Delhi Election 2025: मैं दिल्ली हूं की तीसरी पेशकश में बात 1998 के उस चुनाव की जिसने इतिहास लिख दिया था। इतिहास इसलिए क्योंकि पहली बार दो बड़ी पार्टियों की तरफ से महिला चेहरों को उतार दिया गया था। बीजेपी के लिए मोर्चा संभाले खड़ी थीं सुषमा स्वराज और दिल्ली में कांग्रेस का नेतृत्व कर रही थीं यूपी की बहू शीला दीक्षित। एक को सीएम बने मात्र 52 दिन हुए थे, दूसरे को दिल्ली की राजनीति का ज्यादा अता-पता नहीं था। यानी कि चुनौती दोनों तरफ से थी, एक को सत्ता विरोधी लहर की काट ढूंढनी थी, दूसरे को दिल्ली के दिल में पहली बार जगह बनानी थी।

1998 का दिल्ली चुनाव याद किया जाता है बीजेपी के एक बड़े एक्सपेरिमेंट के लिए, साहिब सिंह वर्मा राजधानी के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। मदन लाल खुराना के इस्तीफे के बाद उन्हें वो सत्ता सौंपी गई थी। लेकिन प्याज के दाम रॉकेट बन चुके थे, बिजली सप्लाई कई इलाकों में ठप चल रही थी और भ्रष्टाचार की छींटे सरकार को बदनाम करने लग गई थी। उस बदनामी, उस फजीहत और उस चुनौती से परेशान होकर ही बीजेपी ने चुनाव से ठीक पहले अपना मुख्यमंत्री बदल दिया।

सुषमा स्वराज को अपना सीएम घोषित किया और प्रयास रहा कि महिला कार्ड के जरिए दिल्ली में फिर सत्ता वापसी की जाएगी। लेकिन महिलाओं का बजट भी तो इस बीजेपी सरकार ने ही बिगाड़ा था, प्याज के दामों ने इतना रुला दिया था कि सुषमा के आने के बाद भी हालात नहीं सुधर पाए। सुषमा को लेकर यह जरूर कहा जाता है कि उन 52 दिनों में उन्होंने जमकर पसीना बहाया था, उनकी तरफ से जरूर बीजेपी की छवि सुधारने की कोशिश हुई। मतलब पुलिस तो केंद्र के अधीन थी, लेकिन फिर भी हर पुलिस थाने के चक्कर सुषमा काट रही थीं, क्या देखने के लिए- लोगों का काम हो रहा है या नहीं, उनकी समस्याओं को सुना जा रहा है या नहीं।

बीजेपी को विश्वास आ गया था- सुषमा हैं तो मुमकिन हैं। सभी को लगा अपने अनुभव, अपनी तेज-तर्रार अंदाज से वे हारी हुई बाजी को पलट देंगी। लेकिन तब दिल्ली में एक और बड़ा प्रयोग हो चुका था, कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित बन चुकी थीं। कांग्रेस के बिखरे जनाधार को एकजुट करने का काम शीला को ही करना था। पिछला चुनाव काफी खराब रहा था, बीजेपी बहुत मजबूत चल रही थी, लेकिन शीला प्लान एक्शन में आ चुका था।

कई आंदोलन का चेहरा बन चुकीं शीला जानती थीं कि जातीय समीकरण से ज्यादा लोगों के मुद्दे ही अब कांग्रेस को सत्ता में ला सकते थे। ऐसे में उनका सबसे बड़ा प्रहार वहां हुआ जहां बीजेपी को सबसे ज्यादा दर्द हुआ। वो मुद्दा प्याज के दाम। 80 रुपये किलो तक पहुंच चुकीं प्याज दिल्ली को रुला रही थीं, लेकिन शीला ने भी ठान लिया था, यही दाम अब बीजेपी को रुलाएगी। इसके ऊपर एक भोजपुरी गाना तब इतना वायरल हुआ कि बीजेपी चाहकर भी महंगाई वाले नेरेटिव को तोड़ नहीं पाई। गाना गाया था मनोज तिवारी ‘मृदुल ने उसके बोल कुछ ऐसे थे- अब का सलाद खईब, पियजिया अनार हो गईल। वाह रे अटल चाचा, निमकिया पे मार हो गईल।

इस गाने का मतलब था कि प्याज के दाम तो अनार जितने हो गए और अटल राज में नमक के लिए भी मारामारी जैसी स्थिति बन गई। अब उसी माहौल में दिल्ली का चुनाव हुआ और सुषमा स्वराज की मेहनत पर पानी फिर चुका था, बीजेपी को जस बात का डर था, वो हकीकत बन चुका था।

1998 के दिल्ली चुनाव में कांग्रेस ने 70 में से 52 सीटें अपने नाम की थीं। बीजेपी के खाते में सिर्फ 15 सीटें गईं। यह नतीजे एकदम 1993 जैसे रहे जब मदन लाल खुराना ने दिल्ली में पहली बार प्रचंड कमल खिलवा दिया था, इस बार बस चेहरे बदल गया, पार्टी बदल गई और जनता का समर्थन भी कहीं और चला गया। कांग्रेस ने उस चुनाव में 47.80 फीसदी वोट हासिल किया था, वही बीजेपी का वोट शेयर 34.02 फीसदी पर सिमट गया। जानकारों ने माना कि उस चुनाव में कांग्रेस को दलित और मुस्लिम वोट एकमुश्त तरीके से पड़ा, इसके ऊपर पढ़ा-लिखा शहरी वोटर भी बीजेपी से छिटक गया, ऐसे में हर वर्ग में कांग्रेस की सेंधमारी हुई और बीजेपी के वोटों का उतने ही वर्गों से सियासी पलायन।

1998 की हार बीजेपी को सबसे ज्यादा इसलिए चुभी क्योंकि उसके बाद वो कभी भी राजधानी में अपनी सरकार नहीं बना पाई। दूसरी तरफ यूपी की बहू का दिल्ली आना कांग्रेस के लिए उसकी सबसे बड़ी संजीवनी साबित हुआ और 15 सालों तक दिल्ली ने शीला युग देखा, उनका विकास देखा। वर्तमान में तो स्थिति पूरी तरह पलट चुकी है, मुद्दे तो आज भी कई हैं, लेकिन महंगाई से किसी की सरकार नहीं गिर रही। ‘मैं दिल्ली हूं’ के चौथे पार्ट में बात होगी 2003 दिल्ली चुनाव की। 1993 वाले दिल्ली चुनाव की कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें