मनोज मुरारका
हालांकि पिछले वर्ष भी मानसून देरी से आया था। पर, 2021 से तुलना करें तो चालू मौसम में लगभग 30 फीसद (54.87 लाख हेक्टेयर) क्षेत्र में बुआई कम हुई है। सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र और पंजाब हैं। खरीफ मौसम की प्रमुख फसल धान है और जून में होने वाली बारिश धान के लिए काफी महत्त्व रखती है, पर इस मौसम में धान उत्पादक राज्यों में बारिश न होने के कारण इसका रकबा कम हुआ है।
पहले मूसलाधार बारिश और फिर मानसून की बेरुखी से देश के कई राज्यों में कहीं भयावह बाढ़ और कहीं सूखे जैसे हालात बन गए हैं। इससे किसानों की परेशानियां भी बढ़ गई हैं। मानसूनी बारिश की कमी की वजह से खरीफ फसलों की बुआई में गिरावट दर्ज की गई है, क्योंकि इस बार बारिश मुख्य रूप से गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु और पूर्व के कुछ हिस्सों में ही हुई है।
चूंकि खरीफ की खेती मुख्य रूप से मानून की बारिश पर निर्भर होती है, बरसात के असंतुलित होने से फसलों की बुआई से लेकर अंतिम उत्पादन तक पर बुरा असर देखा जाता है। उत्तर-पूर्व के क्षेत्रों में कपास का रकबा एक साल पहले की तुलना में इस बार बहुत कम हो गया है, क्योंकि महाराष्ट्र में मानसूनी बारिश की कमी के कारण बुआई प्रभावित हुई है।
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, जून तक खरीफ मौसम में बोई गई फसलों का कुल रकबा 4.5 फीसद कम होकर 129.52 लाख हेक्टेयर है, जबकि पिछले साल की इसी अवधि में यह 135.64 लाख हेक्टेयर था। खरीफ की मुख्य फसल धान का रकबा 34.6 फीसद गिरकर 10.77 लाख हेक्टेयर पर है, जबकि सभी दालों का रकबा संयुक्त रूप से 3.8 फीसद बढ़कर 6.54 लाख हेक्टेयर और तिलहनों का रकबा 3.3 फीसद गिरकर 9.21 लाख हेक्टेयर पर आ गया है।
हालांकि बाजरे की अधिक बुआई के कारण मोटे अनाजों के तहत बुआई क्षेत्र 37.9 फीसद बढ़कर 18.45 लाख हेक्टेयर दर्ज किया गया है। गन्ने का रकबा साल भर पहले की तुलना में थोड़ा अधिक है और 50.76 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया है। वहीं दालों में तुअर 0.62 लाख हेक्टेयर (एक साल पहले के 1.8 लाख हेक्टेयर के मुकाबले), मूंग 3.83 लाख हेक्टेयर (पिछले साल 2.72 लाख हेक्टेयर) और उड़द 0.55 लाख हेक्टेयर (पिछले साल 0.79 लाख हेक्टेयर) में बोई गई है।
तिलहन में मूंगफली की बुआई 7.68 लाख हेक्टेयर (पिछले साल 6.78 लाख हेक्टेयर) और सोयाबीन 0.99 लाख हेक्टेयर (पिछले साल 1.55 लाख हेक्टेयर) में बोई गई है। मोटे अनाजों में मक्के का क्षेत्रफल 7.59 लाख हेक्टेयर (पिछले साल 9.78 लाख हेक्टेयर), बाजरे का 9.91 लाख हेक्टेयर (पिछले साल 2.26 लाख हेक्टेयर) और ज्वार का 0.31 लाख हेक्टेयर (पिछले साल 0.54 लाख हेक्टेयर) तक पहुंच गया है।
वहीं कपास का रकबा पिछले साल के मुकाबले 32.67 लाख हेक्टेयर से 14.2 फीसद घटकर 28.02 लाख हेक्टेयर हो गया है, क्योंकि महाराष्ट्र, पंजाब और कर्नाटक में बुआई कम हो पाई है। गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश में कपास का रकबा अधिक बताया गया है। जूट के रकबे में 12.2 फीसद की गिरावट के साथ 5.77 लाख हेक्टेयर की गिरावट दर्ज की गई है।
जून तक देश में 129.53 लाख हेक्टेयर में खरीफ फसलों की बुआई हो चुकी है, जो पिछले साल के मुकाबले लगभग 6.12 लाख हेक्टेयर कम है। हालांकि पिछले वर्ष भी मानसून देरी से आया था। 2021 से तुलना करें तो चालू मौसम में लगभग 30 फीसद (54.87 लाख हेक्टेयर) क्षेत्र में बुआई कम हुई है। सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र और पंजाब हैं।
खरीफ मौसम की प्रमुख फसल धान है और जून में होने वाली बारिश धान के लिए काफी महत्त्व रखती है, पर इस मौसम में धान उत्पादक राज्यों में बारिश न होने के कारण धान का रकबा कम हुआ है। चालू मौसम में धान की 10.767 लाख हेक्टेयर में बुआई हुई है, जबकि 2021 में 36.02 लाख हेक्टेयर में बुआई हो चुकी थी। यहां तक कि पिछले साल भी मानसून में देरी होने के बावजूद 16.456 लाख हेक्टेयर में धान की बुआई हो चुकी थी।
इधर, खरीफ की बुआई का रकबा मुख्य रूप से धान, दलहन (विशेषकर अरहर और उड़द) की बुआई में कमी के कारण घटा है। पिछले महीने के दूसरे पखवाड़े से मानसून में अच्छी प्रगति दिख रही है, जिसकी वजह से उम्मीद है कि आगे बारिश में तेजी के साथ ही बुआई में कमी की काफी हद तक भरपाई हो जाएगी।
यह भी कहा जा रहा है कि सही समय पर बुआई हो गई तो पैदावार में ज्यादा गिरावट नहीं दिखेगी। देश में करीब 10.1 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर खरीफ फसलें बोई जाती हैं। इसमें से करीब 3.534 करोड़ हेक्टेयर में बुआई पूरी हो चुकी है, इसलिए अगस्त के बाकी हफ्तों में कुछ सामान्य बारिश होने से यह रकबा बढ़ने का अनुमान है।
अरहर जैसी कुछ फसलों की पैदावार में गिरावट की आशंका का असर बाजार में पहले ही दिखने लगा है। तमाम कोशिशों के बाद भी इनकी कीमतों में कोई खास कमी नहीं हो पा रही है। इससे खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के प्रयासों को झटका लग सकता है, क्योंकि अरहर की दाल रोजमर्रा के भोजन में इस्तेमाल होती है।
अगस्त के अंतिम सप्ताह तक 106.88 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दलहनी फसलों की बुआई हो चुकी है, जो पिछली समान अवधि की बुआई 117.87 लाख हेक्टेयर से 9.32 फीसद कम है। अरहर का रकबा 7.88 फीसद घटकर 37.88 लाख हेक्टेयर, मूंग का रकबा 8.21 फीसद घटकर 28.89 लाख हेक्टेयर और उड़द का रकबा 13.79 फीसद घटकर 28 लाख हेक्टेयर पर आ गया है।
वहीं 179.56 लाख हेक्टेयर में तिलहनी फसलों की बुआई हो चुकी है, जो पिछली समान अवधि की 175.10 लाख हेक्टेयर में हुई बुआई से 2.55 फीसद ज्यादा है। खरीफ मौसम की प्रमुख तिलहन फसल सोयाबीन का रकबा 4 फीसद बढ़कर 122.39 लाख हेक्टेयर दर्ज किया गया। मगर मूंगफली का रकबा 0.28 फीसद घटकर 41.14 लाख हेक्टेयर रह गया। तिल का रकबा 1.11 फीसद गिरावट के साथ 11.04 लाख हेक्टेयर दर्ज किया गया।
चालू मौसम में अब तक 164.20 लाख हेक्टेयर में मोटे अनाज की बुआई हो चुकी है, जो पिछली समान अवधि में 162.43 लाख हेक्टेयर में हुई बुआई से एक फीसद अधिक है। बाजरे का रकबा करीब एक फीसद बढ़कर 66.59 लाख हेक्टेयर दर्ज किया गया। मक्के की बुआई भी करीब एक फीसद बढ़कर 76.14 लाख हेक्टेयर और ज्वार का रकबा 6.41 फीसद घटकर 12.83 लाख हेक्टेयर रहा।
हालांकि रागी का रकबा 34.56 फीसद बढ़कर 5.46 लाख हेक्टेयर दर्ज किया गया है। वहीं गन्ने का रकबा 2.55 फीसद बढ़कर 56.06 लाख हेक्टेयर, जबकि कपास का रकबा 1.43 फीसद गिरकर 119.21 लाख हेक्टेयर रहा। जूट की बुआई का कुल रकबा भी इस सत्र में थोड़ा कम यानी कि 6.55 लाख हेक्टेयर रहा, जबकि एक साल पहले की समान अवधि में यह 6.94 लाख हेक्टेयर था।
भारत चावल उत्पादन के क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक है। पिछले महीने सरकार ने बासमती के अपने सबसे बड़े चावल निर्यात श्रेणी को रोकने का आदेश दिया था। इस फैसले के बाद चावल निर्यात की खेप लगभग आधी हो जाएगी। अनुमान लगाया जा रहा है कि पिछले साल के मुकाबले इस बार धान की फसल ज्यादा कीमत पर बाजारों में बिकेगी।
कृषि मंत्रालय का कहना है कि इस बार किसानों को कम कीमत पर अपनी फसल बेचने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा। अगर ऐसा होता है तो कम पैदावार के बावजूद इस मानसून को देश के किसानों के लिए शुभ कहा जा सकता है। मगर कम बुआई और सूखे वाले इलाकों में पैदावार कम होने से जिन किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा, उसे कृषि उत्पादन की दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता।
फिर इस वजह से खाद्य महंगाई बढ़ने की आशंका भी अभी से गहराने लगी है। जलवायु परिवर्तन का यह असर आने वाले वर्षों में भी भी बना रहने वाला है। यह खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से भी चेतावनी है।