सुरेश सेठ
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी एनएसओ के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक, पिछले दस वर्षों में हमारे देश की खेतीबाड़ी से देश की सकल घरेलू आय को मिलने वाला हिस्सा 48 फीसद से घटकर 37 फीसद रह गया है। आज भी देश की दो-तिहाई जनता गांवों और कस्बों में रहती है और अपने आप को किसी भी प्रकार के आधुनिकीकरण के योग्य नहीं पाती।
देश की आर्थिक प्रगति का प्रशस्तिगायन केवल स्वदेशी मंचों से नहीं, अंतरराष्ट्रीय मंचों से भी हो रहा है। जो देश विश्व में आर्थिक तरक्की के दसवें पायदान पर था, वह देखते ही देखते पांचवें पायदान पर आ गया और अब घोषणा से दो वर्ष पहले तीसरी आर्थिक शक्ति बनने की संभावना को पोषित कर रहा है, क्योंकि महंगाई के इस जमाने में जब दुनिया के बाहुबली देश आर्थिक तरक्की की घिसटती हुई दर का सामना कर रहे हैं, हमारे देश ने आसानी से आर्थिक मंदी के संकट से बच कर सबसे ऊंची आर्थिक दर का प्रदर्शन कर दिया।
विदेशी निवेश भगोड़ा हुआ तो हमारे घरेलू निवेश में उसकी कमी को पूरा करके शेयर बाजारों की चमक-दमक को कम नहीं होने दिया। अब तो ‘चीन प्लस’ निवेश के वातावरण का जमाना है, जिसमें दुनिया के निवेशकों के लिए एकमात्र निवेश स्थल चीन नहीं रह गया, बल्कि भारत भी अपने स्थायी नेतृत्व, अपनी सशक्त श्रमशीलता और विस्तृत मांग के साथ उसका स्थान लेने के लिए अग्रसर हो रहा है।
मगर ऐसे वातावरण में हम जब देश की पहली पहचान कृषि क्षेत्र या देश के श्रमिक की ओर देखते हैं, जो कि हमारे देश की आबादी का आधा भाग है, तो लगता है कि उनके कल्याण और उनके बेहतर जीवनस्तर की घोषणाएं पूरी क्यों नहीं हो रहीं? क्यों किसान आज अपनी आय को दोगुना होता हुआ पाने के स्थान पर एक ऐसी मजबूरी से ग्रस्त हैं कि उनकी आय खेतीबाड़ी की लागत से कम होकर खेती को घाटे का सौदा बना रही है।
इसीलिए आज देश में खेतीबाड़ी जीने का ढंग नहीं, बल्कि एक घाटा उठाता हुआ धंधा बन रहा है। इस देश में जहां महामारी का विकट संकट गुजर जाने के बाद दुनिया में सबसे अधिक संख्या में अरबपतियों ने खरबपतियों का और करोड़पतियों ने अरबपतियों के रूप में अवतरण किया है, वहां देश में प्रजातांत्रिक समाजवाद का सपना क्यों व्यर्थ होता जा रहा है, जबकि गरीब, निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग वंचित-प्रवंचित नजर आता है और देश में अमीर-गरीब का भेद असमानता की सब रेखाएं पार कर रहा है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी एनएसओ के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक, पिछले दस वर्षों में हमारे देश की खेतीबाड़ी से देश की सकल घरेलू आय को मिलने वाला हिस्सा 48 फीसद से घटकर 37 फीसद रह गया है। आज भी देश की दो-तिहाई जनता गांवों और कस्बों में रहती है और अपने आप को किसी भी प्रकार के आधुनिकीकरण के योग्य नहीं पाती। सरकार तो कहती है कि हम किसी को भूख से मरने नहीं देते।
दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं, जो अपनी अस्सी फीसद जनता को मुफ्त अनाज दे रहा है, लेकिन यह दावा क्यों सामने नहीं आता कि युवा पीढ़ी जैसे ही किसी भी तरह की योग्यता हासिल करके जीवन समर में आती है, तो उसे समुचित काम देने की गारंटी नहीं मिलती। अनुदान की राहत का भरोसा मिलता है और उससे परेशान होकर किसी बेहतर जीवन को गले लगाने के लिए इस पीढ़ी के अधिकांश लोग विदेश पलायन को प्राथमिकता दे रहे हैं।
इधर किसानों की आय बढ़ाने के लिए हमने स्वामीनाथन समिति की रपट को स्वीकार तो नहीं किया, लेकिन सरकार ने भरोसा दिया कि हम जो एमएसपी दे रहे हैं, उसमें किसान की लागत से पचास फीसद अधिक तक का फायदा है। मगर यह लागत स्थिर रहती तभी न! लागत तो स्थिर नहीं रही। महंगाई ने इसके अंजर-पंजर ढीले कर दिए।
आयात आधारित अर्थव्यवस्था में डालर के मुकाबले हमारी मुद्रा के अवमूल्यन ने आयातित कच्चे माल की कीमतें बहुत ऊंची कर दी। इस तरह लागत, पिछले दस वर्षों में केवल गन्ने की खेती का उदाहरण दें तो, 116 फीसद बढ़ी और उसकी कीमत बढ़ी केवल 37.2 फीसद। यही हाल बाकी फसलों का है। गेहूं, कपास, दलहन और तिलहन की कथित क्रांति का भी है। किसान तो दोगुनी आय की जगह पहले से भी गरीब हो गया।
दूसरी ओर, शहर या कस्बों में जाकर जो मजदूर अपना पेट पालना चाहता था, उसके तो पांव उखाड़ दिए कोविड महामारी ने। भारत विभाजन के पलायन जैसी त्रासदी एक बार फिर कोविड महामारी में घटती नजर आई। भारी तादाद में महानगरों में काम ढूंढ़ने आई ग्रामीण आबादी वापस अपने गांवों की ओर चली गई, क्योंकि उसे वहां कम से कम रोटी और सिर छिपाने के जुगाड़ का भरोसा तो था।
मगर वहां पहुंचे तो किसान खेती छोड़ रहा था, क्योंकि उसे खेती से बढ़ती आय का भरोसा नहीं। उसकी फसलों की घोषित कीमत नहीं मिलती। अपने अर्थाभाव के कारण वह आज भी खड़ी फसलों को साहूकारों, महाजनों और धनी व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर है। कभी फसल अगर अच्छी हो जाती है तो महंगाई पर नियंत्रण करने के मकसद से सरकार उसके निर्यात पर प्रतिबंध लगा देती है। सीधा या अधिक शुल्क के रूप में।
गेहूं के साथ यह घटा। बासमती चावल के बाद अब प्याज के साथ यही होने लगा है, जिसने नाशिक और महाराष्ट्र के प्याज उगाने वाले किसानों को बहुत परेशान किया है। सीधा-सा यह हल था कि गांवों में बसती जनसंख्या को लघु और कुटीर उद्योगों की सहायता से, सहकारी आंदोलन की सहायता से व्यवसाय के वैभिन्य का उपहार दे दिया जाता।
फसलों के कच्चे रूप को अंतिम रूप देने के छोटे-छोटे ‘स्टार्टअप’ उद्योग भी तो वहां लगाए जा सकते थे। गन्ने से चीनी, कपास से कपड़ा और गेहूं से आटा बनाने का उद्योग। मगर यहां तो अपनी फसल ही संभलती नहीं। इतने वर्ष हो गए, पकी फसलों का संग्रह करने के लिए उचित गोदाम नीति नहीं बन सकी और फसलें खराब मौसम में मंडियों में जाते ही खराब हो जाती हैं।
उनकी गुणवत्ता गिर जाती है और घोषित कीमतों से कम दाम पर किसान खरीद अधिकारियों की चिरौरी करता नजर आता है कि इन फसलों को खरीद लिया जाए। ऐसा मजबूर किसान क्या अनाज का भंडारी, भारत की शक्ति कहा जा सकता है? जी नहीं। इसीलिए खेती से आय का फीसद घटता चला गया।
उधर महंगाई के इस जमाने में मंदी की आशंका ने बेकारी का फीसद बढ़ा दिया। महंगाई ने कई रूप बदले। अजब रूप यह था कि थोक मूल्य सूचकांक तो अपनी कमी दिखा रहा था, लेकिन परचून मूल्य सूचकांक में कमी नहीं, बढ़त दिखाई दे रही थी। जाहिर है यह कालाबाजारियों और बनावटी मंदी पैदा करने वालों की कृपा थी, लेकिन मरा तो वह साधारण आदमी, जिसे पहले निर्धन कहा जाता था, आजकल निम्न मध्यवर्गीय कहा जाता है।
ऐसी हालत में कैसे हम कह दें कि जो आर्थिक तरक्की देश को मिली है, उसने हमारा सिर दुनिया में ऊंचा कर दिया। शिक्षा की नई नीति बनी, जिसमें अब इंटरनेट की जानकारी की क्षमता वाले लोग ही युगानुरूप हैं, और एक बड़ी आबादी असंबद्ध हो गई।
बेशक इसके हल के लिए इस स्वाधीनता दिवस पर विश्वकर्मा योजना घोषित की गई है, जिसमें रोहिणी आयोग की रपट के अनुसार उन जातियों और बिरादरियों को लाभ मिलेगा जैसे बढ़ई, लुहार और दूसरी कामगार जातियां, जो मूल निर्माण करती हैं। इनके प्रशिक्षण की ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया। आज उनके प्रशिक्षण की बात होने लगी है, लेकिन यह पहल कितनी सार्थक होगी, देखने की बात है।
यह विश्वकर्मा योजना उनके लिए कितनी सार्थक होगी, इसी बात पर देश के उस मूलभूत आर्थिक ढांचे का निर्माण होगा, जिसके बल पर हम दुनिया की तीसरी नहीं, बल्कि अव्वल आर्थिक शक्ति बन सकेंगे।