नजर-अंदाज कर मुझ को जरा सा खुल के जीने दे
कहीं ऐसा न हो तिरी निगहबानी से मर जाऊं
-महशर आफरीदी

भारत जैसे बड़ी जनसंख्या और बड़े उपभोक्ता समूह वाले देश पर दुनिया भर के बाजार की नजर है, और यहां के नागरिकों का डाटा उनके मुनाफे की तिजोरी की चाबी। वहीं, जिस देश में चुनाव मुफ्त आटे की घोषणा पर जीत लिए जाते हों वहां आम नागरिकों के लिए निजता की सुरक्षा कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। लेकिन, आने वाले समय में भारत जैसे लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए डाटा सुरक्षा नीति कितनी अहम है, इस पर चर्चा करता बेबाक बोल

श्रीमान ‘अ’ एक होटल में जाते हैं। होटल के स्वागत कक्ष पर मौजूद कर्मचारी गर्मजोशी से उनका स्वागत करती है। श्रीमान ‘अ’ का परिचय-पत्र देखने और कमरे का विवरण देने के बाद स्वागत कक्ष कर्मचारी ने कहा, चूंकि, आप मधुमेह के मरीज हैं, इसलिए हमारे अलग गुणवत्ता वाले खानसामे की सेवा ले सकते हैं, दस फीसद छूट के साथ। आपने अपने होटल के पिछले प्रवासों में स्पा की सुविधा ली थी तो हम आग्रह करेंगे कि आप हमारे होटल में भी इसका आनंद लें 33 फीसद छूट के साथ। आपको कुछ खाद्य सामग्रियों से परेशानी है तो हम उसका खास ध्यान रखेंगे। आप अक्सर फलां सेवा की टैक्सी लेते हैं, लेकिन आप होटल से बाहर जाते वक्त हमारे होटल की टैक्सी सेवा पर ही भरोसा करें।

होटल कर्मचारी के पास अपनी इतनी निजी जानकारी पाकर श्रीमान ‘अ’ ने हैरान होते हुए पूछा कि आप मेरे बारे में इतना कुछ कैसे जानती हैं? कर्मचारी ने मुस्कुराते हुए कहा, माफी चाहती हूं। हम डाटा सुरक्षा का पूरा ख्याल रखते हैं, इसलिए हम अपने स्रोत की जानकारी नहीं दे सकते हैं।
डाटा सुरक्षा पर इस तरह के चुटकुले आपको खूब मिल जाएंगे। भारत में डाटा का मसला ऐसा बना ही दिया गया है कि जैसे ही हम डाटा के साथ सुरक्षा की बात करते हैं, वह चुटकुला जैसा ही लगने लगता है।

चर्चा है कि कोविड महामारी के लिए बने सरकारी मंच ‘कोविन’ का डाटा चोरी हो चुका है

हाल ही में खबर आई कि कोरोना महामारी के बाद बनाए गए सरकारी मंच ‘कोविन’ का डाटा चोरी हो चुका है और फलां मंच पर उपलब्ध है। हमारे देश के बड़े नेताओं से लेकर किसी कारखाना मजदूर तक को क्या बीमारी है के आंकड़े बाजार के खिलाड़ियों को उपलब्ध करा दिए गए।हालांकि, सरकार ने इसका खंडन किया और ‘कोविन’ को पूरी तरह सुरक्षित बताया। सरकार को इसका खंडन करना भी चाहिए था। कोरोना महामारी के दौर में जिस तरह लोगों के स्वास्थ्य का डाटा रखने वाला ऐप लाकर उसे फोन में रखने का चौतरफा दबाव बनाया गया था, वह सब याद करते हुए लगता है कि सरकार को इसका खंडन करना ही चाहिए।

सरकार के खंडन के साथ हमें हमारी निजता के सुरक्षित रहने का भ्रम बना रह सकता है। हालांकि, सुबह से लेकर रात तक हमारे मोबाइल पर आने वाले संदेशों की आवाज हमारा भ्रम तोड़ती रहती है। कोई भी अपने मोबाइल के संदेश गलियारे को खोल कर देखेगा तो उसे लगेगा कि वह बीच बाजार में निर्वस्त्र खड़ा है। जैसे हम रात-दिन किसी की निगहबानी में हैं। आपको खुद याद हो या न याद हो कि आपने अपनी एचबीएवनसी जांच कब करवाई है, आपके डाटा के खरीददार एक हफ्ते पहले से बताना शुरू कर देंगे कि अब वक्त आ गया है, आप फलां प्रयोगशाला में जाकर जांच करवा लीजिए। यूटीआइ से गुजर रही किसी महिला को रात-दिन संदेश आते रहेंगे कि उसे कैसे उपकरण खरीदने चाहिए ताकि वह सार्वजनिक जगह के शौचालयों को बिना संक्रमित हुए इस्तेमाल कर सकती है।

बाजार का एक शब्द है ‘कस्टमाइज’ यानी खास आपके लिए अनुकूलित। यह शब्द आपको इस बात का सुख देता है कि फलां उत्पाद विशुद्ध रूप से आपके शरीर की जरूरत के आधार पर तैयार किया जा रहा है। इसी तरह से डाटा के बाजार में हर नागरिक अपनी खास जरूरतों के प्रति इतनी तवज्जो मिलने से अचंभित सा रहता है। देश में भले ही प्रति हजार आबादी पर डाक्टरों की संख्या शर्मनाक हो सकती है, लेकिन, प्रति नागरिक की बीमारियों से लेकर निजी जरूरतों तक जिस तरह दवा कंपनी से लेकर जांच प्रयोगशालाओं और निजी अस्पतालों की पहुंच होती है, उससे तो वह खुद को खास समझ ही सकता है। पिछले दिनों देश के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल का सर्वर कई दिनों तक हैकरों के हवाले रहा था, जहां कई अति विशिष्ट व्यक्तियों का स्वास्थ्य संबंधी डाटा है। ऐसे में आम आदमी का फोन उसकी निजता को तार-तार करता रहे तो कौन सी बड़ी बात हो गई।

केंद्र सरकार ने पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि सरकार जुलाई में संसद के आगामी मानसून सत्र में डिजीटल व्यक्तिगत डाटा संरक्षण विधेयक (डाटा प्रोटेक्शन बिल) पेश करेगी। यह देखने वाली बात होगी कि यह किस रूप में आता है और आगे इसका क्या असर होगा। डाटा की सुरक्षा हमारी कितनी बड़ी जरूरत है और हमारी क्या, कितनी और कैसी तैयारी है, सरकार से यह सवाल, बुनियादी अधिकार की तरह पूछने का समय आ गया है। कंप्यूटर, इंटरनेट और डाटा से जुड़ी तकनीक में हम कहां हैं? ध्यान देने की बात है कि कंप्यूटर और इंटरनेट से जुड़ी इन सारी तकनीकों का इस्तेमाल सबसे पहले सुरक्षा, सतर्कता और निगरानी के लिए हुआ था। वह चाहे वियतनाम युद्ध हो या किसी और तरह का गुरिल्ला युद्ध। दुश्मन के लड़ाकू विमानों की पहचान कर उसे मार गिराना। कंप्यूटर और डाटा गणना ने युद्ध को तकनीकी रूप दे दिया।

आगे चल कर बाजार की बड़ी कंपनियों का इस पर कब्जा हुआ और अमेरिका ने इसमें अपना सबसे बड़ा व्यावसायिक हित देखा। तकनीक की इस दुनिया में सबसे बड़ा निवेश करने वाला अमेरिका ही था। उसके बाद चीन ने अपने पांव पसारे और इस क्षेत्र में भारी-भरकम निवेश कर अमेरिका को टक्कर दी। आज अमेरिका और चीन के बीच वर्चस्व की लड़ाई का केंद्र इसी तकनीक के बाजार पर कब्जा करना है।

आज के दौर में किसी सत्ता के लिए डाटा की सुरक्षा की क्या अहमियत है इसका अहसास सबसे पहले ‘विकिलिक्स’ के संस्थापक जूलियन असांजे ने करवाया था। डाटा की इस लड़ाई में जब अमेरिकी सरकार को दुनिया के सामने नीचा देखना पड़ा तो उसके लिए सबसे बड़ा अपराधी जूलियन असांजे ही हो गया। प्रेस अधिकार के हल्ले के बीच चौतरफा घेर कर असांजे को जिस तरह से सजा के दरवाजे तक पहुंचाया गया है, उसी से हम समझ सकते हैं कि ‘विकिलिक्स’ और असांजे अमेरिकी व अन्य सत्ता के लिए कितने बड़े खौफ हैं।

असांजे और अमेरिका का टकराव इस बात का संदेश था कि आने वाले समय में दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई डाटा के बाजार में होगी। ‘विकिलिक्स’ में अहम शब्द है-लीक। यानी आपकी गोपनीयता में सेंध लगाना। इसे इस तरह से समझिए। केंद्र सरकार ने कहा कि ज्यादातर कल्याणकारी योजना जिनमें अनुदान दिए जाते हैं उसकी सबसे बड़ी समस्या है सेंध लग जाना। जनता और सत्ता के बीच सेंध को बचाने के लिए तकनीक का सहारा लिया गया। इस तरह ज्यादातर चीजों का केंद्रीकरण हुआ। इसके साथ जुड़ा आम नागरिकों का डाटा। हर चीज को कंप्यूटरीकृत और आधार आधारित बना दिया गया। लेकिन, यह बार-बार साबित हो रहा है कि सरकार नागरिकों के डाटा को पूरी तरह सुरक्षित नहीं कर पा रही है।

हर तरह की सुरक्षा के नाम पर लाया गया आधार कार्ड ही आज असुरक्षा की सबसे बड़ी वजह बन रहा है। आपकी गतिविधि जितनी ज्यादा होगी आपका आधार भी आपके साथ होगा और नतीजतन आपके फोन में अवांछित संदशों का सैलाब।

हम अभी ठीक से यह आकलन ही नहीं कर पाए हैं कि डाटा की सेंधमारी भारत के लिए कितना बड़ा खतरा साबित होगी। जिस देश में चुनाव मुफ्त आटे के नारे पर जीत लिया जाता हो, जहां इक्कीसवीं सदी में शौचालय बनाना सरकार की सफलता के बड़े आंकड़ों में हो, अस्पताल में मरीजों को खाने की एक थाली देते वक्त दस लोग तस्वीरें खिंचवाते हों वहां बुनियादी रूप से डाटा की सेंधमारी का सवाल हल्के से हल्ले के बाद खत्म हो जाता है और सरकार भी हलकान नहीं होती है।

यह मसला वहीं से जाकर शुरू होता है जहां गूगल, फेसबुक, ट्वीटर और एमेजान जैसी कंपनियों के सामने हमारे तकनीकी अधिकार खत्म हो जाते हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया के मसले पर विदेशी कंपनियों पर निर्भर रहेंगे तो हम पर वर्चस्व भी उन्हीं का होगा। यह पूरे देश के साथ उस नागरिक के लिए भी असुरक्षित होगा जो कहे, हमें डाटा नहीं आटा चाहिए। इसलिए, आज यह वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है कि सरकार डाटा सुरक्षा की तकनीक पर ज्यादा से ज्यादा अनुसंधान और निवेश करे। सिर्फ प्राचीन काल पर गर्व करने वाली चीजों पर निवेश करते-करते कहीं ऐसा न हो कि आधुनिक डाटा की लड़ाई में हम अप्रासंगिक हो जाएं। एम्स से लेकर कोविन तक तो यही लग रहा है कि कभी भी हमारी निजता की रेहड़ी आलू और सब्जी की रेहड़ी के बगल में लग सकती है। आलू ले लो से लेकर डाटा ले लो की बोली में फर्क करना हमें सीख लेना चाहिए।