सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ शुक्रवार को रिटायर हो रहे हैं। इसी दिन सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ शुक्रवार को इस बात पर फैसला सुनाएगी कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थान माना जा सकता है या नहीं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2006 में फैसला दिया था कि 1920 में एक शाही कानून के माध्यम से स्थापित एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।

फरवरी में सुरक्षित रखा था फैसला

सुप्रीम कोर्ट में 7 जजों की संविधान पीठ ने इस मामले की सुनवाई की थी। 8 दिनों तक मामले की सुनवाई के बाद फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसला सुरक्षित रखा था। इस मामले में कुल 11 याचिकाएं दाखिल की गई हैं। इनमें अलीगढ़ विश्वविद्यालय ने रजिस्ट्रार के जरिए मूल याचिका दायर की थी। केस में याचिकाकर्ताओं की ओर से कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, राजीव धवन, एमआर शमशाद पेश हुए जबकि दूसरी ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, नीरज किशन कौल, राकेश द्विवेदी ने अपना पक्ष रखा। सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना है कि एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिया जाना संविधान और विधिसम्मत है या नहीं।

क्या है पूरा मामला?

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी फैसला सुनाया था। 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ के मामले में 5 जजों की संविधान पीठ ने माना कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। पीठ ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम 1920 का हवाला दिया। इस अधिनियम के तहत ही विश्वविद्यालय की स्थापना की और माना कि एएमयू न तो मुस्लिम समुदाय द्वारा स्थापित किया गया था और न ही मुस्लिम समुदाय द्वारा प्रशासित था। 1981 में AMU अधिनियम में संशोधन में कहा गया था कि विश्वविद्यालय ‘भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित’ किया गया था। इसके बाद 2005 में अल्पसंख्यक दर्जे का दावा करते हुए विश्वविद्यालय ने मुस्लिम छात्रों के लिए स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में 50% सीटें आरक्षित कीं।

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संविधान पीठ में कौन-कौन शामिल

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, नामित चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं।

हाईकोर्ट ने क्या दिया फैसला

इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरक्षण नीति और 1981 के संशोधन को खारिज कर दिया। जिसमें कहा गया कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि विश्वविद्यालय के प्रशासन का प्रभारी कौन है, और अनुच्छेद 30 (1) अल्पसंख्यकों को यह चुनने का अधिकार देता है कि संबंधित संस्थान की अल्पसंख्यक स्थिति को प्रभावित किए बिना प्रशासन का प्रभारी कौन होगा।