भारतीय इतिहास के मध्यकाल में पैदा हुए दलित गुरु संत रविदास के विचारों का प्रभाव क्षेत्र काफी व्यापक रहा है। वह खुद को खुले तौर पर जन्मजात ‘चमार’ बताते थे। वह इतिहास के ऐसे पहले दलित थे जिन्होंने अपने समाज विशेष के भीतर ऊर्जा का सूत्रपात किया था। सिखों के धार्मिक ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संत रविदास के 41 सूक्तियों को शामिल किया गया है। गौर करने वाली बात यह है कि यह तब अमल में लाया गया जब दलितों की परछाई से भी ऊंचे वर्ग के लोग परहेज करते थे। उन्हें मुख्य मार्गों पर यात्रा तक करने की अनुमति नहीं थी और न ही वे साफ-सुथरे कपड़े पहनते थे। लेकिन, इसी दौरान गुरु रविदास न सिर्फ महंगे और शानदार कपड़े पहनते थे बल्कि उनके पास बिजनस भी था और उनकी शिष्य चित्तौड़गढ़ की रानी भी थीं।

14 वीं शताब्दी के अंत में (लगभग 1399) जन्मे रविदास ने कई जीत हासिल की। काशी (वाराणसी) में रहते हुए न सिर्फ उन्होंने अपना व्यापार किया बल्कि अपने दर्शन से भी समकालीन संतों को प्रभावित भी किया। एक पंक्ति के साथ- “मन चंगा तो कठौती में गंगा” (कठौती से मतलब लकड़ी का एक पात्र से है जिसमें पहले पानी भरकर रखा जाता था।) इस उक्ती में रविदास कहते हैं कि अगर मन साफ हो तो गंगा नहाने की जरूरत ही नहीं है। उनके इस महान दर्शन ने सनातन धर्म की मूल अवधारणा को ही अलग करके रख दिया। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ के माध्यम से रविदास ने 14 वीं और 15 वीं शताब्दी में काशी की सामाजिक परिस्थितियों को पेश किया। तब दलितों को गंगा में पवित्र डुबकी लगाने की अनुमति नहीं थी। इस एक पंक्ति के के जरिए उन्होंने बतौर अछूत विवेक की शुद्धता के बारे में हिंदुओं से बात की।

युवावस्था में रविदास ने कच्चे चमड़े का व्यवसाय करने वाले अपने माता-पिता को छोड़ दिया और काशी चले गए। हालांकि, यहां उन्होंने एक पेशे के रूप में व्यापार किया और साथी दलितों के द्वारा बनाए गए जूतों का बिजनस शुरू किया। ‘द प्रिंट’ में दलित उद्यमी एवं चिंतक चंद्र भान प्रसाद लिखते हैं, “रविदास के अनुयायी उनके जीवन में पैसे के द्वारा निभाई गई अहमियत का ठीक से मूल्यांकन नहीं कर पाए।” चंद्र भान प्रसाद लिखते हैं, “गुरु ने अपने शरीर पर अपनी भव्य कपड़े पहने, संपत्ति बनाई और एक परोपकारी (दानी) व्यक्ति के रूप में भी काम किया। उन्होंने साधुओं को मुफ्त जूते दिए और साथ ही पैसे भी उधार दिए। वह शायद काशी में एकमात्र संत थे, जिन्होंने राजाओं से न तो कोई मांग की और न ही उन्हें स्वीकार किया; यही कारण है कि रविदास ने अपने पूरे जीवन में अपने व्यवसाय को जारी रखा। उन्होंने वित्तीय स्वतंत्रता का आनंद लिया और भिक्षा पर नहीं रहे।”

कहा जाता है कि उनके ईश्वरीय गुणों की वजह से उनके शिष्य राजघराने के भी लोग थे। जब चित्तौड़गढ़ की रानी झालन बाई काशी की तीर्थयात्रा पर आईं तब उन्होंने गुरु रविदास के बारे में सुना और उनसे मिलने की इच्छा जाहिर कीं। इस संबंध में चंद्र भान प्रसाद लिखते हैं, “काशी आकर झालनबाई ने गुरु से मिलने की इच्छा जाहिर की। लेकिन उनके साथ यात्रा कर रहे ब्राह्मण सहयोगी ने जब बताया कि वह एक चमार हैं। तब उन्होंने जवाब दिया, ‘उससे क्या? गुरु आखिर गुरु होता है।” कहा जाता है कि जब रानी उनके पास पहुंची तब वह शांत-चित्त अवस्था में थे और उनके आगमन पर उनका चित्त थोड़ा भी अस्त-व्यस्त नहीं हुआ। यहीं पर एक क्षत्रीय घराने की रानी उनकी शिष्य बनीं। दलित चिंतक चंद्रभान द प्रिंट में लिखते हैं, “यह सिवाय विद्रोह के कुछ नहीं था। एक ठाकुर रानी अछूत गुरु का शिष्य बनती हैं।” कहा जाता है कि इस दौरान संत रविदास ने चित्तौड़गढ़ की रानी को एक वाद्ययंत्र भी भेंट किया। लेकिन, जब झालन बाई ने उन्हें सोना उपहार के रूप में देना चाहा तो उन्होंने मना कर दिया।