‘पूर्णबंदी कई नए रास्ते खोल रहा है तो सोच और ढांचे पर नए सवाल भी उठा रहा है। शराब बिक्री पर जो त्रासद हालात बने उससे पता चलता है कि हमें कितने मोर्चे पर सुधार की दरकार है। भारतीय राजस्व किस तरह से आता है और बीमारियों के साथ चला जाता है। ये शराब क्या भारत में आवश्यक है? क्या जैसे 40 दिन के लिए बंद रही, हमेशा के लिए बंद नहीं हो सकती? या किसी और रूप में इसे लाया जाए। शराब से जो राजस्व आता है उससे कहीं ज्यादा अस्पताल में खर्च होता है।

बुद्धिजीवियों को इस पर विचार करना चाहिए।’ वाणी प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी ने कहा कि कोविड-19 से हुई पूर्णबंदी ने हमें कई चिंतन के विषय दिए हैं जिस पर गंभीरता से सोचना होगा।

कोरोना का यह समय प्रकाशक के रूप में कितनी चुनौती भरा रहा और उससे कैसे पार पाएं, इस सवाल पर अरुण माहेश्वरी ने कहा कि हमें नए रास्ते मिले। हम अपने पाठकों तक कैसे जुड़ सकते हैं, इंटरनेट जैसी सुविधा का बहुआयामी उपयोग कैसे कर सकते हैं। अभी तक हमें इतना समय नहीं मिल रहा था कि बहुत सारी चीजों के लिए सुविचारित हो सकें। किताब छप रही थी तो छप ही रही थी, बिक रही थी तो बिक ही रही थी, माकेर्टिंग हो रही थी तो मार्केटिंग हो ही रही थी। इंटरनेट एक नई मार्केटिंग, प्रचार का माध्यम और बड़ी संख्या में पाठक तक पहुंचने का रास्ता तो था ही। ई-बुक, गूगल बुक्स, किंडल, आॅडियो बुक्स और तमाम तरह की चीजों को हमने आजमाया।

सबसे बड़ी बात कि आॅनलाइन माध्यम से बच्चों से संवाद का भी रास्ता खोला। स्कूलों के साथ जुड़ कर डिजिटल रूप में बच्चों तक पहुंचे। प्रकाशक की बहुआयामिकता ज्यादा मजबूती के साथ सामने आई। आॅनलाइन जितने काम हो सकते थे उसका भी एक आयाम खुल गया। उत्पादन और वितरण के काम इसके साथ ज्यादा बेहतर हो सकेंगे। अच्छे-बुरे अनुभवों के बीच कुल मिला कर यह रहा कि अच्छा समय मिला सबको सोचने का, करने का।

व्यावसायिक नफे-नुकसान के सवाल पर अरुण माहेश्वरी कहते हैं कि ऐसा खास नुकसान नहीं हुआ। हालांकि फरवरी-मार्च प्रकाशन का व्यस्तम समय होता है। लेकिन इस बार ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ कि उससे बहुत नुकसान की बात आई हो। लॉकडाउन का समय बढ़ गया है तो बजट भी बढ़ गया है मतलब आगे आने वाले समय में खर्च होंगे। तो हम उसका और अच्छा उपयोग कर सकेंगे। अपने व्यवसाय की नीतियों से हम उसका और उपयोग कर सकेंगे।

फिलहाल दफ्तर तो खुल गए हैं लेकिन 33 फीसद कार्य क्षमता के साथ। तो ऐसे में क्या बाकी पेज 8 पर रणनीति होगी? इस सवाल पर माहेश्वरी कहते हैं कि वर्क फ्रॉम होम जो कर रहे थे, वही करेंगे। मैं समझता हूं कि अब घूम कर बिजनस करना कम होगा। किताब विक्रेता, प्रकाशक, लेखक सब आॅनलाइन संपर्क में आ गए। जिन्हें आवश्यकता थी एक-दूसरे की, वो सब एक-दूसरे को खोज रहे थे, तो कहीं न कहीं मिल ही जाते हैं सबलोग।

रचनाकर्म के क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए यह वक्त कितना मुश्किल था, इस सवाल पर साहित्यकार सविता सिंह कहती हैं कि जब ऐसी आपदा आती है, मनुष्य जो है वह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं होता। मेरा मानना है कि यह आप पर निर्भर करता है कि आप एक सामाजिक व्यक्ति हैं या एक व्यक्तिवादी व्यक्ति? तो अगर आप सामाजिक हैं तो दूसरों का दुख भी आपका ही दुख होता है। तो भले आप लॉकडाउन पर घर में हों, लेकिन आपकी नजर हर वक्त दूसरे लोगों के जीवन पर भी होती है। तो मेरा ऐसे ही समय कटा है।

लगातार देखते हुए, जानते हुए, समझते हुए। एक देश के रूप में हम अभी किस हद तक एक नागरिक बने रहे। एक नागरिक बने रहने का मतलब है कि आपको अपने देश की वाकई वैसी चिंता हो जिसमें देश के बनने या बिगड़ने या खतरे में जाने का भय होता है। जो स्थिति अभी मजदूरों की इस देश में हुई है उसे लेकर मैं यही कह सकती हूं कि अभी मैं असंतोष, संताप और असहायता से भरी हुई हूं। यह समय मैं इसी तरह से काट रही हूं। इस समय को अभिव्यक्त करने के लिए मेरे पास जो औजार है लिखने का, पढ़ने का वह सब मैं कर रही हूं।

मैं किसी और दूसरे तरीके से जी भी नहीं सकती, वह असामान्य होगा। मैं अंतर्विरोधों से भी गुजर रही हूं यह सोच कर कि जब यह स्थिति आई है तो हमारी जो सबसे कमजोर रग है वो सामने आई है। हम अपने देश के गरीबों का सिर्फ इस्तेमाल करते हैं, हम सिर्फ उनका शोषण करना जानते हैं। तंत्र सिर्फ इतना ही जानता है कि कैसे उनका शोषण हो और कैसे मुनाफा कमाया जाए। इसके अलावा उनके बारे में कोई चिंता ही नहीं है। उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया गया। उनकी मनुष्यता, उनके बच्चे, उनका घर किसी पर भी बात नहीं की गई।

उन्होंने कहा कि लॉकडाउन के अलावा कोई विकल्प नहीं था, लेकिन लॉकडाउन कैसे हो, इसकी गुणवत्ता पर तो बात होनी चाहिए। अभी तो मैं यही डायरीनुमा चीज लिख रही हूं, बहुत सी चीजें रिकॉर्ड की हैं। बहुत सी संस्थाओं ने डिजिटली जुड़ने का आग्रह किया तो उनके लिए सामग्री तैयार की। इसमें बहुत समय लगता है और अभी मैं इसे ही अपनी सक्रियता का हिस्सा मानती हूं। कविता लिखना-पढ़ना एक सार्वजनिक सरोकार है। अभी इसी तरह का हाल है कि अपने को बचाना है और दूसरों की चिंता भी करना है। गरीबी मनुष्य को कितना अमानवीय बना देती है यह आंखों के सामने दिख रहा है।