ज्योति सिडाना
विकास का वास्तविक अर्थ संसाधनों का तार्किक विभाजन और उनका विस्तार है, ताकि संबंधित राष्ट्र की जनसंख्या सामाजिक अस्तित्व संबंधी अपनी आवश्यकताओं को संतुष्ट करने में सक्षम हो सके। जीने का अधिकार प्राकृतिक और मानवाधिकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अगर इस अधिकार को सुनिश्चित नहीं किया जाता है तो यह लोकतंत्र की असफलता है। आर्थिक तंगी की मार झेल रहे परिवारों को भी जिंदगी में हर संघर्ष का साहस से मुकाबला करने की जरूरत है।
भारतीय समाज में लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने खड़ी मुश्किलों और चुनौतियों के पीछे बाजार और कारपोरेट संस्कृति एक मुख्य कारण है। देश की आबादी का एक बड़ा भाग ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है, जहां बाजार ने उपभोग के तरीकों को बदल दिया है। यह एक वास्तविकता है कि ग्रामीण आबादी तुलनात्मक रूप से गरीबी की अधिक शिकार है। एक अनुमान के अनुसार स्वास्थ्य और दवाओं पर होने वाले खर्च के कारण लगभग तीस मिलियन लोग कर्ज में डूब जाते हैं।
गरीबी की यह स्थिति तब और अधिक जटिल हो जाती है, जब इसमें शिक्षा पर होने वाले व्यय को भी शामिल कर लिया जाता है। शिक्षा और स्वास्थ्य, दोनों ही मामलों में निजी क्षेत्र की सक्रिय भूमिका होती है, क्योंकि इनमें राज्य का हस्तक्षेप या तो न के बराबर है या फिर अप्रभावी है। नव-उदारवादी मानसिकता से युक्त कारपोरेट जगत और निजी क्षेत्र के उद्यमी गांव के लोगों की जीवनशैली को प्रभावित और परिवर्तित करते हैं।
परिणामस्वरूप ग्रामीण आबादी के एक वर्ग के जीवन स्तर में कुछ सुधार देखा जाता है। अब वे उन इलेक्ट्रानिक संसाधनों, मोबाइल, नवीन प्रौद्योगिकी से जुड़े अन्य उपकरणों पर भी खर्च करते हैं जो शहरी क्षेत्रों में लोकप्रिय हैं।
जीवनशैली में ये बदलाव कभी-कभी ग्रामीण लोगों को जमीन सहित अपनी संपत्ति बेचने के लिए मजबूर करते हैं। ‘फाउंडेशन आफ एग्रेरियन रिलेशंस’ द्वारा किए गए कई अध्ययनों से साबित हुआ है कि ग्रामीण अब खुद को जमीन की संपत्ति से दूर करने और असंगठित गैर-कृषि गतिविधियों में शामिल होने के लिए मजबूर हैं। यह विस्थापन, पलायन, पुनर्वास का अभाव ‘गरीबी सिंड्रोम’ को जन्म देता है।
यह स्थिति सर्वहाराकरण की प्रक्रिया से भी अधिक कठिन है। इसका मतलब है कि गांवों में गैर-किसानीकरण दिखाई देने लगा है, लेकिन यह आबादी संगठित प्रकृति के शहरी और अर्द्ध-शहरी सर्वहारा वर्ग में प्रवेश करने में विफल रही है। जानकारों का मानना है कि ग्रामीण गरीबी का यह ढांचा सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों में से एक है, जिस पर समाजशास्त्रियों को ध्यान देना चाहिए।
गरीबी के कारण अपने बीमार छोटे बच्चों का इलाज न करवा पाने और उन्हें अक्सर भूखा सुलाने पर मजबूर होने के कारण किसी परिवार के सामूहिक आत्महत्या करने या कुएं में कूदने की खबरें अक्सर आने लगी हैं। पिछले कुछ समय से महंगाई दर में हो रही वृद्धि ने निम्न और मध्यवर्गीय जनसंख्या के सामने अनेक समस्यामूलक स्थितियों को उत्पन्न किया है।
न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इतना अधिक व्यय इन दोनों वर्गों के सम्मुख अस्तित्व की निरंतरता को चुनौती दे रहा है। यह एक दुर्भाग्यजनक स्थिति है कि राज्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली के द्वारा निर्धन जनसंख्या को न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संसाधन उपलब्ध नहीं करवा पा रहा है।
भारत जैसे विकासशील देश के लिए परिवारों में पनपने वाले ये आर्थिक संकट सांस्कृतिक दृष्टि से भी खतरे के संकेत हैं। देखा जाए तो इन घटनाओं ने तीन महत्त्वपूर्ण पक्षों को हमारे समक्ष उभारा है। पहला, क्या ग्रामीण भारत में परिवार प्रणाली कमजोर हो रही है? पहले जब आर्थिक विपन्नता की स्थिति उत्पन्न होती थी तो समूचा परिवार एकजुट होकर उसका सामना करता था, लेकिन अब निर्धनता या आर्थिक विपन्नता का सामना करने के लिए सामूहिकता या परिवार की एकजुटता नहीं है और शायद इसलिए लोग इसका सामना करने में कमजोर हुए हैं और कई बार पूरे परिवार का जीवन समाप्त करने का निर्णय लेने में भी नहीं चूकते।
दूसरा, सार्वजनिक या सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी या अनुपस्थिति, सुविधाओं का अभाव, अस्पतालों की संवेदनहीन कार्यप्रणाली ने नागरिकों के समक्ष जीने का संकट पैदा कर दिया है। और तीसरा, गरीबी इतनी व्यापक हो गई है कि निर्धन परिवार और निम्न मध्य वर्गीय परिवार से संबद्ध रोगी महंगी होती आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचने में असमर्थ है या कहें कि महंगी चिकित्सा प्रणाली अब अत्यंत गरीब परिवारों की पहुंच के बाहर हो चुकी है।
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत को चौथी सबसे बड़ी विकसित अर्थव्यस्था के रूप में उभरते देखा जा रहा है। जबकि यहां लगभग छब्बीस फीसद जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवनयापन करती है, चालीस फीसद से अधिक जनसंख्या अशिक्षित है, देश के कई ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में चिकित्सीय सुविधाएं नहीं हैं।
ऐसे में विकास क्यों और विकास किसके लिए और विकास किस दिशा में हो रहा है, जैसे पक्ष चिंतन का विषय बनकर उभरे हैं। जो लोग विकास के माध्यम से धनाढ्य हो सके, उनके लिए विकास की प्रक्रिया समृद्धि की द्योतक बन जाती है, जबकि अन्य के लिए विकास फिलहाल एक भ्रम है। चूंकि हम विकास को न्याय, समानता, लोकतंत्र जैसे मूल्यों के साथ वास्तविक रूप से नहीं जोड़ पाए, इसलिए विकास एक वर्गीय अवधारणा बनकर रह गई।
जबकि विकास का वास्तविक अर्थ संसाधनों का तार्किक विभाजन और उनका विस्तार है, ताकि संबंधित राष्ट्र की जनसंख्या सामाजिक अस्तित्व संबंधी अपनी आवश्यकताओं को संतुष्ट करने में सक्षम हो सके। जीने का अधिकार प्राकृतिक और मानवाधिकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अगर इस अधिकार को सुनिश्चित नहीं किया जाता है तो यह लोकतंत्र की असफलता है।
आर्थिक तंगी की मार झेल रहे परिवारों को भी जिंदगी में हर संघर्ष का साहस से मुकाबला करने की जरूरत है। जिंदगी से हार जाना कभी भी निर्धनता की संस्कृति का हिस्सा नहीं हो सकती, क्योंकि यह अधिक श्रम करने और अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। अगर निर्धनता जीवन से पलायन करने की प्रवृत्ति को जन्म दे, तब इसे संस्कृति की निर्धनता कहा जाना चाहिए।
एक तथ्य यह भी है कि देश में अधिकांश डाक्टर शहरों में केंद्रित हैं या आधुनिक चिकित्सीय सुविधाओं से युक्त अस्पताल भी शहरों में स्थापित हैं। जबकि देश की अधिकांश आबादी आज भी गांवों में निवास करती है। चूंकि सरकारी चिकित्सालयों में सुविधाएं निजी चिकित्सालयों की तुलना में कम हैं, इसलिए अनेक डाक्टर निजी अस्पतालों की तरफ रुख कर लेते हैं या फिर निजी क्लिनिक खोल लेते हैं।
परिणामस्वरूप भारत में चिकित्सा सेवाएं कारपोरेट बाजार का हिस्सा बनती जा रही हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के व्यवसायीकरण ने डाक्टरों और रोगी के मध्य संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। आमतौर पर ऐसा देखा जाता है कि सरकारी अस्पतालों में जांच उपकरण खराब पड़े होने या आधुनिक उपकरण न होने के कारण रोगी को संबंधित जांच निजी केंद्रों पर करवाने के लिए बाध्य होना पड़ता है और अगर सरकारी अस्पतालों में जांच हो भी जाए तो ज्यादातर निजी डाक्टर उन चिकित्सा रिपोर्ट को स्वीकार नहीं करते हैं और निर्धारित जांच केंद्रों पर नए सिरे से जांच करवाने के लिए रोगी को बाध्य करते हैं। इसलिए स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में राज्य के द्वारा तत्काल संरचनात्मक सुधार की आवश्यकता है।
सवाल यह है कि ऐसी स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार हैं? वह परिवार, जो अपने बीमार बच्चों का इलाज करवा पाने और उनकी भूख शांत करने में असमर्थ होने के कारण उनकी हत्या तक कर देता है? या वह अस्पताल, जो पैसों के अभाव में गरीब बच्चों के इलाज की उपेक्षा करते हैं? या फिर वह राज्य जो हर नागरिक के जीवन जीने के अधिकार की रक्षा करने के अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर पा रहा है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह कौन सुनिश्चित करेगा?
निर्धनता से उत्पन्न होने वाली असहाय होने की स्थिति के कारण जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा न केवल भाग्यवादी होता जा रहा है, बल्कि उनके आपराधिक कृत्यों में संलिप्त होने की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए भारत को विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करने और सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सरकार और प्रशासन को इस दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है।