यह अत्यंत संतोष का विषय है कि गांव-चौपाल की चर्चा तक में देश की एकता और सुरक्षा से जुड़े मुद्दे शामिल होते हैं। हर स्तर पर लोग अपनी अपेक्षाओं को अलग-अलग निर्धारित करने लगे हैं। मगर देश में बहस उन लोगों के मध्य भी होनी चाहिए, जो गहन अध्ययनशील हैं, देश और उसके लोगों को समझते हैं, राजनीतिक विचारधाराओं या दलगत राजनीति से बंधे नहीं हैं। सजग और सतर्क नागरिक तथा सामान्य जन भी ऐसी चर्चा सुनना और देखना चाहेंगे, जिनमें गांधी, नेहरू, आंबेडकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सपनों के भारत का जिक्र हो, जिसमें राजेंद्र प्रसाद की संविधान का क्रियान्वयन करने वालों से की गई अपेक्षाओं पर बहस हो, जिनमें सामाजिक सौहार्द तथा पांथिक समरसता को बढ़ने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सर्वदलीय प्रयासों को नई ऊर्जा के साथ पुनर्जीवित करने पर सभी के मध्य सहमति बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ करने का उत्साह परिलक्षित हो!

अगर देश में एक भी घटना अस्पृश्यता को लेकर घटती है या किसी को केवल ऊंच-नीच जैसी दुर्भावना से अपमानित होना पड़ता है, तो उसे रोकने की जिम्मेवारी से क्या कोई भी अपने को अलग कर सकता है? क्या आम चुनाव का यह समय गांधी और उनके शब्दों को याद करने का नहीं होना चाहिए? क्या सभी राजनीतिक दलों को साथ बैठकर यह विवेचन नहीं करना चाहिए कि गांधी के सपनों को साकार करने के लिए उन्होंने पिछले पांच या पचहत्तर वर्षों में क्या किया? यह उन सभी दलों का उत्तरदायित्व बनाता है, जो संसद में गांधी की प्रतिमा के पास जाकर धरना देते या राजघाट जाकर अपनी ‘तकलीफ’ गांधीजी को निवेदित करते हैं!

कहीं भी और कभी भी समस्याओं के समाधान का सबसे सशक्त रास्ता निर्मल संवाद ही होता है। संवाद जब स्वार्थ से आक्रांत हो जाता है, जब पूर्वाग्रह हावी हो जाते हैं। संवाद के हर पहलू को- उसकी सफलता और विफलता के कारकों सहित- महाभारत में देखा जा सकता है। वहां अनेक अवसरों पर सफलता भले न मिली हो, आपस में एक-दूसरे पक्ष के विचारों, कुंठाओं और दुर्भावनाओं को जानने का अवसर अवश्य मिला होगा।

भारत की सांस्कृतिक परंपरा में संवाद के अनेक अनुकरणीय प्रकरण बहुधा उद्धृत किए जाते हैं, उनकी छाया में राजनेताओं के सलाहकार उन्हें अपने विरोधियों से सम्मानपूर्वक संवाद स्थापित करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। जो जनसेवा में जीवन समर्पित करना चाहते और जनता के प्रतिनिधि बनना चाहते हैं, क्या उनको गांधीजी द्वारा 17 सितंबर, 1925 का ‘यंग इंडिया’ में लिखा यह वाक्य याद नहीं रखना चाहिए: ‘मैं भारत को स्वतंत्र और बलवान बना देखना चाहता हूं, क्योंकि मैं चाहता हूं कि वह दुनिया के भले के लिए स्वेच्छापूर्वक अपनी पवित्र आहुति दे सके’। इसके लिए न केवल राजनीतिक दलों के स्तर पर सहमति बननी, बल्कि सभी को मिलकर राष्ट्रमति भी निर्मित करनी चाहिए। युवाओं को इस प्रकार की अपेक्षाओं पर चर्चा के लिए प्रेरित करना आवश्यक है।

हर तरफ जिस तेजी से अप्रत्याशित परिवर्तन हो रहे हैं, उसमें अनेक प्रकार की नई समस्याओं तथा मनुष्य-जनित आपदाओं से सामना होना ही है। देश के समक्ष अनेक सामाजिक और पांथिक समस्याएं जानबूझ कर खड़ी की गई हैं, जिससे आपसी अविश्वास पैदा हो। यहां की परंपरा तो सभी के विचारों, मतों, पंथों की स्वीकार्यता की ही रही है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से अपेक्षा तो यही थी कि वे समस्याओं के समाधान संवाद और समग्रता के आधार पर निकाल सकेंगी।

राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं के समाधान में भी प्रत्येक देश की सरकार के साथ सहयोग कर सकेंगी। यूनेस्को और यूनिसेफ जैसी संस्थाएं शांति स्थापना के प्रयासों में सीमित स्तर पर सहायता करने का प्रयास कर रही हैं, लेकिन सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाएं आज भी साम्राज्यवादी तरीके अपनाए हुए हैं। अगर वैश्विक स्तर पर समग्रता के लिए इनमें परिवर्तन आवश्यक हैं, तो जमीनी स्तर पर भी बहुत कुछ किया जाना है।

आज भी ऐसी शिक्षा व्यवस्थाएं हैं, जो किसी पंथ, नस्ल या जाति विशेष की श्रेष्ठता के पाठ प्रारंभिक वर्षों में पढ़ाती हैं। दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में शिक्षा की ओर ही समाधान के लिए जाना होगा। प्रारंभिक वर्षों में सभी बच्चों को सभी पंथों की समानता के पाठ पढ़ाने होंगे, भिन्नताओं का आदर करना सिखाना होगा। यही सबसे सशक्त समाधान तक पहुंचने का रास्ता है। यही समग्रता का आधार बन सकता है।

सार्वभौमिक शिक्षा के महत्त्व को मनुष्य जाति समझ चुकी है और इसके लिए बीसवीं सदी में वैश्विक स्तर पर कई सराहनीय संगठित प्रयास किए गए, जो अब भी जारी हैं। सामाजिक स्तर पर सदियों से कुछ समूहों की दुर्भावना झेलते रहे समुदाय अब आगे उसके लिए तैयार नहीं हैं। मगर इस दिशा में व्यावहारिक स्तर पर अब भी बहुत कुछ बदलना बाकी है। ज्ञान समाज और बौद्धिक आर्थिकी ही नहीं, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उभरते स्वरूप से आच्छादित विश्व में जो देश आंतरिक भेद-विभेद में उलझे रहेंगे, वे निश्चित ही पीछे रह जाएंगे। इस स्थित का विश्लेषण कर उसके समाधान के लिए त्वरित उपाय आवश्यक हैं।