सुरेश सेठ
कैसा युग आया कि अब तो सौंदर्यबोध से लेकर जीवनबोध तक के ठेके होने लगे। अध्यात्म से लेकर ध्यान की तलाश में भी कहीं-कहीं व्यावसायिकता के दर्शन होने लगे, जब सुनते हैं कि ऐसे-ऐसे अध्यात्म गृह बन गए, जहां पंचतारा सुविधाएं दी जाती हैं, ताकि लोग ध्यान लगा सकें। लगता है, अब हांक लगाई जा रही है कि आओ और बिक जाओ। या अगर सामर्थ्य है तो सब खरीद लो।
बुद्धि नहीं है तो कृत्रिम मेधा से लेकर ‘डीपफेक’ तक की बैसाखियां धारण कर लो। फिर जिंदगी को जिस ठेके के लिए रखा जाएगा, उसके ठेकेदार बनते देर नहीं लगेगी। कैसा युग बदला है। संगीत की धुनों का लालित्य डिस्को और रैप सांग के शोर-शराबे में खो गया। लेखन से कलाकृतियों तक का सृजन ठेके पर होने लगा।
जिंदगी से प्यार खत्म करवाने का ठेका पहले कुछ खलनायकनुमा लोगों ने ले रखा था। इस पर न जाने कितनी दर्दनाक फिल्में लिखी गई, न जाने कितनी प्रेम कहानियां बनीं, जिनके प्रेम त्रिकोण में तीसरा कोना खलनायक का होता था। अब खलनायक ही नई जिंदगी के नायक हो गए। ठेके पर काम करवाते ये लोग प्रेम से लेकर रस्मो-रिवाज और परंपराओं की दुहाई देकर शादी तुड़वाने वाले बड़े-बूढ़ों और समाज के मीर मुंशियों का काम कर जाते।
रिश्ता टूट जाता। यों खलनायकों का ठेका व्यवसाय इतना सफल हो गया कि लोगों ने उसकी भयावहता से डर कर अपने बच्चों के नाम इन खलनायकों के नाम पर रखने बंद कर दिए। तब एक तरफ मशहूर खलनायक थे ‘प्राण साहब’। लोगों ने तो एक दो पीढ़ी तक किसी नवजात बच्चे का नाम प्राण ही नहीं रखा।
लेकिन अब जमाना बदल रहा है। हमारे समाज के आधुनिक और व्यवसायी होते जाने के साथ-साथ यह ठेका व्यवसाय भी सफेदपोश और साफ-सुथरा हो गया है। अपने देश के किसान कानूनों से कायाकल्प के नाम पर इस देश के मूल नागरिकों, धरती पुत्रों या किसानों की जिंदगी संवारने के लिए किसानों की खेती धनिक घरानों को ठेके पर देने, उनकी फसलों की खरीद के ठेके लेने का अधिकार ऊंची अटारियों वालों को दे दिया गया था।
यों इस देश के किसानों की शोषित बहुसंख्या इसी प्रकार सूदखोर महाजनों और धनी जमीदारों के पास ठेके पर, अर्ध बंटाई या खेत में खड़ी फसलों के औने-पौने दाम बिक कर सदियों से किसानों का दुख हरती रही है, लेकिन यह दुख हरा गया या एक शोषित प्रक्रिया के रूप में तब्दील हो गया, यह तो केवल भुक्तभोगी ही जानते हैं।
पिछले साल इतना अवश्य हुआ कि गरीब अभागे किसानों की जमीन धनिकों को ठेके पर देने को वैधानिक मान्यता मिल गई। फसलों को संपन्न घरानों में गोदामों के लौह द्वारों के पीछे कैद करने की कानूनी इजाजत मिल गयी। फिलहाल नए कानून, कानूनों का कायाकल्प करने के नाम पर दंड संहिता बदल रहे हैं, लेकिन फिर भी उसके अलंबरदार किसी न किसी चोर दरवाजे से फिर वही युग लाने की कोशिश कर रहे हैं।
क्रांति आह्वाान शार्टकट संस्कृति का खुला दरवाजा बनने की धृष्टता भी कर सकता है और ठेके पर जिंदगी रखकर नई जिंदगी के नाम पर उन्हें संवारने के नाम पर बिगाड़ने के न जाने अभी कितने और ठेके खुल गए हैं। शिक्षालयों की ओर जाते हैं, तो वहां शिक्षा परमो धर्म: का सूत्र वाक्य अपना चेहरा बिगाड़ ठेके पर उठ गया लगता है।
महामारी का फालिज न केवल पुस्तक और अध्यापन अध्ययन संस्कृति पर गिरा, बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था ही जैसे सेवानिवृत्ति झेलने लगी है। अब शिक्षक बरसों नाममात्र वेतन पर ठेके पर रह जिंदगी में किसी स्थायित्व को देने की मांग करते हैं, तो उन्हें कच्चे मुलाजिम कह कर अपने बजट से निकाल दिया जाता है। शिक्षालयों के भवन आज भी खड़े हैं, लेकिन लगता है उनसे विद्या और प्रेरणा रूठती जा रही है।
हर लक्ष्य तक पहुंचने के लिए चोर दरवाजे खुलने लगे हैं। विद्या के गुलाबों की खुशबू की जगह कुकुरमुत्तों ने ले ली है। हथेली पर सरसों जमाने की ठेका विधियां दनदनाने लगी हैं। युग बीत गए, जब इन संस्थानों में पक्की भर्ती थी। अब तो यहां दिहाड़ीदार शिक्षा की वहंगी ढोते हैं। शिक्षालय खाली हो रहे हैं। अकादमियां ठेके पर नौकरी-वान डिग्रियों, डाक्टर, इंजीनियर या जनसंपर्क और प्रचारक की डिजिटल संस्थानों के ठेके दिलवाने लगीं।
सुना है विदेश में नंदन कानन हैं। इन देशों की मुद्रा डालर, पाउंड, येन और रूबल के सामने हमारा बेचारा रुपया पिट गया। विदेश जाकर इनकी मुद्रा कमाएंगे और अपने देश में आ करोड़पति कहलाएंगे। देश की नई पीढ़ी को विदेश भिजवाने के लिए ठेका अकादमियां भी खुल गई हैं। ये अग्रिम भुगतान लेकर किसी को विदेश के किसी कानूनी, गैरकानूनी जहाज पर चढ़ा देती हैं। अगर ऐसा न हो सके, तो ठेका शादियों का गुप्त मार्ग खुला है। विदेशों में व्यवस्थित ग्रीन कार्ड धारकों की तलाश इनके साथ विदेश पलायन के लिए लालायित सपनों की ठेका शादी होती है। इस चोर दरवाजे ने पाणिग्रहण की गरिमा को भी ठेके पर दे दिया, लेकिन नएपन की गाड़ी चल निकली है।