विनय बिहारी सिंह
यह 126 वर्ष पहले की इलाहाबाद कुंभ मेले की घटना है। परमहंस योगानंद (प्रसिद्ध पुस्तक-आटोबायोग्राफी आफ अ योगी, जिसका हिंदी अनुवाद-योगी कथामृत है) के गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि सन 1894 में इलाहाबाद कुंभ में गए थे। वे गंगा तट पर चलते जा रहे थे और सोचते जा रहे थे कि यह मेला शोरगुल और भिखारियों के जमघट के सिवा कुछ नहीं है। उनका मेले से मोहभंग हो रहा था। उनके मन में आया कि इन कोलाहल पैदा करने वालों से अधिक तो भगवान उन पाश्चात्य वैज्ञानिकों से खुश रहते होंगे जो मानव जाति की भलाई के लिए धैर्य के साथ शोध कर रहे हैं। तभी उनके सामने एक लंबे कद का संन्यासी खड़ा हो गया। उसने कहा- महाराज एक संत आपको बुला रहे हैं। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी ने पूछा- कौन हैं वे? संन्यासी ने कहा- आकर खुद ही देख लीजिए। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी तब संन्यासी नहीं बने थे, लेकिन साधना की उच्च अवस्था में थे।

वे झिझकते हुए संन्यासी के साथ गए और एक पेड़ के पास पहुंच गए। वहां देखा कि पेड़ की छाया में मन को आकर्षित करने वाले शिष्यों की मंडली से घिरे एक गुरु बैठे हुए थे। अलौकिक तेजोमूर्ति थे वे। उनकी आंखें तेजस्वी थीं। वहां पहुंचते ही वे उठ खड़े हुए और उन्होंने स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी को आलिंगन में बांध लिया। अत्यंत प्रेम से उन्होंने कहा- आइए स्वामी जी।

मैं स्वामी नहीं हूं महाराज! उस महान संत ने कहा- ईश्वर की आज्ञा से मैं जिसे स्वामी की उपाधि प्रदान करता हूं, वह कभी उस उपाधि का त्याग नहीं करता। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी तुरंत आध्यात्मिक आशीर्वाद की लहरों में हिलोरें लेने लगे। उन्होने उस महान संत के चरणों में प्रणाम किया। वे मजबूत कद-काठी के युवक थे। उन्होंने पूछा- कुंभ मेले के बारे में आपके क्या विचार हैं? स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी ने कहा- मुझे बहुत निराशा हुई महाराज लेकिन तुरंत इसके आगे जोड़ दिया- आपके दर्शन होने के पहले तक। पता नहीं क्यों संतों में और इस कोलाहल में कोई मेल नजर नहीं आता।

दिव्य संत ने कहा- बेटा, जबकि स्वामी श्रीयुक्तेश्वर उनसे दुगुनी उम्र के थे, अनेक के दोष के कारण सभी को दोषी मत मानो। इस जगत में हर चीज मिश्रित रूप में है, शक्कर और रेत के मिश्रण की तरह। चींटी की भांति बुद्धिमान बनो, जो केवल शक्कर के कणों को चुन लेती हैं और रेत के कणों को स्पर्श किए बिना छोड़ देती है। इस मेले में अनेक साधु अभी भी माया में भटक रहे हैं, फिर भी कुछ ईश्वर- साक्षात्कारी संतों ने इसे पावन किया हुआ है। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर उस दिव्य संत सी बातों से सहमत हो गए। उन्होंने कहा- मैं जानता हूं कि आपको पूर्व और पश्चिम के देशों में समान रुचि है। इसीलिए मैंने आपको बुलाया है।

उन्होंने फिर कहा- स्वामी जी, आपको पूर्व और पश्चिम के बीच भविष्य में होने वाले सौहार्द्रपूर्ण आदान-प्रदान में एक भूमिका निभानी है। कुछ वर्षों बाद मैं आपके पास मैं एक शिष्य भेजूंगा (ये शिष्य परमहंस योगानंद थे), जिसे आप पश्चिम में योग का ज्ञान प्रसारित करने के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं। वहां के अनेक मुमुक्षुओं के ज्ञानपिपासु स्पंदन बाढ़ की भांति मेरी ओर आते रहते हैं। मैं अमेरिका और यूरोप में संत बनने योग्य अनेक लोगों को देख रहा हूं, जिन्हें जगाए जाने भर की देर है। उन्होंने स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी से हिंदू और ईसाई धर्मग्रंथों में निहित एकता पर एक छोटी सी पुस्तक लिखने का आग्रह किया। कुछ ही दिनों में स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी ने वह पुस्तक लिख दी, जिसका हिंदी में नाम है- कैवल्य दर्शनम और अंग्रेजी में होली साइंस। यह पुस्तक आज भी योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (वाईएसएस) के आश्रमों में उपलब्ध है।

इस पुस्तक को चार भागों में बांटा गया है। प्रथम भाग वेद से संबंधित है और इसमें सृष्टि के मूलभूत तथ्यों की तथा शून्य से उसके विकास की एवं शून्य में विलय की प्रक्रिया की चर्चा की गई है। द्वितीय भाग में जीव के अस्तित्व, चेतना और आनंद के उद्देश्यों और ध्येयों की चर्चा की गई है। तीसरा भाग इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति की पद्धतियों से संबंधित है। चौथे भाग में उन अनुभवों का वर्णन है जो जीवन के इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति के मार्ग पर उन्नत हुए और अपने अंतिम के पास पहुंचे लोगों को प्राप्त होते हैं।

स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी ने इस पुस्तक में पहले भारतीय ऋषियों की भाषा में विषय से संबंधित संस्कृत सूत्र प्रस्तुत किए हैं और फिर उन्हें पाश्चात्य देशों के धर्मशास्त्रों का संदर्भ देकर स्पष्ट किया है। इस प्रकार इस पुस्तक में पूर्व और पश्चिम के धर्मशास्त्रों की शिक्षाओं में वास्तव में कोई अंतर नहीं है। सन 1894 में प्रकाशित यह पुस्तक आज भी चाव से पढ़ी जाती है। ( कई संदर्भ योगी कथामृत और कैवल्य दर्शनम पुस्तकों से उद्धृत किए गए हैं)