्नदर्शियों में से थे, जिन्होंने इस समूची दुनिया को और इसके साथ ही समूची मानव जाति को किसी नए सुंदर ढंग से ढालना चाहा था।
इस सत्य से इनकार कर पाना मुश्किल है कि पिछले कुछ दशकों में मशीनों का विकास जिस तेजी से हुआ है, उसके मुकाबले इंसान का विकास लगभग न के बराबर हुआ है। दूसरे विश्व युद्ध के अंत में आणविक अस्त्रों के प्रयोग से जिस तरह का विनाश और संहार हुआ था, उससे समूचे विश्व के लोगों को एक बार इस बात पर विश्वास हो चला था कि अब आगे से कोई किसी आणविक युद्ध की बात नहीं करेगा। पर हम देखते हैं कि आणविक अस्त्रों का उत्पादन आज भी रुका नहीं है और आज के युद्धग्रस्त देश एक दूसरे को आणविक हमले की धमकियां देने से नहीं हिचकते।
इसमें संदेह नहीं कि केवल वे ही लोग इस दुनिया को सुंदर बना सकते हैं, जिन्हें सुंदरता से प्यार है और जिनमें सुंदर स्वप्न देख सकने की क्षमता है। हम जानते हैं कि सभी लोगों की प्रकृति एक जैसी नहीं होती। कुछ लोग अहिंसक होते हैं तो कुछ को हिंसा में ही आनंद आता है। कुछ लोग तो अब इतने असंवेदनशील हैं कि जब कोई किसी पर मरणांतक प्रहार कर रहा होता है तो संभव है कि उसे रोकने और मरने वाले की जान बचाने की कोई कोशिश करने के बजाय वे वीडियो बनाने लग जाएं।
कुछ लोग टूटे हुए को किसी तरह फिर से जोड़ने की कोशिश करते हैं, पर हमें ऐसे असामान्य लोग भी आजकल देखने को मिल जाते हैं, जिन्हें सार्वजनिक उपयोग के लिए बनाई हुई वस्तुओं को तोड़ने में मजा आता है। कुछ लोग हर चीज को व्यवस्थित और साफ-सुथरी रखना पसंद करते हैं तो कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें सफाई और व्यवस्था से कुछ लेना-देना नहीं होता। हम प्रतिदिन कितने ही लोगों को निस्संकोच अपने आगे सड़क पर थूकते देखते हैं!
मानव जीवन के उच्चतर आनंद का अनुभव उन्हीं लोगों के लिए संभव है, जिन्होंने तप और अभ्यास के द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ाने और अपनी रुचियों को परिष्कृत करने की कोशिश की है। जिन लोगों का किसी भाषा पर पूरा अधिकार नहीं है, वे उस भाषा की कविता को समझकर उसका आनंद कैसे ले सकते हैं? जिसे कभी भारतीय शास्त्रीय संगीत सुनने का अवसर ही नहीं मिला, उसके मुंह से बड़े शास्त्रीय संगीतज्ञ का संगीत सुन कर भी ‘वाह’ निकले, इस बात की संभावना बहुत कम है।
भारतीय इतिहास में मौर्य काल, गुप्त काल और मुगल काल के उन्हीं शासकों के समय में भारत की अधिक सांस्कृतिक उन्नति हुई, जो स्वयं परिष्कृत रुचियों और गहरे सौंदर्यबोध से संपन्न थे। माइकेल एंजेलो को कला के पारखी मेडिचि परिवार का सहयोग और संरक्षण न मिला होता तो फ्लोरेंस का सिस्टिन चैपल उन कलाकृतियों से शून्य होता, जिन्हें देखने की इच्छा आज भी हर पर्यटक रखता है। सोफोक्लीज, यूरिपिडीज आदि नाटककारों की कृतियों के अभिनीत होने में अगर एथेंस के तत्कालीन शासकों की कोई रुचि न होती, तो उनका लाभ एथेंस के नगरवासियों को कैसे मिल सकता था?
इन सब बातों से यह साबित होता है कि किसी देश की वास्तविक प्रगति के लिए किसी सुरुचि-संपन्न और विचारशील शासक का सत्ता में होना निहायत जरूरी है। आज की परिस्थितियों में भारत और अमेरिका जैसे जनतांत्रिक देशों में ऐसे किसी गुणवान शासक का सत्ता में आ पाना बहुत कठिन हो गया है। चुनाव-प्रक्रिया अब इतनी मंहगी, भ्रष्ट और जटिल हो गई है कि किसी गुणवान और भले आदमी का उसके माध्यम से सत्ता में आना लगभग असंभव होता जा रहा है।
हर राजनेता का उद्देश्य आज मतदाताओं को बहकाकर वह चुनावी लहर उत्पन्न करना हो गया है, जिसमें बह कर वे उसे सत्ता-प्राप्ति के लिए वोट दे दें। मतदाता के धर्म, आस्था और अंधविश्वास आदि का भी आज राजनीतिक दलों द्वारा मनमाना दोहन किया जा रहा है। सवाल यह है कि जो भ्रष्ट तरीकों से सत्ता हासिल करता है, उससे क्या आम जन के कल्याण की कभी कोई उम्मीद की जा सकती है? जो इतना असंवेदनशील है कि उसे नैतिक और अनैतिक के बीच कोई फर्क ही नहीं नजर आता, उससे हम एक साफ-सुथरे और कल्याणकारी शासन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
पिछले कुछ दशकों में अगर लोक-कल्याण के लिए वास्तव में कोई काम हुआ है, तो वह केवल दूसरों की खुशी में खुशी महसूस करने वाले कुछ लोगों की संस्थाओं द्वारा किया गया है। इस तरह की संस्थाएं और उनमें काम करने वाले प्रतिबद्ध लोग ही शायद उन मूलभूत सद्गुणों को परिभाषित कर सकते हैं, जिनकी बदौलत आज के चुनौतीपूर्ण समय में भी कोई जनहित का काम करता रह सकता है। वरना आजकल अधिकांशत: होता यह है कि जिस आदर्श लक्ष्य को हासिल करने के लिए कोई काम शुरू किया जाता है, उसे ही कुछ समय में धन बटोरने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगता है।
