यह अजब विरोधाभास है कि ज्यों-ज्यों किसी देश में आर्थिक प्रगति होती है, त्यों-त्यों वहां अमीर और अमीर होते चले जाते हैं तथा गरीब और गरीब। यह विरोधाभास सशक्त पश्चिमी देशों में देखने को मिलता है। तीसरी दुनिया के देशों में भी देखने को मिलता है। जहां तक भारत का संबंध है, यह विरोधाभास इस हद तक पहुंच गया है कि हम कहते हैं कि भारत एक अमीर देश है, जिसमें गरीब बसते हैं। साहित्य में नोबेल पुरस्कार से ऊपर कोई और पुरस्कार या सम्मान नहीं माना जाता। अलग-अलग पांच विधाओं में नोबेल पुरस्कार दिए जाते हैं, जिनमें से एक विधा है साहित्य।

साहित्य जीवन के कितना नजदीक है, यह बात इस बार नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले तीन अर्थशास्त्रियों- डारोन एसेमोग्लू, साइमन जानसन और जेम्स ए रोबिन्सन के शोध प्रबंधों से सामने आती है। इन शोध प्रबंधों में आर्थिक तरक्की के साथ-साथ गरीबी और अमीरी के भेद के मिटते जाने के कारणों की विस्तृत चर्चा की गई है। स्पष्ट है कि इस चर्चा का समाधान भी यही शोध प्रबंध दे रहे हैं कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था और उसमें काम करती हुई विभिन्न संस्थाओं के सुधार के साथ ही गरीब और अमीर का भेद मिट जाएगा।

जहां तक दुनिया में शासन का संबंध है, अमीर देशों ने जिन देशों को सैन्य बल से और अब अपने आर्थिक बल से अपना उपनिवेश बना रखा है, वहां की तरक्की का अध्ययन करते हुए यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था को अगर एक स्वस्थ दृष्टिकोण से चलाया जाए, तो गरीबी और अमीरी का भेद अपने आप खत्म हो जाएगा। चाहे इन उपनिवेशों ने शुरू में थोड़ी बहुत तरक्की दिखाई, लेकिन बाद में सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक व्यवहार पर सत्तारूढ़ दल की वर्चस्ववादी नीतियों के कारण ये देश पिछड़ेपन और गरीबी के रसातल में डूब गए। नोबेल से सम्मानित अर्थशास्त्रियों की यह त्रयी बताती है कि इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका और मैक्सिको का लंबा सीमांत देखा जा सकता है।

शासन तय करता है लोगों की तरक्की का रास्ता

एक गांव ले लीजिए- नोगल्स, जो मैक्सिको में है और पिछड़ेपन के रसातल में डूबा है। सीमा पार होते ही अमेरिका है, जो तरक्की और खुशहाली की मंजिलें तय कर रहा है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि भूगोल या संस्कृति किसी इलाके की आर्थिक संपन्नता या विपन्नता तय नहीं करती, बल्कि वे संस्थान तय करते हैं, जिनके अधीन उस देश के नागरिक जी रहे हैं। अमेरिका में स्थिति बेहतर मिली, क्योंकि वहां अमेरिकियों को अपनी शिक्षा और पेशा चुनने की पूरी स्वतंत्रता थी और अमेरिका का प्रजातांत्रिक ढांचा उन्हें राजनीतिक अधिकार और स्वतंत्रता दे रहा था।

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नोबेल पुरस्कार विजेता इसी प्रश्न से जूझते और बताते हैं कि अपना देश चूंकि सैकड़ों वर्ष तक गुलामी की चक्की में पिसता रहा, और यहां आई विदेशी सत्ता यानी इंग्लैंड ने इस प्रकार की नीतियों का पालन किया, जिसमें हमारी संपदा का शोषण अधिक था, लेकिन देश के प्राकृतिक साधनों, श्रमशक्ति और निवेश उद्यम को सही दिशा देकर विकास का माहौल नहीं बनाया गया था। यही कारण रहा कि जब भारत आजाद हुआ, तो उस समय हम पिछड़ेपन के कगार पर थे।

भारत सरकार ने वर्ष 1951 में इसी पिछड़ेपन के अभिशाप को दूर करने के लिए योजनाबद्ध आर्थिक विकास का संकल्प लिया। इस संकल्प में निहित था कि शांति और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए अपनी मेहनत के साथ बुनियादी ढांचे को इस प्रकार विकसित किया जाएगा कि देश में एक समावेशी माहौल बनाया जा सके। अमीर और गरीब दो अलग-अलग खाइयों में बंटते नजर न आएं, बल्कि विकास पथ के सहयात्री बन कर देश को ऊंचाइयों पर ले जा सकें। मगर ऐसा नहीं हुआ।

आर्थिक महाशक्ति बनने और यथार्थ के बीच है दिवास्वप्न

देश ने पचहत्तर वर्ष की आजादी मना ली। अब शतकीय महोत्सव मनाने की ओर बढ़ रहा है। हमारा संकल्प है कि विकसित भारत में खुशहाली के सूचकांकों की नई ऊंचाइयों को छुआ जाएगा, लेकिन यहां भी विरोधाभास स्पष्ट नजर आ रहा है। एक ओर सरकार कहती है कि देश ने अभूतपूर्व तरक्की की है और वह दुनिया में पांचवीं आर्थिक शक्ति बन गया है। यही नहीं, दो-तीन वर्ष में भारत का संकल्प तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने का है और कर्तव्य पथ पर चलते हुए, जब यह देश आजादी का शतकीय महोत्सव मनाएगा, तो यह पूरी तरह से विकसित होगा। मगर जब देश के यथार्थ की ओर देखते हैं, तो यह दावा दिवास्वप्न लगता है।

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इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में तरक्की हुई है। चुनिंदा धनपतियों की संख्या इस प्रकार बढ़ी है कि उनका देश की प्राकृतिक और भौतिक संपदा के 90 फीसद हिस्से पर कब्जा हो गया है। वहीं देश की अधिकांश आबादी, जो वंचितों और गरीबों की है, वह केवल दस फीसद संपदा पर जीने के लिए अभिशप्त है। इसके कारण संविधान में रखा गया प्रजातांत्रिक समाजवाद का लक्ष्य कहीं भी पूरा होता नजर नहीं आता। नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अर्थशाेिस्त्रयों के शोध को पढ़ें, तो कारण साफ नजर आता है कि अपना देश प्रजातांत्रिक अवश्य है, लेकिन यहां व्यवस्था कितनी जर्जर और नकारात्मक हो गई है कि आम लोग अपने जीवन मूल्य को बदलते नजर आ रहे हैं। हालत यह हो गई है कि एशिया में सर्वाधिक खरबपति अगर भारत में हैं, तो भूख से मरते लोगों की संख्या भी अभी आए वैश्विक भुखमरी सूचकांक के अनुसार मध्यवर्ग के देशों से भी कहीं पीछे है।

नए शिखर को छू रहा भ्रष्टाचार

आपाधापी के इस माहौल में आदर्शों की बात करना जैसे गुनाह हो गया है। संस्थाओं की मुंहजोरी के कारण भ्रष्टाचार नए शिखर को छू रहा है और महंगाई दस बार रेपो रेट न बदलने के बावजूद नियंत्रण में नहीं आ रही। देश के करोड़ों नौजवान बेकार हैं और उन्हें मनरेगा की आंशिक रोजगारी से बहलाया नहीं जा सकता। ऐसी हालत में सवाल यह है कि क्या संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना पहला कदम नहीं होना चाहिए। तीनों नोबेल विजेता भी यही कहते हैं कि औपनिवेशिक अधिनायकवाद की जगह अगर प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना के साथ देश चलेगा, तो लोगों को अपना काम करने या उसका प्रशिक्षण लेने की अपेक्षाकृत आजादी रहेगी। यह आजादी ही हमारे दीर्घकालिक विकास की नींव रखेगी।

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निस्संदेह सरकार देश के लिए बहुत बड़े-बड़े सपने बना कर जनता जनार्दन को भेंट करती है, लेकिन इन सपनों को पूरा करने के लिए स्वस्थ और दोष रहित प्रशासन, शैक्षणिक ढांचे और सामाजिक कदाचार में बेहतरी की निरंतर उम्मीद चाहिए। देश में ऐसा नहीं हो रहा। प्रजातांत्रिक ढांचे के बावजूद हम सड़क पर चलते औसत आदमी की बेहतरी के लिहाज से पिछड़ रहे हैं। इसलिए एक स्वस्थ और दोषरहित प्रजातंत्र की कल्पना इस वर्ष के नोबेल विजेताओं ने की है और इसी का सपना भारत के लोग भी दिन-रात देखते हैं। अब अकादमिक शोध का समर्थन मिल जाने से उन्हें बल मिला है।