Doda Terrorist Attack: जम्मू संभाग के डोडा जिले में दहशत फैलाने वाले आतंकी पाकिस्तान के पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा इलाके के रहने वाले हैं। यह पठान हैं। इन्हें पहाड़, जंगल और नदियों तक में लड़ने का अच्छा अनुभव है। खुफिया एजेंसियों के पास इन आतंकियों की कई पुख्ता जानकारियां मिली हैं।

पूर्व डीजीपी एसपी वैद ने बताया कि आतंकियों के पास सैन्य प्रशिक्षण, टोही क्षमता, गुरिल्ला युद्ध रणनीति का अनुभव है। अत्याधुनिक हथियार हैं। वे हमलों के वीडियो बना रहे हैं। इन हमलों के तौर तरीकों से पता चलता है कि यह पाकिस्तान के पंजाब प्रांत एवं खैबर पख्तूनख्वा के पठान लड़ाके हैं। इन पर जल्द काबू पाने की जरूरत है। उधर, खुफिया एजेंसियों के सूत्रों का कहना है कि राजोरी-पुंछ, कठुआ, डोडा और रियासी में 40 से 50 आतंकी सक्रिय हैं। डोडा और कठुआ में इन आतंकियों की संख्या 30 से 40 हो सकती है। यह आतंकी 3 से 4 ग्रुप में बंटे हुए हैं। इन्होंने करीब छह महीने पहले आईबी से घुसपैठ की थी। इन्हें अफगानिस्तान में तालीबानी आतंकियों के साथ लड़ने का अनुभव है। आतंकियों के पास नाइट विजन कैमरे भी हैं, जो दूर से स्नाइपर वार करते हैं।

हर हमले के बाद वीडियो और पोस्ट

अमर उजाला में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, आतंकियों ने हर हमला करने के बाद बॉडी कैमरों का उपयोग कर हमलों के परिष्कृत वीडियो बनाए हैं। जब हमला कर लेते हैं, तो इन्हें आगे भेज देते हैं। यह टीमें अंग्रेजी में अनुवाद कर पोस्ट डालती हैं। वे कभी-कभी राबर्ट फ्रॉस्ट जैसे प्रसिद्ध लेखकों और कवियों को भी कोट करते हैं।

पीएएफएफ और कश्मीर टाइगर जैश-ए- मोहम्मद का ही हिस्सा

पूंछ के भाटादृड़ियां, राजोरी के कंडी, राजोरी के ढांगरी, रियासी में हमला करने की जिम्मेदारी आतंकी संगठन पीपुल्स एंटी- फासीस्ट फ्रंट (पीएएफएफ) ने ली थी, जबकि कठुआ और डोडा हमलों की जिम्मेदारी कश्मीर टाइगर ने ली। सूत्रों के अनुसार ये दोनों संगठन पाकिस्तान से संचालित आतंकी संगठन जैश-ए- मोहम्मद के ही हैं।

न फोन का इस्तेमाल, न आम लोगों से बातचीत

एक वरिष्ठ सैन्य अफसर ने बताया कि यह आतंकी फोन का इस्तेमाल नहीं करते हैं। कोई संदेश भेजना होता है, तो वे रेडियो फ्रिक्वेंसी मैसेंजर का इस्तेमाल करते हैं, जिसे इंटरसेप्ट नहीं किया जा सकता। वे गांव में नहीं जाते न ही स्थानीय लोगों के साथ रहते हैं। वे जंगलों या गुफाओं में रहते हैं। वे जंगल में बकरवाल द्वारा लाए गए भोजन को खरीदते हैं। कभी-कभी अपने मददगारों से जंगल में ही खाना रख जाने के लिए भी कहते हैं।