कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने गुरुवार को सर्वोच्च न्यायालय के समलैंगिकता को अपराध नहीं करार देने के फैसले को ‘आजादी की सुबह’ करार दिया और कहा कि बेडरूम में सरकार के लिए कोई जगह नहीं है। शीर्ष अदालत द्वारा भारत में एलजीबीटीआईक्यू (समलैंगिक समुदाय) के पक्ष में फैसला सुनाए जाने पर प्रतिक्रिया देते हुए थरूर ने कहा कि इस ऐतिहासिक फैसले को सुनकर वह बहुत खुश हैं। थरूर ने कहा, “हमने सरकार को अपनी निजी जिंदगियों में तांकझांक करने की इजाजत दी थी लेकिन शीर्ष न्यायालय लोगों की गरिमा को बरकरार रखने के साथ खड़ा है। यह सेक्स नहीं है, यह आजादी है क्योंकि सरकार के लिए बेडरूम में कोई जगह नहीं है, यह वयस्कों के बीच होने वाले निजी कृत्य हैं। यह आजादी की सुबह है।”
It’s been a great day for the country & for equality, it’s been a historic day & a day of celebration. Dr. @ShashiTharoor shares his joy & pride in the Supreme Court #377Verdict #Section377 pic.twitter.com/sjQhodgPMP
— Congress (@INCIndia) September 6, 2018
थरूर ने कहा कि लोकसभा में उन्होंने दो मौकों पर निजी विधेयक लाने का प्रयास किया लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सदस्यों द्वारा उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया। थरूर ने कहा, “तब मैंने कहा था कि केवल न्यायपालिका ही ऐसा कर सकती है और यह फैसला उन भाजपा नेताओं के लिए शर्म की बात है, जिन्होंने इसका विरोध किया था।”
वैसे बता दें कि गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने IPC की धारा 377 को लेकर ऐतिहासिक फैसला दिया है। इस सेक्शन में भारत में समलैंगिक संबंधों को अपराध करार दिया गया था, जिसे मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने निरस्त कर दिया है। ब्रिटिश काल के समय वर्ष 1860 में अमल में आए धारा 377 में बेहद सख्त सजा का प्रावधान किया गया था। इसके तहत दोषी पाए जाने पर 14 साल जेल से लेकर आजीवन कारावास तक की व्यवस्था की गई थी।
इस धारा में सजा के साथ ही जुर्माने का भी प्रावधान किया गया था। आईपीसी की इस धारा में अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने को दंडनीय अपराध माना गया था। इसमें स्पष्ट तौर पर लिखा है, ‘कोई भी व्यक्ति जो अपनी इच्छा से पुरुष, महिला या पशुओं के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाता है तो उसे दंडित किया जाएगा।’ पिछले कुछ वर्षों के आईपीसी की इस धारा को खत्म करने की मांग बढ़ गई थी। LGBT समुदाय के अलावा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी थी, जिसके बाद इसे कोर्ट में चुनौती दी गई थी। बाद में यह लड़ाई देश की सबसे बड़ी अदालत में पहुंच गई, जहां अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे इस प्रावधान को खत्म कर दिया गया।