भारत में कोचिंग संस्थानों का प्रभाव हमारी शिक्षा प्रणाली और समाज पर गहरा और चिंताजनक है। प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता के नाम पर यह उद्योग शिक्षा के मूल उद्देश्यों को हाशिए पर डाल रहा है। शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह स्वतंत्र सोच, रचनात्मकता और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का माध्यम होना चाहिए। कोचिंग संस्थानों के बढ़ते असर ने इस उद्देश्य को दरकिनार कर दिया है और इसे केवल एक यांत्रिक प्रक्रिया में बदल दिया है।

यह उद्योग अब विशाल व्यावसायिक क्षेत्र बन चुका है, जिसका मुख्य उद्देश्य शिक्षा के बजाय लाभ कमाना होता जा रहा है। रपटों के अनुसार, भारत में कोचिंग उद्योग 2023 तक लगभग 58,000 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है और इसमें आठ से दस फीसद की वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई है। यह वृद्धि मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में केंद्रित रही है, जहां कोचिंग संस्थान तेजी से पनप रहे हैं।

छात्रों की रचनात्मकता और नवाचार की क्षमता हो रही बाधित

कोचिंग प्रणाली ने छात्रों को विषय की गहराई और वास्तविक समझ से दूर कर दिया है। इसके कारण, छात्रों की रचनात्मकता और नवाचार की क्षमता बाधित होती है। वे केवल निर्देशों का पालन करने तक सीमित रह जाते हैं और नई समस्याओं का समाधान करने की क्षमता विकसित नहीं कर पाते। यह प्रवृत्ति न केवल छात्रों की कल्पनाशक्ति को बाधित करती, बल्कि देश की तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति को भी धीमा कर देती है। हमारी शिक्षा प्रणाली पहले ही रट्टा-शैली की परीक्षा प्रणाली पर आधारित रही है, जिससे छात्र केवल परीक्षा पास करने की रणनीति पर ध्यान केंद्रित करते हैं और गहन सोच, समस्या-समाधान तथा व्यावहारिक ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। कोचिंग संस्थान इस प्रक्रिया को और भी उथला बना देते हैं, क्योंकि वे केवल परीक्षा-उन्मुख पढ़ाई पर जोर देते हैं।

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भारत में शिक्षा प्रणाली और कोचिंग संस्थानों का प्रभाव केवल परीक्षा-आधारित सीखने तक सीमित रहा है। इससे कौशल विकास और व्यावहारिक शिक्षा की अनदेखी हो रही है। कई विकसित देशों में शिक्षा प्रणाली इस तरह डिजाइन की गई है कि छात्रों को उनकी पढ़ाई के साथ-साथ तकनीकी और व्यावसायिक कौशल भी सिखाए जाएं, जिससे वे नवाचार और उद्यमिता की ओर बढ़ सकें। भारत में कोचिंग संस्कृति मुख्य रूप से प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता पर केंद्रित होती है, जिससे छात्रों के तकनीकी और व्यावसायिक कौशल विकसित नहीं हो पाते।

पारंपरिक नौकरियों की ओर आकर्षित होते हैं अधिकतर युवा

वर्ष 2022 की ‘स्टार्टअप इंडिया रपट’ के अनुसार, भारत में नवउद्यमों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन अधिकतर युवा केवल पारंपरिक नौकरियों की ओर आकर्षित होते हैं, क्योंकि शिक्षा प्रणाली और कोचिंग संस्कृति उन्हें उद्यमिता की ओर प्रेरित नहीं करती। यदि भारत को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करनी है, तो शिक्षा प्रणाली में कौशल-आधारित पाठ्यक्रम को प्राथमिकता देनी होगी और कोचिंग संस्थानों की भूमिका को कम करना होगा। इससे छात्रों को नवाचार और शोध की ओर आकर्षित किया जा सकता है।

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भारत में कोचिंग संस्थान न केवल शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि शिक्षा में नैतिकता के पतन का भी एक बड़ा कारण बन रहे हैं। कई कोचिंग संस्थान अपनी बाजार रणनीतियों में परीक्षा में सफलता की गारंटी देते हैं, जो छात्रों और अभिभावकों को भ्रमित करता है। इस प्रकार, शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति से हट कर केवल परीक्षा में सफलता तक सीमित हो गया है। कई प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थान प्रतिभाशाली छात्रों को भारी छूट देकर अपनी सफलता दर बढ़ाते हैं, जबकि सामान्य छात्रों से अधिक शुल्क वसूलते हैं, जिससे यह उद्योग केवल आर्थिक रूप से सक्षम वर्ग तक सीमित होता जा रहा है।

महंगे कोचिंग सेंटर केवल संपन्न परिवारों के छात्रों के लिए होते हैं सुलभ

भारत में कोचिंग उद्योग का विस्तार बिना किसी ठोस नियमन के हुआ है, जिससे इसकी फीस संरचना, शिक्षण गुणवत्ता और संचालन प्रक्रिया पर कोई स्पष्ट निगरानी नहीं है। कई संस्थान बिना मान्यता के चलते हैं और छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के बजाय केवल व्यावसायिक लाभ पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इस उद्योग के बढ़ने से पारंपरिक विद्यालयी शिक्षा की भूमिका कमजोर हुई है, जहां केवल परीक्षा पास करने को प्राथमिकता दी जाती है और नैतिक मूल्यों, सामाजिक जिम्मेदारी तथा चरित्र निर्माण की अनदेखी होती है।

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इसके अलावा, वैज्ञानिक शोध और नवाचार को भी इस कोचिंग संस्कृति से नुकसान हो रहा है। जब छात्र केवल नौकरी के लिए परीक्षा पास करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो वे मौलिक अनुसंधान में रुचि नहीं लेते। यही कारण है कि भारत में युवा वैज्ञानिकों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। इसके साथ ही, कोचिंग संस्थानों की बढ़ती फीस शिक्षा को आर्थिक रूप से सक्षम वर्ग तक सीमित कर रही है। महंगे कोचिंग सेंटर केवल संपन्न परिवारों के छात्रों के लिए सुलभ होते हैं, जबकि आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित वर्गों के छात्र इन अवसरों से वंचित रह जाते हैं। इससे समाज में शैक्षिक असमानता बढ़ रही है और उच्च शिक्षा तथा प्रतिष्ठित नौकरियों तक उनकी पहुंच सीमित होती जा रही है। यह प्रवृत्ति केवल शिक्षा के व्यवसायीकरण को नहीं दर्शाती, बल्कि सामाजिक असमानता को भी गहरा कर रही है। इसे नियंत्रित करना आवश्यक है।

शिक्षा अब बन चुका है बड़ा उद्योग

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों के लिए अवसरों में भी यह प्रणाली असमानता पैदा करती है। शहरी क्षेत्रों में उपलब्ध संसाधन और सुविधाएं ग्रामीण छात्रों के लिए समान नहीं हैं। कोचिंग संस्थानों का केंद्रीकरण मुख्य रूप से शहरों में है, जिससे शहरी छात्रों को अधिक अवसर मिलते हैं, जबकि ग्रामीण छात्र इस दौड़ में पीछे रह जाते हैं। यह असमानता तब और बढ़ जाती है जब महंगे कोचिंग संस्थानों की फीस आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के छात्रों के लिए एक बड़ी बाधा बन जाती है।

कोटा जैसे कोचिंग हब में, इंजीनियरिंग (आइआइटी-जेईई) और मेडिकल (नीट) की तैयारी के लिए वार्षिक फीस दो से चार लाख रुपए तक होती है, जो मध्यम और निम्न वर्गीय परिवारों पर भारी आर्थिक दबाव डालती है। संघ लोक सेवा आयोग और राज्य सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग भी एक बड़ा उद्योग बन चुका है। दिल्ली जैसे केंद्रों में यूपीएससी की तैयारी के लिए फीस एक लाख से ढाई लाख रुपए तक हो सकती है। वर्ष 2021 की एक रपट के अनुसार, सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी के लिए हर साल लगभग दस लाख छात्र कोचिंग संस्थानों का सहारा लेते हैं, जबकि सफलता दर मात्र 0.1% से 0.2 फीसद के बीच है। यह स्थिति दर्शाती है कि लाखों छात्र भारी खर्च और कठिन चुनौतियों का सामना करते हुए इस प्रतियोगिता में शामिल होते हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश असफल रह जाते हैं।

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कोचिंग संस्थानों के बढ़ते प्रभाव पर गंभीर विचार आवश्यक है, क्योंकि यह न केवल शिक्षा तंत्र बल्कि समाज, नवाचार और राष्ट्रीय विकास के लिए भी एक चुनौती बन रहा है। यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया, तो भारत एक ऐसे समाज में बदल जाएगा, जो केवल श्रमिकों और कर्मचारियों से भरा होगा, लेकिन स्वतंत्र सोच और नवाचार में पिछड़ जाएगा। सरकार को प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में निवेश बढ़ाना होगा ताकि सरकारी स्कूल और कालेज गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर सकें। फिनलैंड, जर्मनी और जापान में स्कूली शिक्षा इतनी प्रभावी है कि छात्रों को कोचिंग की जरूरत नहीं पड़ती, भारत को भी इसी दिशा में कदम उठाने होंगे।