चुनाव से ठीक पहले किए जाने वाले बदलावों और घोषणाओं का अमूमन खास फायदा नहीं होता, इस हकीकत को जानते-समझते हुए भी भारतीय जनता पार्टी ने इसी शनिवार को मध्य प्रदेश में अपने मंत्रिमंडल का संक्षिप्त विस्तार कर दिया। गौरी शंकर बिसेन और राजेंद्र शुक्ल को काबीना व राहुल लोधी को राज्य मंत्री बना दिया।
जबकि विधानसभा चुनाव में अब महज तीन महीने का वक्त ही बचा है। इस विस्तार की वजह मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने भले जातीय और क्षेत्रीय संतुलन कायम करना बताई हो पर हकीकत किसी से छिपी नहीं है। राज्य में भाजपा गुटबाजी, असंतोष और बगावत की गिरफ्त में है। अतीत पर गौर करें तो पाएंगे कि इस तरह की कवायदें खास चमत्कार नहीं दिखा पातीं।
दिल्ली में भाजपा ने 1998 में साहिब सिंह वर्मा को हटाकर विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया था। लेकिन सुषमा कोई चमत्कार नहीं कर पार्इं। भाजपा को कांग्रेस के हाथों करारी शिकस्त का मुंह ही देखना पड़ा। जबकि केंद्र में उस समय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।
भाजपा को मुख्यमंत्री बदलने का फायदा कर्नाटक में भी नहीं हुआ था। उल्टे कर्नाटक के अनुभव ने यही नसीहत दी कि दूसरे दलों में सेंध लगाकर जुगाड़ से हासिल की गई सत्ता दीर्घावधि के लिए नहीं होती। कर्नाटक में येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जद (एस) के विधायकों को तोड़कर अपनी सरकार बनाई थी।
पर आम चुनाव में जनता ने भाजपा को एक तरह से रसातल में पहुंचा दिया। उत्तर प्रदेश में तो भाजपा ने इस तरह की राजनीति का स्वाद 2002 में ही चख लिया था। बसपा और कांग्रेस के दागी विधायकों के बूते कल्याण सिंह ने अपनी सरकार तो बेशक बचा ली थी पर उसकी कीमत पार्टी को पूरे 15 वर्ष तक वनवास झेलकर चुकानी पड़ी थी।
मध्य प्रदेश में भी 2018 में सत्ता कांग्रेस को मिली थी। भाजपा सूबे में 15 वर्ष से लगातार सत्ता पर काबिज थी। पार्टी ने पिछला चुनाव तेरह वर्ष के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान के चेहरे पर ही लड़ा था। पर वे चौथी बार सत्ता में वापसी नहीं कर पाए। कांग्रेस ने कमलनाथ के नेतृत्व में सरकार बनाई थी। जो दो साल बाद 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से बहुमत खो बैठी।
शिवराज चैहान फिर मुख्यमंत्री बने तो जरूर पर पार्टी की गुटबाजी और असंतोष पहले से भी ज्यादा बढ़ गया। ऐसा पहली बार दिखा कि मुख्यमंत्री ने अकेले शपथ ली और पूरे महीने भर वे एक भी मंत्री नहीं बना पाए। बनाते भी कैसे। दलबदलुओं को तरजीह देना मजबूरी थी। पर इसमें अपनों के रूठने का जोखिम भी कम नहीं था।