धीरज चतुर्वेदी

पानी है पर प्यासे हैं। बुंदेलखंड का यही हाल है। यहां पानी की कमी नहीं है पर व्यवस्था की कमी है। राजा महाराजाओं ने बुंदेलखंड में तालाब संस्कृति को जीवंत किया। कुआं-बाबड़ी पानी की प्यास बुझाते थे और तालाब का पानी रोज की जरूरत को पूरा करते थे। इन जल संरचनाओं को तबाह कर दिया गया। अब केन व बेतवा जैसी अरबों रुपए की परियोजना से बुंदेलखंड को तरबतर करने का सपना है। कब होगा यह तो भविष्य के गर्त में है।

यह सच है कि जब तक विरासत में मिले जल संचय के स्रोत को संजोया नहीं जाएगा, तब तक बुंदेलखंड की प्यास नहीं बुझाई जा सकेगी। इन तालाब कुओं से धार्मिक परंपराएं जुडी हैं। जब ये जल संरचनाएं जिंदा नहीं रहेंगी तो धार्मिक परंपराएं कैसे जीवित रहेंगी। बुंदेलखंड के छतरपुर शहर में कुछ दशक पहले तक सैकड़ो सार्वजनिक कुएं होते थे, लेकिन समय के साथ अधिकांश कुओं पर कब्जे हो गए और प्रशासन सोता रहा।

जो बचे हैं, उनकी अनदेखी कर उन्हें मृत किया जा रहा है। जबकि यह विरासत की धरोहर है जिनकी जल संचय की महत्ता को इंकार नहीं किया जा सकता। एक वह समय था जब भूगर्भ को चीर कर होने वाला बोरिंग युग नहीं था। तब यही कुएं और तालाब जल आपूर्ति का साधन थे। छतरपुर शहर में कई कुएं आज भी मौजूद हैं जिनसे नगरपालिका पाइप लाइन के जरिए पानी की घरो तक आपूर्ति कराती थी। युग बदला और बिजली का खटका दबाते ही आसानी से पानी मिलने का दौर शुरू हुआ। जिसने परंपरागत जल स्रोतों, संरचनाओं को तबाह करना शुरू कर दिया। आज इन धरोहरों को नष्ट किया जा रहा है।

संस्कृति और परंपराओं में कुओं, बाबड़ी और तालाबों को धार्मिक महत्त्व से भी जोड़ा गया है। ताकि इनका आने वाली पीढ़ी संरक्षण कर सके। परंपरा तो जिंदा है लेकिन इनको जीवित रखने वाले दम तोड़ रहे हैं। हिंदू धर्म में किसी भी मांगलिक और शुभ अवसर पर कुआं पूजन की परंपरा है। संतान होने पर कुआं पूजन का भव्य आयोजन होता है।

इसी तरह शादी के मांगलिक रस्मों की शुरुआत ही कुआं पूजन से होती है। साल में मकर संक्रांति, कार्तिक के माह जैसे त्योहारों पर स्रान करने की प्रथा चली आ रही है। इस प्रथा को जीवित रखने के लिए ही जहां नदियों के किनारे नहीं रहे वहां तालाब संस्कृति को पूर्वज जिन्दा कर गए। जैसे बुंदेलखंड में शायद ऐसा कोई गांव होगा जहां ऐतिहासिक तालाब ना हो।

परंपराएं तो चली आ रही हैं लेकिन जिन तालाबों, कुओं के कारण परंपरा जीवित रहेगी, उन्हें तो मृत किया जा रहा है। हालात यह है कि कुओं की जगह हैंडपंप पूजे जा रहे हैं और मुख्य त्योहार पर खुले जल स्रोतों में स्रान करने की जगह बोरिंग के पानी से नहा कर परंपरा को जिंदा रखा जा रहा है। सदियों से पानी की किल्ल्त से जूझते बुंदेलखंड के लिए विरासत में मिली जल संरचनाओं का संरक्षण जरूरी है।

भले ही केन बेतवा जैसी वृहद परियोजना से बुंदेलखंड को तरबतर करने के दावे किए जाते हों, इस परियोजना का लक्ष्य 2035 तक है। पर कब पूरी होगी इसका आकलन फिलहाल नहीं किया जा सकता। यह कटु सत्य है कि बुंदेलखंड में पानी की समस्या का स्थायी हल बड़ी परियोजनाओं में नहीं बल्कि जीवंत परंपरागत संस्कृति पूर्वजों की धरोहर जल संरचनाओं में छुपा है।