कोरोना महामारी के जिस संकट को हम शुरू में सेहत से जोड़कर देख रहे थे, वह देखते-देखते सभ्यता और इंसानी सलूक का एक ऐसा पक्ष लेकर सामने आ गया, जो कई बड़े और गंभीर सवाल हमारे सामने खड़ा करता है। इन सवालों से जुड़ी जो सबसे बड़ी चिंता है वह यह कि इंटरनेट क्रांति के जरिए आए बदलाव का मौजूदा हश्र हमें कहां ले आया है। भारत में इंटरनेट का इतिहास ढाई दशक का है। इंटरनेट के जरिए जारी बदलाव की प्रक्रिया कोरोनाकाल में ओटीटी प्लेटफॉर्म तक पहुंच गई है। अभिव्यक्ति और आजादी के नाम पर हमारे सामने अब वह सब कुछ परोसा जा रहा है, जिसे मन और आंखों से देखने-भोगने का न तो हमारे पास कोई पूर्वाभ्यास है और न सभ्यतागत संस्कार। हाल के दिनों में आए बदलावों से जुड़े ऐसे ही कई अहम संदर्भों से अवगत करा रहे हैं प्रेम प्रकाश।
भारत सहित दुनिया के इतिहास में बीते तीन दशक इस लिहाज से खासे अहम हैं कि इसने व्यक्ति, अभिव्यक्ति और सभ्यता के साझे बूते के साथ आधुनिकीकरण की पूरी प्रक्रिया और आशय को ही बदल दिया। दिलचस्प यह कि यह सब जिस तेजी के साथ घटित हुआ उसके पीछे तकनीक की वह संजालीय ताकत है, जिसे हम इंटरनेट कहते हैं। दुनिया के बाकी हिस्सों के मुकाबले भारत में इस बदलाव का खास मतलब इसलिए है क्योंकि यहां समाज और संस्कृति का बहुलतावादी अस्तित्व पारंपरिक तौर पर कायम रहा है।
लिहाजा, इस पारंपरिक रचाव के बीच नई तकनीक ने समझ और व्यवहार के जो तकाजे पैदा किए, लोगों की जिस तरह रुचियां-अरुचियां विकसित हुईं और इन सबसे ज्यादा समाज और बाजार का जो नया रिश्ता बना, उस पर विचार हमें कई दिलचस्प नतीजों से अवगत कराता है।
इंटरनेट के ढाई दशक
इसी साल अगस्त में इंटरनेट ने भारत में 25 साल पूरे कर किए हैंं। आज इंटरनेट इस्तेमाल करने के मामले में हमारा देश दुनिया में दूसरे स्थान पर है। दरअसल, बीते ढाई दशक से भारत जिस तरह डिजिटल मोड में आता गया है, उसमें बड़ी भूमिका निभाई है कंप्यूटर ने। कंप्यूटर से हमारा परिचय उदारीकरण के दौर से पहले का है। यह परिचय अपवाद से तब आम व्यवहार का हिस्सा बना जब 15 अगस्त 1995 को भारत को इंटरनेट का तोहफा मिला। विदेश संचार निगम ने देश का पहला इंटरनेट कनेक्शन दिया। 2010 तक आते-आते स्मार्टफोन की आमद ने हमारी निजी और सार्वजनिक दुनिया को एक साथ नियंत्रित करना शुरू कर दिया।
आज आलम यह है कि देश में 70 करोड़ से ज्यादा लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं और यह हमारे लिए पानी या आक्सीजन की तरह जरूरी हो गया है। बदलाव की यह प्रक्रिया हमारे जीवन को कई स्तरों पर बदल रही थी। लेखन से लेकर अभिव्यक्ति और मनोरंजन की दुनिया के हिस्से यह बदलाव जिस रूप में आया, वह तो दंग कर देने वाला है। एक सामान्य समझदारी के लिए हम कह सकते हैं कि मानव सभ्यता का 21वीं सदी में दाखिला उस आभासलोक में उतरने जैसा है, जो कहने को तो हमें पूरी दुनिया से एक माउस या एक क्लिक के साथ जोड़ देता है पर वास्तव में यह जुड़ाव संवेदना और सामाजिकता की दुनिया में एक व्यक्ति को किस तरह नितांत अकेला करता गया है, यह आज हम अनुभव कर सकते हैं।
कोरोना और ओटीटी</strong>
इस साल के दूसरे-तीसरे महीने से कोरोना का कहर हमारे आसपास पहुंच चुका था। यह देखना काफी रोचक है कि एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया के सामने सेहत और जीवन की चिंता सर्वोपरि है, तकनीक ने टीवी और सिनेमा देखने के हमारे अभ्यास को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। टीवी धारावाहिकों और सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म देखने के शौकीन आज वेब सीरीज या ओटीटी (ओवर द टॉप)पर रिलीज होने वाली फिल्मों की बात कर रहे हैं। यह एक बड़ा बदलाव है और यह आगे किस तरह और ज्यादा प्रभावी होगा इसे कुछ अध्ययनों और तथ्यों से हम समझ सकते हैं।
2023 तक भारत में ओटीटी इंडस्ट्री में 45 फीसद वृद्धि की संभावना है। इसे यों भी कह सकते हैं कि कोरोना ने इस संभावना को दोगुना कर दिया है। पहले जहां देश में अमेजॉन और नेटफ्लिक्स जैसे विदेशी प्लेटफॉर्म्स का ही दबदबा था, वहीं अब ‘ओरिजनल कंटेंट’ के मामले में भारतीय प्लेटफॉर्म्स उन्हें कड़ी टक्कर दे रहे हैं। कुछ भारतीय ओटीटी प्लेटफॉर्म तो इनसे काफी आगे हैं। लेट्सओटीटीग्लोबल डॉट कॉम की मलेशिया स्थित संपादक डॉ. सुनीता कुमार बताती हैं कि भारत में साल-डेढ़ साल पहले 40 ओटीटी प्लेटफॉर्म थे, लेकिन अब इनकी संख्या दोगुनी होकर 80 से भी ज्यादा हो गई है।
बदलाव का संजाल
बदलाव का यह संजाल हमें आगे और कहां ले जाएगा यह कहना मुश्किल है। हां, एक बात जो मौजूदा स्थिति में कही-समझी जा सकती है वह यह कि इस बदलाव के साथ अभ्यस्त होने से ज्यादा जरूरी है इसके प्रति सचेत होना। यह सचेत भाव इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इससे कहीं न कहीं मनुष्य की वह नियति तय होगी जिसमें यह तारीखी तौर पर जाहिर होगा कि मनुष्यता पर अगर तकनीक इस कदर हावी हो जाए कि अनुभव और अभ्यास की उसकी रचनात्मकता बड़े पैमाने पर आभासी दुनिया में तैरने लगेगी तो फिर आधुनिकता और मनुष्यता का साझा हश्र क्या होगा।
वैज्ञानिक शोध और अनुसंधान के क्रम में लिटमस या एसिड टेस्ट की बातें खूब होती हैं। यह शब्द विचार और विमर्श के क्षेत्र में भी खासा प्रचलित है। अभी हम जिन संजालीय बदलावों और उनसे जुड़ी चिंता की बात कर रहें हैं उसे समझने के लिए मौजूदा समय काफी माकूल है। दुनिया एक तरफ एक ऐसे संकट से गुजर रही है जिसमें सेहत का सवाल सीधे-सीधे जीवन-मरण का सवाल बन गया है तो वहीं इस दौर के एकाधिक अनुभव यह समझने के लिए पर्याप्त हैं कि सभ्यता और आधुनिकता के भले ही हम उत्तर चरण में हों, पर इंसानी तराजू पर इस दौरान हम खासे हल्के साबित हुए हैं।
ऐसा इसलिए क्योंकि कोरोना संकट के दौरान निश्चित तौर पर सहयोग और सौहार्द की कई बड़ी मिसालें देखने को मिली हैं, पर ये सारे उदाहरण या तो आपवादिक हैं या कुछ लोगों के निजी पुरुषार्थ के किस्से। आम समाज का चरित्र इस दौरान अपने ही लोगों के प्रति खासा असहयोगपूर्ण रहा है, असहिष्णु रहा है। इसलिए इस दौरान जो हम टीवी स्क्रीन, कंप्यूटर या स्मार्टफोन पर देख रहे हैं, उससे जुड़ी विषयवस्तु या कंटेंट काफी मायने रखता है।
हाल और सवाल
दिलचस्प है कि पिछले कुछ सालों से भारत में सक्रिय विदेशी ओटीटी प्लेटफॉर्म आरिजिनल सीरीज लाकर भारतीय हिंदी दर्शकों के बीच पैठ बनाने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें बड़ी कामयाबी अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवानी के निर्देशन में आई ‘सेक्रेड गेम्स’ से मिली। विक्रम चंद्रा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित इस वेब सीरीज का लेखन वरुण ग्रोवर और उनकी टीम ने किया था।
‘सेक्रेड गेम्स’ को न सिर्फ दर्शक मिले बल्कि वे टिके भी रहे। इसके प्रसारण के समय से ही यह सवाल सुगबुगाने लगा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म को स्वच्छंद छोड़ना ठीक है क्या? आज आलम यह है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म जाना ही इसलिए जा रहा है कि यह देह और संबंधों की दुनिया को हर स्तर पर बेनकाब करता है। इंटरनेट की दुनिया ने आभासी लोक की जिस स्वचछंदता से हमें पहले परिचित कराया, यह कहीं न कहीं उसी का उत्तर संदर्भ है, भयावह हश्र है।
तकनीक और इंसानी स्फीति
सवाल यह है कि सभ्यता के इतिहास में अब तक जो रचनात्मक अनुभव हमारे हिस्से आए हैं क्या हम उसे अंतिम तौर पर गंवाने के मुहाने पर खड़े हैं। देह और संदेह की दुनिया जब हमारे शयनकक्ष तक पहुंच गई है तो मानना पड़ेगा कि मामला आभास से आगे बढ़ चुका है।
कोरोनाकाल के कुछ अध्ययनों में यह बात आई भी है कि संवेदना और सौहार्द के दरकार के दौर में हम लगातार हिंसक होते जा रहे हैं। यह हिंसा मन और शरीर से आगे भाषा तक में जाहिर हो रही है। आगे हमारे लिए यह चुनौती होगी कि इस हश्र के पीछे की तकनीकी ताकत को लेकर हम नए सिरे से विचारशील होंगे या फिर उन स्फीतियों को सीधे-सीधे स्वीकार कर लेंगे, जिनके शिकार आज हम तेजी से हो रहे हैं।
खबरों की लीक और तकनीक
बात तकनीक और इस कारण आए बदलावों की हो और मीडिया की चर्चा न हो, ऐसा संभव नहीं है। इंटरनेट के कारण खबरों की एक नई दुनिया आज हमारे सामने है। इस दुनिया ने खबरों के अर्थ और आशय को ही सिर्फ नहीं बदला है, बल्कि इसके साथ ही बदल गई है इसे देखने-समझने की हमारी पूरी दृष्टि। दरअसल, बीते तीन दशकों में तकनीक और विकास की ग्लोबल दरकार ने पूरी दुनिया को एक छतरी के नीचे लाकर खड़ा कर दिया है। जाहिर है कि मीडिया भी इसी छतरी के नीचे है और वह मिशन से आगे आज पूरी तरह से मुनाफे का एक कुबेरी उपक्रम है।
यह बदलाव बड़ा और अहम इस लिहाज से भी है कि अपने यहां तो बच्चे छठी कक्षा से सुलेख लिखने लगते हैं कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। यह भी कि मीडिया को लेकर जो हमारी समझ है, वह स्वाधीनता के साथ आए उन मूल्यों और परंपराओं के कारण है, जिसने हमारी लोकतांत्रिक चेतना को आकार दिया है। यों भी कह सकते हैं कि मीडिया को लेकर भारतीय समझ और मान्यता नौतिक परंपराओं पर आधारित है। यह वही परंपरा है जिसका हिस्सा तारीखी तौर पर महात्मा गांधी भी रहे हैं।
उन्होंने अपने सत्याग्रह के प्रयोग में प्रेस को भी एक अहिंसक औजार की तरह इस्तेमाल किया। पर आज तो हम ‘पोस्ट ट्रूथ’ के दौर में हैं। यानी खबरों का सच ‘सत्येतर’ हो चुका है। मीडिया की दुनिया में आई यह चारित्रिक स्फीति लोकतंत्र के बुनियादी सरोकारों पर एक बड़ा सवाल है और यह प्रश्न हमारे समय की सबसे बड़ी चिंता में शामिल है।
50 लाख से ज्यादा वेब ठिकाने
आज दुनिया में जिन बड़ी कंपनियों का बोलबाला है इंटरनेट के बिना उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। गूगल, अमेजॉन, फेसबुक, नेटफ्लिक्स, पेटीएम जैसी सैकड़ों कंपनियों का पूरा कारोबार ही इंटरनेट पर खड़ा है। भारत में इंटरनेट पर नजर डालें तो 2005 तक देश में 6500 रजिस्टर्ड वेबसाइट थीं। आज कुल रजिस्टर्ड वेबसाइट की संख्या 50 लाख से ज्यादा हैं। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो सब कुछ सपने जैसा लगता है। 2005 तक भारत में सिर्फ 6500 रजिस्टर्ड वेबसाइट थीं। जाहिर है कि बीते डेढ़ दशक में हमने और किसी क्षेत्र में कुलांचे भरे हों या नहीं हो पर इंटरनेट इस्तेमाल और इसके प्रसार के लिहाज से हम काफी आगे रहे हैं।