नरपत दान चारण
अक्सर देखने में आता है कि भक्त और भक्ति के संदर्भ में हमारे विचार रूढ़ हो चुके हैं। आज भाव संवेदना को, भावुक याचना, भजन, दंडवत, पूजास्थल के आगे नाक रगड़ना,आंसू बहाना, मूर्ति के सामने समर्पण प्रदर्शित करना, इन सब को भक्ति भाव समझा जाता है। लेकिन भक्ति का स्वरूप यह शास्त्रों में भी नहीं है और व्यावहारिक रूप में भी नहीं है।
जहां तक आध्यात्मिक प्रगति एवं भक्ति के स्वरूप का संबंध है, यह रूप ही भक्ति का पर्याय बना हुआ है,यह ठीक नहीं है। भक्त का सीधा सादा मतलब है- जो सद्भाव, सद्कर्म और प्रेम और परमार्थ से जुड़ा है। जो दया, त्याग और ईमान का पालनकर्ता है, जो द्वेष, दुर्भाव से दूर है, वहीं सही अर्थ में भक्त हुआ। यानी जो सद्गुणों से विभक्त नहीं है वहीं भक्त है।
अगर कोई कोई किसी मन्दिर में जाता है, घंटों वहां भजन गायन करता है, याचना करता है, अरदास करता है लेकिन ज्योंही उस पूजा स्थल से बाहर निकलता है और कोई भिखारी वहां सीढ़ियों पर सुस्ता रहा है, वह उसे झिड़क दे और क्रोध में निकल जाने का हुक्म दे, घुटने टेककर विनम्र बनकर समर्पण मुद्रा में भजन करे तो क्या इसे हम भक्ति कह सकते हैं? नहीं, वह स्वअर्थ कामना की पूर्ति करने वाला महज एक विभक्त आदमी ही है। वह अनर्थ के बुरे नतीजे के अज्ञात भय से भीत ईश्वर से प्रीत का दिखावा करने वाला है। उसने केवल भक्त का आवरण ओढ़ रखा है।
कहने का अभिप्राय यह है कि सही रूप में भक्ति का अर्थ है जो सद्कर्म की राह पर चलते हुए सहयोग, त्याग और परमार्थ का कार्य करे, वहीं सच्ची भक्ति है। ईश्वर सभी सदगुणों से भरपूर है और उसके गुणों का अनुसरण कर जीवन जीने वाला ही उसका भक्त होता है।चूंंकि ईश्वर आदर्शों और सिद्धांतों के समुच्चय को कहते हैं। उसके गुुुणों से, शिक्षाओं से हम वे चीजें सीखते हैं जिनका व्यावहारिक स्वरूप जाकर हम समाज के बीच प्रस्तुत करते हैं।
अगर उन सिद्धांतों और आदर्शों के प्रति आपकी श्रद्धा, आस्था का विकास होता चला जाएगा, तो आपकी भक्ति भी बढ़ती चली जाएगी। अर्थात जिन कार्यों को करना अनर्थ और अपराध की श्रेणी में है, जिनका निषेध किया जाना चाहिए, उनका त्याग कर, उन कार्यों से आत्मीयता जोड़ कर ग्रहण कर लें, जो दूसरों के कल्याणार्थ हो, तो आपको भगवान् की भक्ति का सही रास्ता मिल जाएगा। हम भगवान के भक्त तभी हैं, जब भगवान के दिए रास्ते पर सही रूप में चलेंगे। यदि ऐसी भावना किसी भी मनुष्य के भीतर आ जाए, तो वह भी भक्त बन जाता है।
यही नहीं, अगर हम किसी भी धर्म के धार्मिक ग्रंथों का अनुशीलन कर भक्ति और भक्त का तात्पर्य जानने का प्रयत्न करें, तो यही पता चलेगा कि भक्तियोग न केवल मानसिक तथा भावनात्मक संपदा है, वरन वह त्याग, दया, परमार्थ तथा पुण्य का पुंज है। भक्ति तभी फलित है, जब दूसरों की भलाई, सेवा सहायता कर सकें। जैसे शंकर भगवान का रूप भोला है। यानी वे दयालु और कृपालु हैं, पीड़ितों के उद्धारक हैं। तो अगर शंकर भगवान् की आप सही रूप में भक्ति करते हैं, तो दीन हीन, अनाथ लोगों की, गरीब एवं पिछड़े लोगों की दशा-दिशा के सुधार के लिए भी कुछ करना होगा, सेवा सुश्रुषा करनी होगी, तभी आप मूल भाव युक्त भक्त कह जाने के हकदार हैं।
अगर हम भक्ति करते हैं तथा समाज की, पिछड़े लोगों की सेवा नहीं करते हैं, तो हमारा भजन सार्थक नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे आप सेवाभावी बनते चले जाएंगे, आपकी भक्ति भी बढ़ती चली जाएगी। तो हमें अपने दृष्टिकोण और विचार को सही दिशा में बदलकर सही रूप में भक्ति मार्ग पर चलना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन में कोई ग्लानि ,कोई दुख या कोई शंका शेष ना रहे। नेकी, सद्कर्म और ईमान के रास्ते के सहारे ईश्वर का भजन अवश्य हमारे जीवन को श्रेष्ठता प्रदान करते हैं।
जहां तक आध्यात्मिक प्रगति एवं भक्ति के स्वरूप का संबंध है, यह रूप ही भक्ति का पर्याय है, यह ठीक नहीं है। भक्त का मतलब है- सद्भाव, सद्कर्म ,परमार्थ से जुड़ना।
हम भगवान के भक्त तभी हैं, जब भगवान के दिए रास्ते पर सही रूप में चलेंगे। यदि ऐसी भावना किसी भी मनुष्य के भीतर आ जाए, तो वह भी भक्त बन जाता है।