रेखा शाह आरबी
इस संसार में प्रकृति द्वारा प्रदान की गई सभी चीजें अमूल्य हैं। उनका हम चाह कर भी मूल्य नहीं चुका सकते हैं और न ही हम उन चीजों का उसी रूप में निर्माण कर सकते हैं। मनुष्य प्रसन्न हो सकता है कि उसके रूप को अनेक प्रकार से परिवर्तित कर सकता है, लेकिन मूल आधार प्रकृति द्वारा दी हुई चीज ही रहती है। मसलन, हम जल का निर्माण नहीं कर सकते।
इसीलिए सभ्यता की शुरुआत से ही जल की महत्ता को एक स्वर से स्वीकार किया गया है। सृष्टि के निर्माण में अग्नि तत्त्व के पश्चात जल का ही सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है। इंसानों के लिए हो सकता है कि अमृत बहुत ही दुर्लभ चीज हो। मगर शायद यह पानी और अन्य प्राकृतिक जीवन तत्त्वों का ही प्रतीक शब्द हो।
संभव है कि पानी के संकट पर बात करने को लेकर अब लोग हल्के तौर पर लेने लगे हों, लेकिन यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि शहर से लेकर गांव तक अब इस संकट को सामने खड़ा देखा जा सकता है। शहरों-महानगरों में कुदरती स्रोतों से पीने का पानी हासिल करना मुश्किल हो गया है और लोग प्यास बुझाने के लिए बोतलबंद पानी या फिर ‘आरओ’ जैसे मशीन पर निर्भर होते जा रहे हैं और गांवों में भूजल का स्तर सूख रहा है।
पानी के बिना जीवन की कल्पना निराधार है। यह जीव-जंतु सबके जीवन का आधार है। प्रकृति इंसानों को पानी की जगह अमृत भी देती, तो वह भी शायद उतना उपयोगी नहीं होता, जितना उपयोगी सभी जीवों के लिए पानी है। बल्कि यों कहें कि पानी है तो धरती पर जीवन है, हरियाली है, कृषि है, कल-कारखाने चल रहे हैं, रोजमर्रा की जरूरत पानी से ही पूरी होती है। अमृत से मनुष्य के अमर हो जाने की धारणा है। मगर बिना पानी के जीवन की उत्पत्ति ही नहीं होती तो अमरत्व का सवाल कहां से पैदा होता।
हमारे शरीर का सत्तर फीसद जल से ही बना हुआ है। इससे आगे देखें कि शरीर ही नहीं, हमारी पूरी धरती के निर्माण में भी पानी सबसे महत्त्वपूर्ण है। पृथ्वी का दो तिहाई हिस्सा जल से आच्छादित है। हमारा शरीर जीवन की पूंजी जलवायु और भोजन है। अगर इनमें से एक भी चीज न रही, तो हमारा जीवन संकट में पड़ सकता है। इसीलिए कहा गया है कि जल ही जीवन है या फिर जल है तो कल है।
‘महाभारत’ की कथा के मुताबिक, जब भगवान कृष्ण कौरवों की सभा में शांति दूत बनकर जाते हैं, तब वहां जल का महत्त्व बताते हुए वे कहते हैं कि ‘जल की एक बूंद व्यर्थ बहाना भी जल का अपमान है… और आप तो रक्त का सागर बहाने की बात कर रहे हैं।’ यहां पर कृष्ण के कथन से यह सार निकलता है कि रक्त भी तो जल से ही बना हुआ है और जब जल की एक बूंद बहाना जल का अपमान है, तो जल का सागर बहाना कितना बड़ा अपमान होगा।
जल का महत्त्व देखते हुए ही शायद इसे देवता का दर्जा दिया गया है, ताकि प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस अमूल्य धरोहर के प्रति लोगों के मन में श्रद्धा बनी रहे। यों भी हमारे यहां नदियों को माता के समान माना गया है। ऋषि-मुनियों और महात्माओं के पास जो ज्ञान के अकूत भंडार थे, वे नदियों को संरक्षित और सुरक्षित रखने का आग्रह करते हैं। वे जल को बहुत महत्त्व देते थे, क्योंकि वे अपनी प्राचीन ज्ञान परंपरा से जानते थे कि जल के बिना जीवन की परिकल्पना व्यर्थ है और इसकी बर्बादी का हासिल क्या हो सकता है।
जल को संरक्षित करना आखिरकार जीवन को संरक्षित करना है। पिछले कुछ समय से धरती पर जो जल संकट देखा जा रहा है, वह प्रकृति की नहीं, मनुष्य की कारगुजारी है। प्रकृति ने तो हमें शुद्ध जल दिया था। यह हाल तब है जब धरती पर पीने के योग्य पानी की मात्रा सिर्फ तीन फीसद है और उसमें से भी दो फीसद ग्लेशियर और बर्फ के रूप में है। इसलिए देखा जाए तो मनुष्य को मात्र एक फीसद पानी ही पीने के लिए उपलब्ध है। अगर किन्हीं हालात में पीने योग्य पानी उपलब्ध न हो तो मनुष्य का क्या हश्र होगा?
अंधाधुंध विकास की जिद, नगरीकरण, औद्योगीकरण, प्रदूषण और बढ़ती जनसंख्या के भार से यह स्थिति हो चुकी है कि प्रत्येक मनुष्य को शुद्ध जल उपलब्ध कराना एक चुनौती बन चुका है। अनेक शहरों में पानी के टैंकर ही पेयजल की आपूर्ति के साधन बन चुके हैं। उसकी भी शुद्धता की कोई गारंटी नहीं है और प्रदूषित पानी पीने से लोग अनेक रोगों के प्रकोप का शिकार बन रहे हैं।
नदियों और झीलों पर मनुष्य का अतिक्रमण और खराब सीवर उपचार जल संकट को और बढ़ा रहा है। बंगलुरु का उदाहरण आंखों के सामने है, जो तीस-चालीस वर्षों के सबसे खराब सूखे का सामना कर रहा है। अगर इसी तरह हम देशभर में कंक्रीटी संरचना और पक्की सतहों का निर्माण करते रहे तो जल प्रसार के क्षेत्र में भारी गिरावट का सामना करना पड़ेगा। वहीं धरती का भूजल स्तर कम होता रहेगा।
चाहे हम जितने आधुनिक बन जाएं और विज्ञान के मामले में तरक्की कर लें, लेकिन पीने के लिए शुद्ध जल की आवश्यकता मनुष्य को हमेशा रहेगी। उसके लिए हमें जल स्रोतों को संरक्षित करना ही पड़ेगा, नदियों की देखभाल करनी पड़ेगी। नदियां शुद्ध पेयजल का सबसे अच्छा स्रोत हैं। अफसोस कि आज शायद ही कोई ऐसी नदी हो, जिसका पानी पीने योग्य रह गया हो। लोग नदी में नाले, अपशिष्ट, कचरा बहा कर उनको प्रदूषित कर रहे हैं। यह समय हम सभी के सचेत होने का है, वरना पीने योग्य शुद्ध पानी की हर बूंद के लिए तरसना हम लोगों की नियति बन जाएगी।
