आस्ट्रेलिया में वैज्ञानिकों ने एक तरीका खोजा है, जिससे शरीर में ही इंसुलिन दोबारा बनने लगे। हालांकि शोध अभी शुरुआती दौर में है, लेकिन मधुमेह के पक्के इलाज की दिशा में अहम कदम बढ़ाया गया है। आस्ट्रेलिया की मोनाश विश्वविद्यालय में इस तरह का अध्ययन किया गया है। इसके जरिए ऐसी प्रक्रिया की जानकारी जुटाई गई है, जिससे पेंक्रियाटिक स्टेम कोशिकाओं में इंसुलिन अपने आप बनने लगे। ऐसा होने पर टाइप 1 और टाइप 2 डायबिटीज के इलाज में अहम कदम होगा।
शोधकर्ताओं ने टाइप 1 मधुमेह के मरीज द्वारा दान की गर्इं पेंक्रियाज कोशिकाओं पर अध्ययन किया। उन्होंने अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा मंजूर एक दवा का इस्तेमाल किया, जो अभी मधुमेह के इलाज में प्रयोग नहीं की जाती। इस दवा के जरिए पेंक्रियाज स्टेम कोशिकाओं को दोबारा सक्रिय करने और ‘इंसुलिन एक्सप्रेसिंग’ बनाने में शोधकर्ता कामयाब रहे।
शोधकर्ताओं का कहना है कि अभी इस दिशा में और शोध की जरूरत है। कामयाबी मिलने पर इसका इलाज डायबिटीज को ठीक करने में हो सकता है। इस तरीके से टाइप 1 डायबिटीज के कारण नष्ट हो गर्इं कोशिकाओं की जगह नई कोशिकाएं ले लेंगी, जो इंसुलिन का उत्पादन कर सकेंगी।
आस्ट्रेलिया की मोनाश विश्वविद्यालय में मधुमेह विशेषज्ञ प्रोफेसर सैम अल-ओस्ता और डा इशांत खुराना ने यह शोध किया है। पूरी तरह कामयाबी मिलने पर डायबिटीज के मरीजों की दवा या इंजेक्शन की जरूरत खत्म हो सकती है।
दुनियाभर में मधुमेह के मामले 50 करोड़ को पार कर चुके हैं और यह रोग सबसे खतरनाक बीमारियों में शामिल है। इस रोग के लिए समुचित इलाज भी उपलब्ध नहीं है, जो दुनियाभर के शोधकर्ताओं के सामने एक बड़ी चुनौती है। प्रोफेसर अल-ओस्ता ने एक बयान में कहा, हम समझते हैं कि हमारा शोध बहुत खास है और नया इलाज खोजने की दिशा में एक अहम कदम है।
नेचर पत्रिका में छपे इस शोध के मुताबिक पेंक्रियाज की मरी हुई कोशिकाओं की जगह नई कोशिकाओं को सक्रिय करने के लिए शोधकर्ताओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। आमतौर पर माना जाता है कि एक बार खराब हो जाने के बाद पेंक्रियाज को ठीक नहीं किया जा सकता। प्रोफेसर अल-ओस्ता के मुताबिक, जब तक किसी व्यक्ति में टाइप 1 मधुमेह (टी1डी) का पता चलता है, तब तक इंसुलिन बनाने वाले उसकी बहुत सारी पेंक्रियाज बीटा कोशिकाएं नष्ट हो चुकी होती हैं।
ऐसे में मधुमेह ग्रस्त पेंक्रियाज इंसुलिन बनाने के अयोग्य नहीं हो जाता। इसका एकमात्र प्रभावी विकल्प पेंक्रियाटिक आइलेट ट्रांसप्लांट है। इससे डायबिटीज के मरीजों की सेहत के लिए नतीजे तो बेहतर मिले हैं, लेकिन ट्रांसप्लांट किसी द्वारा दान पर निर्भर करता है, इसलिए इसका ज्यादा प्रयोग नहीं हो पा रहा है।
शोध में शामिल रहे विशेषज्ञ डा अल-हसानी के मुताबिक, दुनिया की आबादी लगातार बूढ़ी हो रही है और टाइप 2 डायबिटीज को लेकर चुनौतियां बढ़ रही हैं जो मोटापे में वृद्धि से भी जुड़ा है। मरीजों तक इसे पहुंचाने से पहले कई तरह के मसलों के हल की जरूरत है। इन कोशिकाओं को परिभाषित करने के लिए और ज्यादा काम करने की जरूरत है।
