हमारे देश में दवाओं का उत्पादन काफी बड़े पैमाने पर होता है। भारत न केवल अपने देश, बल्कि दुनिया के दो सौ से अधिक देशों की दवा संबंधी जरूरतें पूरी करता है। दुनिया की नामी कंपनियों की प्रतियोगिता में सस्ती दवाओं का उत्पादन कर भारत ने दवा कारोबार में अपना अच्छा मुकाम बना लिया है। इसके बावजूद स्थिति यह है कि हमारे देश में बहुत सारे गरीब लोग इसलिए इलाज नहीं करा पाते कि दवाओं की कीमतें उनकी क्षमता से बाहर हैं। ऐसे में सरकार ने चिकित्सकों पर वैधानिक दबाव बनाया है कि वे जेनेरिक दवाएं ही लिखें। हालांकि अंतरराष्ट्रीय दवा कंपनियों के दबाव के आगे ऐसा करना बड़ी चुनौती होगी, मगर स्वास्थ्य जगत का यह नैतिक दायित्व है कि वह लोगों को सस्ता इलाज उपलब्ध कराए। बता रहे हैं प्रमोद भार्गव।
नियम का उल्लंघन करने पर रद्द होगा लाइसेंस
महंगी दवाओं के चलते इलाज न करा पाने वाले रोगियों के लिए यह निश्चित ही सुकून देने वाली खबर है कि चिकित्सक अब पर्चे पर केवल ‘जेनेरिक’ दवाएं ही लिखेंगे। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने कहा है कि अगर चिकित्सक इस नियम का उल्लंघन करता है तो एक तय अवधि के लिए उसका अनुज्ञा पत्र (लाइसेंस) भी रद्द किया जा सकता है। ये निर्देश सभी आरएमपी (रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर) को भी मानने होंगे। पर्चे पर दवाएं स्पष्ट अक्षरों में लिखने या फिर छपा पर्चा देने की हिदायत भी दी गई है। एनएमसी ने जेनेरिक दवाओं को परिभाषित करते हुए कहा है कि वे दवाएं, जो ‘ब्रांडेड’ दवा से खुराक, प्रभाव, खाने के तरीके, गुणवत्ता और असर में बराबर हैं, जेनेरिक दवाएं कहलाती हैं। वहीं ब्रांडेड जेनेरिक दवाएं वे हैं, जिनकी पेटेंट अवधि समाप्त हो गई है और दवा कंपनियां उनका उत्पादन और विक्रय दूसरे नामों से करती हैं।
ब्रांडेड दवाओं की तुलना में तीस से अस्सी फीसद तक सस्ती होती हैं जेनेरिक दवाएं
भारतीय चिकित्सा परिषद द्वारा 2002 में पेशेवर आचार संबंधी नियमन में जेनेरिक दवाएं लिखने पर जोर दिया था। लेकिन इसमें दंडात्मक कार्यवाही का उल्लेख नहीं था। आयोग ने अधिसूचित नियमों में कहा है कि भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर होने वाले व्यय में बड़ा हिस्सा दवाओं पर खर्च कर रहा है। जेनेरिक दवाएं, ब्रांडेड दवाओं की तुलना में तीस से अस्सी फीसद तक सस्ती होती हैं। इसलिए गरीब लोग दवाओं की पूरी खुराक लेंगे और जल्दी स्वस्थ्य होंगे।
भारत देशी फार्मा उद्योग को बढ़ावा देने का लक्ष्य
भारत का जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने का मकसद केवल भारतीय लोगों का हित साधना नहीं, बल्कि दुनिया के करोड़ों गरीब मरीजों को भी सस्ती दवाएं उपलब्ध कराना है। बड़ी मात्रा में सस्ती जेनेरिक दवाओं का निर्माण और विश्वव्यापी वितरण करके भारत देशी फार्मा उद्योग को तो बढ़ावा देना चाहता ही है, निर्यात बढ़ाकर, चीन से कच्चे माल का आयात भी कम करना चाहता है। फिलहाल, भारत चीन से दवाओं में लगने वाला 67 फीसद कच्चा माल आयात करता है। फार्मा विशेषज्ञ पदोन्नति परिषद के मुताबिक वर्ष 2021-22 में भारत ने 24.47 अरब डालर की दवाओं का निर्यात किया था। इसके 2030 तक 70 अरब डालर तक पहुंचने की उम्मीद है।
फिलहाल, भारत का कुल दवा बजार 47 अरब डालर का है। इसमें 22 अरब डालर का व्यापार देश के भीतर ही होता है। फिलहाल, भारत जेनेरिक दवाओं के वैश्विक सकल निर्यात में बीस फीसद की हिस्सेदारी रखता है। दुनिया में लगने वाले 60 फीसद टीकों का आपूर्तिकर्ता भी भारत है। इस नाते भारत वर्तमान में भी वैश्विक दवाखाना कहलाता है।
वर्तमान में दुनिया के 206 देशों में भारत दवाओं का निर्यात करता है। इनमें जेनेरिक दवाएं तो कम हैं, किंतु ब्रांडेड दवाओं का निर्यात ज्यादा होता है। भारत ने संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और आस्ट्रेलिया से जो द्विपक्षीय व्यापार समझौता किया है, उसके तहत भारत से दवाओं का निर्यात बढ़ जाएगा। आस्ट्रेलिया को भारत अभी एक वर्ष में 34 करोड़ डालर की दवाएं निर्यात करता है, जो एक अरब डालर तक पहुंच जाएंगी। यूएई के बाजार से भारतीय दवाएं अफ्रीका के देशों में जाएंगी। दक्षिण अमेरिका के देश भी भारत की सस्ती दवाओं के लिए अपने द्वार खोल रहे हैं।
यूक्रेन से लड़ाई के चलते पश्चिमी और नाटो देशों ने रूस को अनेक प्रकार की दवाएं देने पर रोक लगा दी है। इसलिए अब रूस भारत से दवाएं मांग रहा है। यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और कनाडा के साथ भी ऐसे कारोबारी समझौते हुए हैं, जो भारत की जेनेरिक दवाएं खरीदेंगे। इन दवाओं के निर्यात में कोई कमी न आए, इस दृष्टि से रसायन और खाद मंत्रालय ने 35 ‘एक्टिव फार्मास्यूटिकल्स इंग्रिडिएंट्स’ (एपीआइ) इकाइयों को उत्पादन बढ़ाने की अनुमति दे दी है। पीएलआइ योजना के तहत 53 एपीआइ को भी उत्पादन के लिए चिह्नित किया गया है, इस मकसद के लिए 32 नए संयंत्र लगाए गए हैं। इन संयंत्रों में दवा निर्माण के लिए कच्चा माल तैयार किया जाएगा। फिलहाल भारत दवा संबंधी 2.8 अरब डालर के कच्चे माल का आयात चीन से करता है। इसके बदले में 4.8 अरब डालर की एपीआइ और दवा निर्माण के अन्य कच्चे माल का निर्यात भी करता है। बावजूद इसके, चीन से निर्यात में बड़ा असंतुलन है।
दरअसल, भारत में उपचार से जुड़ी ढाई लाख वनस्पतियों की उपचार संबंधी पहचान वैज्ञानिकों ने कर ली है। इनमें से पचास फीसद ऊष्ण कटिबंधीय वन-प्रांतों में उपलब्ध हैं। भारत में 81 हजार वनस्पतियां और 47 हजार प्रजातियों के जीव-जंतुओं की पहचान सूचीबद्ध है। अकेले आयुर्वेद में पांच हजार से ज्यादा वनस्पतियों का गुण और दोषों के आधार पर मनुष्य जाति के लिए क्या महत्त्व है, विस्तार से विवरण है। हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में जिन 84 लाख जीव-योनियों का विवरण है, उनमें दस लाख वनस्पतियां और 52 लाख इतर जीव-योनियां बताई गई हैं। साथ ही स्पष्ट किया गया है कि इन्हीं योनियों में से असंख्य जीवात्माएं प्रत्येक क्षण जीवन-मरण का क्रम जारी रखे हुए हैं और यही सारे लोक में फैली हुई हैं। ब्रिटिश वैज्ञानिक राबर्ट एम ने जीव और वनस्पतियों की दुनिया में कुल 87 लाख प्रजातियां बताई हैं, इनमें जीवाणु और विषाणु शामिल नहीं हैं। यह 84 लाख भारतीय योनियों के करीब है।
विदेशी दवा कंपनियों की निगाहें इसी हरे सोने के भंडार पर टिकी हैं। इसलिए 1970 में अमेरिकी पेटेंट कानून में नए संशोधन किए गए। विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि ‘नया पेटेंट कानून परंपरा से चले आ रहे देशी ज्ञान को महत्त्व और मान्यता नहीं देता। बल्कि इसके उलट जो जैव और सांस्कृतिक विविधता तथा उपचार की देशी प्रणालियां प्रचलन में हैं, उन्हें नकारता है। जबकि इनमें ज्ञान और अनुसंधान अंतनिर्हित हैं। ये समाज के संज्ञान में हैं, जिससे इन्हें आपस में साझा करके उपयोग में लाया जा सके। साफ है, बड़ी कंपनियां देशी ज्ञान पर एकाधिकार प्राप्त कर समाज को ज्ञान और उसके उपयोग से वंचित कर रही हैं।
डॉक्टरों को महंगे उपहार देकर महंगी और गैर-जरूरी दवाएं लिखवाने का बढ़ा प्रचलन
इंसान की जीवन-रक्षा से जुड़ा दवा कारोबार भारत में ही नहीं, दुनिया में मुनाफे की अमानवीय और अनैतिक हवस में बदलता जा रहा है। चिकित्सकों को महंगे उपहार देकर रोगियों के लिए महंगी और गैर-जरूरी दवाएं लिखवाने का प्रचलन लाभ का धंधा बन गया है। विज्ञान की प्रगति और उपलब्धियों के सरोकार आदमी और समाज के हितों में निहित हैं। लेकिन दुनिया में मुक्त बाजार की उदारवादी व्यवस्था के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो वर्चस्व स्थापित हुआ, उसके तईं, जिस तेजी से व्यक्तिगत और व्यवसायजन्य अर्थ-लिप्सा और लूटतंत्र का विस्तार हुआ है, उसके शिकार चिकित्सक तो हुए ही, सरकारी और गैर-सरकारी ढांचा भी हो गया है। किसी बाध्यकारी कानून को अमल में लाने में भी ये रोड़ा अटकाने का काम करती हैं। क्योंकि ये अपना कारोबार विज्ञापनों और चिकित्सकों को मुनाफा देकर ही फैलाए हुए हैं।
भारत की छोटी दवा कंपनियों के संघ का तो यहां तक कहना है कि अगर चिकित्सकों को उपहार देने की कुप्रथा पर कानूनी रोक लगा दी जाए तो दवाओं की कीमतें पचास फीसद तक कम हो जाएंगी। चूंकि दवा का निर्माण एक विशेष तकनीक के तहत किया जाता है और रोग और दवा विशेषज्ञ चिकित्सक ही पर्चे पर एक निश्चित दवा लेने को कहते हैं।
दरअसल, इस तथ्य की पृष्ठभूमि में यह उद्देश्य अंतर्निहित है कि रोगी और उसके अभिभावक दवाओं में विलय रसायनों के असर और अनुपात से अनभिज्ञ होते हैं, इसलिए वे दवा अपनी मर्जी से नहीं ले सकते। इसलिए चिकित्सक की लिखी दवा लेना जरूरी होता है, लिहाजा विकासशील और गरीब देशों के चिकित्सक मरीज की इस लाचारी का लाभ धड़ल्ले से उठा रहे हैं। अब एनएमसी ने जेनेरिक दवा ही लिखने के जो दिशा-निर्देश दिए हैं, उनका ईमानदारी से पालन होता है तो रोगी कम खर्च में जल्दी स्वस्थ तो होगा ही, भारत का दवा उद्योग भी फलेगा-फूलेगा।
क्या है जनऔषधि केंद्र और कैसे होता है काम?
सस्ती दवाओं के लिए पूरे देश में प्रधानमंत्री जनऔषधि केंद्र खोले गए हैं। इनकी संख्या वर्तमान में 9,400 के करीब है। इन्हें और बढ़ाया जा रहा है। भारत सरकार ने देश में दो हजार और नए केंद्र खोलने की स्वीकृति दी है। दवाओं की इन दुकानों की खास बात है कि यहां मिलने वाली जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं की तुलना में 50 से 90 फीसद तक सस्ती होती हैं। ब्रांडेड दवाएं इसलिए महंगी होती हैं, क्योंकि इन्हें कंपनियां बीमारी के उपचार के हिसाब से शोध और ‘ड्रग ट्रायल’ करके बनाती हैं। इस परीक्षण में कई साल तो लगते ही हैं, सैकड़ों मरीजों पर इनका परीक्षण भी करना पड़ता है। इन शोधों के परिणामों के आधार पर कंपनियां विधि (फार्मूला) तैयार करती है, यह कई तत्त्वों का मिश्रण होता है। इसे ही गोली, कैप्सूल, द्रव्य या इंजेक्शन के रूप में बदल दिया जाता है। इस फार्मूले का दवा कंपनियां पेटेंट कराकर अलग-अलग कीमत रखती हैं।
पूरी दुनिया में ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं के नाम लगभग एक ही होते है। ऐसा दावा किया जाता है कि ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं के असर में कोई अंतर नहीं होता है। इसीलिए सस्ती जेनेरिक दवाओं के केंद्र पूरे देश में सरकारी प्रोत्साहन से खोले जा रहे है। हालांकि सस्ती होने के कारण रोगी इन दवाओं की गुणवत्ता पर भरोसा नहीं करते हैं। लेकिन अब चिकित्सक द्वारा जेनेरिक दवाएं नहीं लिखने पर दंड के प्रावधान के चलते यदि चिकित्सक पर्चे पर जेनेरिक दवाएं लिखेंगे तो रोगी को यह विश्वास हो जाएगा कि ये दवाएं गुणवत्ता पूर्ण है।
