घर की रौनक बेटियां अब घर के बाहर भी मजबूती से दस्तक दे रही हैं, लेकिन भय और असमानता का घेरा आज भी कायम है। हर साल लोक सेवा परीक्षाओं से लेकर खेल के मैदान तक, बहुत-सी बेटियां एक नई लकीर खींच रही हैं। बावजूद इसके, कहीं कोई मासूम बच्ची राख के नीचे दबी मिलती है, तो कहीं कोई छेड़खानी से परेशान होकर अपनी जान दे देती है। दहेज और घरेलू हिंसा जैसे दानव आज भी उनके जीवन के दुश्मन बने हुए हैं।
बीते दिनों जलंधर में तीन सगी बहनों की लाशें घर के बाहर एक लोहे के बक्से में बंद मिली थीं। पुलिस पूछताछ में सामने आया सच सामाजिक-पारिवारिक ताने-बाने के बिखरते हालात को तो सामने रखता ही है, गरीबी के दंश से उपजी व्यथित करने वाली स्थितियों से भी रूबरू करवाता है। इस घटना की जांच में खुलासा हुआ कि निर्धनता के कारण बच्चियों को पाल न पा रहे मां-बाप ने ही जहरीला पदार्थ खिलाकर उनकी जान ले ली। दंपति के पांच बच्चे हैं। दोनों का कहना है कि वे सिर्फ एक बेटा और बेटी को पाल सकते थे। गरीबी से तंग आकर उन्होंने तीनों बच्चियों को मारा।
बच्चों और अभिभावकों के भावनात्मक संबंधों में बर्बरता का यह रूप भयभीत करने वाला है। हालांकि यह पहला मामला नहीं है। ऐसी भयभीत करने वाली घटनाएं देश के हर हिस्से में हो रही हैं। गरीबी के बोझ तले दबे परिवारों में बेटियों की जान ले लेने के कई मामले सामने आ चुके हैं। देखा जाए तो जिस समाज में आज भी अनगिनत चीजें बेटियों की दुश्मन बनी हुई हैं, मासूम मन की खिलौनों और चाकलेट की मांग जान लेने का आधार तो नहीं हो सकती। गहराई से समझा जाए तो परिस्थितियों की जटिलता कई बार लोगों की मन:स्थिति को ऐसे वीभत्स मोड़ पर ले लेती है।
दरअसल, बेटियां आज भी कमोबेश हर परिवार में माता-पिता के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी मानी जाती हैं। ऐसे में पारिवार गरीबी का दंश झेल रहा हो तो स्थितियां और विकट हो जाती हैं। कमजोर आर्थिक स्थिति में घर की लाडलियों की मान-मनुहार तो दूर की बात, आम जरूरतें भी बोझ बन जाती हैं। उनके भविष्य से जुड़ी चिंताएं अभिभावकों को हरदम घेरे रहती हैं।
उम्र के एक पड़ाव पर शिक्षा और सहज आवश्यकताएं डराती हैं, तो भविष्य के लिए दहेज और सुरक्षा से जुड़े पहलू भयभीत करते हैं। इसके चलते कमजोर आर्थिक स्थितियों से जूझते लोगों की व्यथित-विचलित करती सोच जान लेने या देने के कगार पर ले जाती हैं। जलंधर में हुई घटना में भी अभिभावकों ने कहा कि हम बच्चियों को मारना नहीं चाहते थे, मगर गरीबी ने उन्हें मजबूर कर दिया था।
जीवन की इन्हीं उलझनों की बदौलत ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जब गरीबी के बोझ तले दबे पिता की दयनीय दशा देखकर खुद बेटी ने ही अपनी जान दे दी। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के हरदोई से एक मामला सामने आया था। इस घटना में एक बेटी ने दहेज के डर और पिता को कर्ज से बचाने के लिए मौत को गले लगा लिया।
आत्महत्या से पहले लिखे पत्र में उसने लिखा था कि ‘मेरी शादी के दहेज के लिए पापा कर्जदार न हो जाएं, इसलिए आत्महत्या कर रही हूं। मेरे पापा बहुत गरीब हैं और शादी करने के लिए कर्ज ले रहे हैं। अभी उसकी शादी होगी और उसके के बाद छोटी बहन की शादी के लिए भी पिता कर्ज लेंगे। इससे पापा कर्ज में डूब जाएंगे।’
अभाव की स्थिति इंसान का स्वभाव भी बदल देती है। हमारे सामाजिक-पारिवारिक परिवेश में यह स्पष्ट देखने को मिलता है कि गरीबी और संसाधनों की कमी बेटों से ज्यादा बेटियों की परवरिश में आड़े आती है। मानसिकता ही ऐसी है कि अभिभावक उनसे अपने भविष्य को जोड़कर नहीं देख पाते। बेटियों के पराया हो जाने की सोच के चलते सीमित संसाधनों में भी बेटों की देखभाल को प्राथमिकता दी जाती है।
आमतौर पर ऐसे परिवारों में बेटियां बेटों के मुकाबले उचित पोषण में भी पिछड़ जाती हैं। आज बेटियां हर बाधा को पार कर अपने हुनर को साबित कर रही हैं, पर उनके हिस्से आने वाली पीड़ा कम नहीं हुई है। यह सच है कि घर की रौनक बेटियां अब घर के बाहर भी मजबूती से दस्तक दे रही हैं, लेकिन भय और असमानता का घेरा आज भी कायम है।
हर साल लोक सेवा परीक्षाओं से लेकर खेल के मैदान तक, बहुत-सी बेटियां एक नई लकीर खींच रही हैं। बावजूद इसके, कहीं कोई मासूम बच्ची राख के नीचे दबी मिलती है, तो कहीं कोई छेड़खानी से परेशान होकर अपनी जान दे देती है। दहेज और घरेलू हिंसा जैसे दानव आज भी उनके जीवन के दुश्मन बने हुए हैं।
वर्ष 2022 में राज्यसभा में पेश आंकड़ों के अनुसार, देश में 2017 से 2021 के बीच प्रतिदिन करीब बीस दहेज हत्याएं दर्ज की गर्इं। वहीं पिछले साल आई ‘लोकल सर्कल्स एजंसी’ का सर्वेक्षण बताता है कि हमारे देश में उनतीस फीसद महिलाएं जीवन में एक से ज्यादा बार छेड़छाड़ का दंश झेलती हैं। ऐसे में घर हो या बाहर, उम्र के हर मोड़ पर बेटियों की असुरक्षा भी अभिभावकों को भय और मानसिक विचलन का शिकार बनाती है।
असल में लैंगिक असमानता और आर्थिक पिछड़ापन हर मोर्चे पर गहराई से जुड़े हैं। इतना ही नहीं, पुरातनपंथी सोच का भी आर्थिक सबलता के गहरा नाता है। गरीब परिवारों में अशिक्षा और असुरक्षा की भावना के चलते रूढ़िवादी सोच भी ज्यादा देखने की मिलती है। यह सोच बेटियों की स्वीकार्यता में बड़ी बाधा बनी हुई है।
लैंगिक असमानता के आंकड़ों को लेकर चर्चा में रहने वाले हरियाणा के जींद में पिछले दिनों दिल दहला देने वाली घटना सामने आई। वहां एक मां ने अपनी नौ महीने की जुड़वां बेटियों की तकिये से गला घोंट कर जान ले ली। पंजाब के रोपड़ जिले में भी एक पिता ने बेटा न होने की वजह से अपनी एक साल की बेटी की हत्या कर दी।
दूसरी बार जुड़वां लड़कियां होने पर उसने न केवल पत्नी के साथ घरेलू हिंसा की, बल्कि एक बच्ची किसी को गोद भी दे दी। वहीं दूसरी बच्ची के साथ हुई बर्बर मारपीट के चलते उसकी जान चली गई। उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में एक पिता ने अपनी चार साल की बेटी को तालाब में फेंक कर मार डाला। मासूम बच्ची का एक पैर से दिव्यांग होना उसकी जान लेने का कारण बना।
महिला सशक्तीकरण और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ मुहिम के बीच हर ओर से आते ऐसे समाचार बेटियों की स्वीकार्यता को लेकर ही सवाल खड़े करते हैं। विडंबना है कि जो बेटियां समाज में बदलाव लाने की वाहक बन रही हैं, देश का नाम रौशन कर रही हैं, कई परिवारों में उनका ही अस्तित्व अपनों को बोझ लगने लगता है। आर्थिक विपन्नता की स्थितियां इस भेदभाव की सोच को और बढ़ावा देती हैं। परिवार की प्राथमिकताओं की सूची में बेटियों को बहुत पीछे धकेल देती हैं।
गरीबी को अभिशाप कहा और एक सामाजिक चुनौती माना जाता है। इस अभिशाप का व्यावहारिक रूप ऐसी घटनाओं में दिखता है। यह चुनौती विपन्नता और संपन्नता की गहरी खाई के रूप में स्पष्ट नजर आती है। जिसने भारतीय समाज में आज भी विरोधाभासी स्थितियां बना रखी हैं। यही वजह है कि हर क्षेत्र में आगे बढ़ती बेटियों के समाचार भी सुर्खियां बन रहे हैं और अपने ही परिवार को बोझ लगती बेटियों की जान लेने की घटनाएं हो रही हैं।
इन असंगत हालात ने बेटियों के जीवन के रंग न केवल फीके कर दिए, बल्कि जीवन ही जोखिम में डाल दिया है। गरीबी का यही दुश्चक्र आज भी बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं का कारण बना हुआ है। बुनियादी आवश्यकताओं के लिए संघर्ष करने की स्थितियां हर इंसान के लिए पीड़ादायी ही होती हैं। न्यूनतम जीवन स्तर निर्वाह करने से वंचित परिवारों की बेटियों के लिए विपन्नता और तकलीफदेह बन जाती है।