आधुनिक विकास अब संकट का सबब बन रहा है। तेलंगाना के नगरकुरनूल जिले के डोमलपेंटा गांव में ‘श्रीशैलम लेफ्ट बैंक कैनाल’ (एसएलबीसी) परियोजना की निर्माणाधीन सुरंग में आठ लोगों का फंस जाना एक ऐसा संदेश है, जिसे समझने की जरूरत है। बीती फरवरी में यह सुरंग ढह गई। सुरंग मलबे और पानी से भर गई है। वहां फंसे लोगों तक पहुंचने के लिए बचाव दल जुटे हैं। विकास की कीमत हमें जान देकर चुकानी पड़ सकती है।

आगे क्या होगा, किसी को कुछ नहीं पता। सड़कों, रेलवे लाइनों, नहरों के पानी की निकासी और जल विद्युत परियोजनाओं के लिए हिमालय के शिखरों से लेकर मध्य और दक्षिण भारत के अनेक पहाड़ों को खोदा जा रहा है। वहीं इन कठिन कार्यों को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए अनेक दुर्घटनाओं का सामना भी करना पड़ रहा है।

आधुनिक औद्योगिक विकास का ही परिणाम हैं दरकते हुए पहाड़

समूचे हिमालयी क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटन सुविधाएं जुटाने के लिए जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की बाढ़ आई हुई है। इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेलगाड़ियां चलाने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें बनाई जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक औद्योगिक विकास का ही परिणाम है कि आज पहाड़ दरकने लगे हैं। हिमालय और पृथ्वी सुरक्षित रहे, इस दृष्टि से कृतज्ञ मनुष्य ने अथर्ववेद में लिखे पृथ्वी-सूक्त में अनेक प्रार्थनाएं की हैं। यह सूक्त राष्ट्रीय अवधारणा एवं वसुधैव कुटुंबकम की भावना को विकसित, पोषित एवं फलित करने के लिए मनुष्य को नीति और धर्म से बांधने की कोशिश की है। मगर हमने आधुनिक विकास के बहाने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट कर दिया। जोशीमठ इसी अनियोजित विकास की परिणति है।

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उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ शहर ने कई अप्रिय कारणों से नीति-नियंताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संठन (इसरो) द्वारा जारी उपग्रह तस्वीरों में जोशीमठ के 5.4 सेंटीमीटर हिमालय में धंस जाने पर चिंता जताई गई है। सिमटती धरती की प्रामाणिक सच्चाइयों को छिपाने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और उत्तराखंड सरकार ने कई सरकारी संस्थानों को निर्देश दिया है कि वे मीडिया के साथ जानकारी साझा न करें। नतीजतन, इसरो की बेवसाइट से धरती के धंसने के चित्र हटा दिए गए।

तेज बारिश के कारण पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में बढ़ जाती हैं

सरकार का यह उपाय भूलों से सबक लेने के बजाय उन पर धूल डालने जैसा है। जब हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र ने धरती को हिला कर नाजुक बना दिया है और घरों में दरारें पड़ने के साथ आधार तल धंस रहा है, तब लोगों को जीवन-रक्षा से जुड़ी सच्चाइयों को क्यों छुपाया जा रहा है? दरअसल, केंद्र और राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद हठपूर्वक पर्यावरण के विपरीत जिन विकास योजनाओं को चुना है, उनके कारण यदि लोग अपने गांव और आजीविका खो रहे हैं, तो ऐसी परियोजनाएं किसलिए और किसके लिए?

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उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटा और पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जा रहा है। नदियों पर बांध बनाने के लिए गहरी बुनियाद डाली जाती है। गहरे गड्ढे खोद कर खंबे खड़े किए जाते हैं। कई जगह सुरंगें बना कर पानी की धार को संयंत्र के पंखों पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से होने वाला कंपन पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से गुंथे पहाड़ की पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन, तेज बारिश के कारण पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में बढ़ जाती हैं। यही नहीं, कठोर पत्थरों को तोड़ने के लिए भीषण विस्फोट भी किए जा रहे हैं। एसएलबीसी नहर के निर्माण में भी पहाड़ को विस्फोटकों से खोदा जा रहा है।

हिमालय में रेल परियोजनाओं पर चल रहा काम

हिमालय में अनेक रेल परियोजनाओं पर काम चल रहा है। सबसे बड़ी रेल परियोजना उत्तराखंड के चार जिलों (टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली) के तीस से ज्यादा गांवों को भी विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। छह हजार परिवार विस्थापन के दायरे में आ गए हैं। रुद्रप्रयाग जिले के मरोड़ा गांव के सभी घर दरक गए हैं। रेलवे ने इनके विस्थापन की तैयारी कर ली है। यह तो शुरूआत है, लेकिन ये विकास इसी तरह जारी रहते हैं, तो बर्बादी और बढ़ेगी। दरअसल, ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल परियोजना 125 किलोमीटर की है। इसके लिए देवप्रयाग से सुरंग बनाई जा रही है, जो 14.8 किलोमीटर लंबी है। केवल इसी सुरंग का निर्माण बोरिंग मशीन से किया जा रहा है। बाकी बन रही पंद्रह सुरंगों में ड्रिल तकनीक से बारूद लगाकर विस्फोट किए जा रहे हैं।

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दरअसल, उत्तराखंड का भूगोल बीते डेढ़ दशक में तेजी से बदला है। चौबीस हजार करोड़ रुपए की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना ने जहां विकास और बदलाव की ऊंची छलांग लगाई है, वहीं इन योजनाओं ने खतरों की नई सुरंगें भी खोल दी हैं। उत्तराखंड के सबसे बड़े पहाड़ी शहर श्रीनगर के नीचे से भी सुरंग निकल रही है। धमाकों के कारण डेढ़ सौ से ज्यादा घरों में दरारें आ गई हैं। पौड़ी जिले के कई इलाकों में 771 घरों में दरारें आ चुकी हैं। रेल परियोजनाओं के अलावा यहां बारह हजार करोड़ रुपए की लागत से बारहमासी मार्ग निर्माणाधीन हैं। इन मार्गों पर पुलों के निर्माण के लिए भी सुरंगें बनाई जा रही हैं, तो कहीं घाटियों के बीच पुल बनाने के लिए मजबूत आधार स्तंभ बनाए जा रहे हैं। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिहाज से किए जा रहे निर्माणों पर पुनर्विवार की जरूरत है।

जल जीवन मिशन के अंतर्गत खोदे जा रहे पहाड़

हाल ही में उत्तराखंड में देश की पहली ऐसी परियोजना पर काम शुरू हो गया है, जिसमें हिमनद की एक धारा को मोड़ कर बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास हो रहा है। यदि यह परियोजना सफल हो जाती है, तो पहली बार ऐसा होगा कि किसी बरसाती नदी में सीधे हिमालय का बर्फीला पानी बहेगा। हिमालय की अधिकतम ऊंचाई पर नदी जोड़ने की इस महापरियोजना का सर्वेक्षण शुरू हो गया है। इस परियोजना की विशेषता है कि पहली बार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की एक नदी को कुमाऊं मंडल की नदी से जोड़ कर बड़ी आबादी को पानी उपलब्ध कराया जाएगा।

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यही नहीं, एक बड़े भू-भाग को सिंचाई के लिए भी पानी मिलेगा। ‘जल जीवन मिशन’ के अंतर्गत इस परियोजना पर काम किया जा रहा है, लेकिन इस परियोजना के क्रियान्वयन के लिए जिस सुरंग का निर्माण कर पानी नीचे लाया जाएगा, उसके निर्माण में हिमालय के शिखर-पहाड़ों को खोद कर सुरंगों और नालों का निर्माण किया जाएगा, उनके लिए ड्रिल मशीनों से पहाड़ों को छेदा जाएगा और विस्फोट से पहाड़ों को शिथिल किया जाएगा। यह स्थिति हिमालयी पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नया बड़ा खतरा साबित हो सकती है।