आखिरी समय में नेता तय करने से भाजपा और कांग्रेस में बगावत शुरू हो गई है। पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को दरकिनार करने के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली और उनके समर्थकों ने अपने खास पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय माकन को चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बनवाया। लेकिन प्रचार समिति का प्रमुख बनते ही माकन ने खुद को मुख्यमंत्री पद के दावेदार की तरह पेश करना शुरू कर दिया। इससे परेशान प्रदेश अध्यक्ष लवली ने उम्मीदवारों की पहली सूची में नाम घोषित होने के काफी दिन बाद हाई कमान से अपनी उम्मीदवारी वापस करवा ली। वे दिल्ली भर में चुनाव प्रचार करेंगे। लेकिन कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है। यही कहा जा रहा है कि जीत पर संशय देखकर प्रदेश अध्यक्ष खुद ही चुनाव मैदान से पलायन कर गए।
भाजपा लगातार यही दोहरा रही है कि मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया जाएगा और चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही लड़ा जाएगा। लेकिन जिस तरह सीधे प्रधानमंत्री से मुलाकात कराने के बाद प्रेस कांफ्रेंस में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली की मौजूदगी में बेदी को शामिल किया गया, उससे संदेश तो यही गया कि भाजपा केजरीवाल के मुकाबले दिल्ली के किसी परंपरागत भाजपा नेता के बजाय किरण बेदी को मुख्यमंत्री के चेहरे की तरह पेश कर रही है। किरण बेदी भी पार्टी में शामिल होते ही जिस तरह से सभी नेताओं को उपदेश देने लगी, उससे बगावती सुर उठने शुरू हो गए।
बेदी ने रविवार को अपने घर पर जिस तरह सांसदों की पेशी की और डॉ. हर्षवर्धन जैसे नेता के देरी से पहुंचने से पहले ही वे अपने घर से चली गई, उससे भी कई लोग हैरान हैंं। अब वे पूरी दिल्ली के कार्यकर्ताओं को निर्देश देने लगी हैं। उनके नाम की घोषणा होने के साथ ही उनके लिए प्रदेश दफ्तर में कमरा बनने लगा और जिस तरह से वे मीडिया से बात करने लगीं, उससे बाकी दावेदार नाराज होने लगे हैं। यह तो तय है कि बेदी भाजपा में एक साधारण विधायक बनने के लिए नहीं आई हैं पर दिल्ली सरकार में पांच साल तक मंत्री, करीब छह साल प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अब केंद्र में मंत्री हर्षवर्धन को मिलने के लिए घर बुलाने की बात अटपटी लग रही है। तभी तो दिल्ली उत्तर पूर्व के सांसद मनोज तिवारी ने कह दिया कि दो दिन पहले पार्टी आई बेदी कैसे मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार हो जाएंगी।
विरोध के स्वर वरिष्ठ नेता जगदीश मुखी के भी थे। संभव है कि चुनाव के बाद भाजपा के जीतने पर उन्हें ही मुख्यमंत्री बना दिया जाए लेकिन अभी सीधे तौर पर घोषणा से भाजपा नेतृत्व बच सकता है। यह जरूर है कि भाजपा पर जिस तरह का नियंत्रण अभी नरेंद्र मोदी का है, वैसा किसी एक भाजपा नेता का कभी नहीं रहा। माना यही जा रहा है कि मोदी के डर से ही सारे नेता किरण बेदी के पार्टी में आने का समर्थन कर रहे हैं।
1998 के विधानसभा चुनाव से पहले खुराना और तत्कालीन मुख्यमंत्री साहिब सिंह के झगड़े को टालने के लिए पार्टी नेतृत्व ने साहिब सिंह को हटाकर कद्दावर नेता सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बना दिया और उनकी अगुवाई में विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। उस चुनाव में न साहिब सिंह लगे और न खुराना। नतीजे में भाजपा बुरी तरह से चुनाव हारी। लुंज-पुंज कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव हारने वाली शीला दीक्षित की अगुआई में दो तिहाई सीट जीत कर दिल्ली में सरकार बनाई। 2013 के चुनाव भी डॉ. हर्षवर्धन का नाम मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के लिए घोषित करने से पहले जो नाम मुख्यमंत्री के लिए भाजपा की ओर से आ रहे थे, उसमें किरण बेदी का नाम भी था। 2014 के लोकसभा चुनाव में आप के असर को कम करने के लिए फिर से बेदी का नाम जोर-शोर से उभरा। खतरा यही है कि जनसंघ का गढ़ रही दिल्ली के भाजपा के नेता किसी गैर संघी पृष्ठभूमि के नेता को पूरी दिल्ली का नेता आसानी से नहीं स्वीकारेंगे। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है।
उधर, कांग्रेस का हाल यह है कि 12 जनवरी को कांग्रेस के प्रचार अभियान की कमान मिलते ही अजय माकन और उनके समर्थक यह जताने लगे कि विधानसभा चुनाव पूरी तरह से उनकी अगुआई में लड़ा रहा है। इसके जो भी नतीजे होंगे, उसके वे जिम्मेदार होंगे। कभी शीला दीक्षित के करीबी रहे माकन का सालों से उनसे विवाद है। मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह और कांग्रेस विधायक दल के नेता हारून यूसुफ हमेशा से माकन के खास रहे हैं। दीक्षित मंत्रिमंडल में रहते हुए भी इन दोनों के माकन से करीबी संबंध बने रहे। माकन ने उनसे मतभेद होने के सवाल पर यही दोहराया था कि पिछले दस साल से उनकी तिकड़ी नामी रही है। एक ही झटके में वह तिकड़ी टूट गई है। कांग्रेस को इस बगावत का कहीं चुनाव में खमियाजा न भुगतना पड़े।
कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे हाल में है। विधानसभा चुनाव में भले ही उसे आठ सीटें मिली लेकिन वोट तो 24.50 फीसद मिले थे। पर लोकसभा चुनाव में यह घट कर 15 फीसद पर आ गया। इस हाल में भी अगर कांग्रेस के नेता कांग्रेस को मजबूत करने के बजाय आपसी गुटबाजी में लगे रहे तो कांग्रेस के दिल्ली में वजूद पर ही सवाल उठ जाएगा।
आने वाले दिनों में यह और भी साफ हो जाएगा कि बेदी की चुनाव में कितनी बड़ी भूमिका है। बेदी का दिल्ली से लंबा संबंध है। भाजपा नेताओं के भी उनके साथ खट्टे्-मीठे संबंध रहे हैं। ईमानदार पुलिस अधिकारी के साथ-साथ राजनीतिक दलों की परवाह नहीं करने के लिए भी वे मशहूर रही हैं। इसी के चलते वे दिल्ली पुलिस प्रमुख नहीं बन पाई और समय से पहले रिटायरमेंट लेना पड़ा। भाजपा को सही मायने में अगर उनको विधानसभा चुनाव की बागडोर सौंपनी थी तो यह फैसला कई महीने पहले होना चाहिए था। आप के नेता अरविंद केजरीवाल महीनों से चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं और यह साफ है कि अगर आप को बहुमत मिला तो केजरीवाल ही मुख्यमंत्री होंगे।
इसी तरह की देरी पिछले चुनाव में मुख्यमंत्री के लिए हर्षवर्धन के नाम की घोषणा में हुई थी तो भाजपा नंबर एक पार्टी बनने के बावजूद बहुमत से कुछ दूर रह गई। यही हाल कांग्रेस का है। माकन को कमान 12 जनवरी को दी गई। वे कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार का काम देख रहे थे। पहले नाम तय करने का एक लाभ तो यह भी होता कि विरोध के स्वर कमजोर हो जाते और जिस तरह से आप पूरी ताकत से चुनाव प्रचार में लगी है उसी तरह भाजपा और कांग्रेस भी लगते। अब तो किसी के लिए अगर-मगर का समय नहीं है। चुनाव सात फरवरी को होने हैं।
मनोज मिश्र