देश के जिन राज्यों में हिन्दुओं की आबादी कम है, वहां पर सम्बंधित राज्य सरकारें उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दे सकतीं हैं। शीर्ष अदालत में दायर एक हलफनामे में केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने कहा कि राज्य सरकारें राज्य के भीतर एक धार्मिक या भाषाई समुदाय को ‘अल्पसंख्यक समुदाय’ घोषित कर सकती हैं। काफी समय से लोग इस मुद्दे पर केंद्र सरकार का रुख जानना चाहतें थें।
बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय द्वारा 2020 में याचिका दायर की गई थी जिसपर केंद्र ने जवाब दिया है। अश्विनी उपाध्याय ने याचिका में कहा था कि 2011 की जनगणना के अनुसार लक्षद्वीप, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदू अल्पसंख्यक हैं और इन राज्यों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2002 के टीएमए पई के फैसले में निर्धारित सिद्धांत के अनुसार अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए।
टीएमए पाई मामले मे सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के लिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद 30 के प्रयोजनों के लिए धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को राज्य के अनुसार माना जाना चाहिए। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 की धारा 2 (C) के तहत केंद्र ने 1993 में पांच समुदायों (मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई) को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया था।
अश्विनी उपाध्याय ने 2017 में सबसे पहले अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए उचित दिशा-निर्देशों के लिए शीर्ष अदालत का रुख किया था ताकि कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में घोषित किया जाए, जहां उनकी संख्या बहुसंख्यक समुदाय से कम थी।1993 की केंद्रीय अधिसूचना को रद्द करने की मांग करते हुए अश्विनी उपाध्याय ने बताया कि जैन समुदाय को भी 2014 में अल्पसंख्यकों की सूची में जोड़ा गया था, लेकिन कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हिन्दू अल्पसंख्यक होने के बावजूद सूचि में शामिल नहीं हैं।
केंद्र ने अपने हलफनामे में कहा कि याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यहूदी, बहावाद और हिंदू धर्म के अनुयायी जो लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में असली अल्पसंख्यक हैं, वो अपनी पसंद के शिक्षण संस्थानों का प्रशासन स्थापित नहीं कर सकते, यह सही नहीं है। क्योंकि समबन्धित राज्य के नियमों के अनुसार संस्थानों को अल्पसंख्यक संस्थान होने के रूप में प्रमाणित कर सकते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 29 (जो अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण से संबंधित है) के अनुसार भारत के क्षेत्र या उसके किसी भी हिस्से में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी एक अलग भाषा, लिपि या संस्कृति रखने का अधिकार है। किसी भी नागरिक को केवल धर्म, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर राज्य द्वारा संचालित या राज्य निधि से सहायता प्राप्त करने वाले किसी भी शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता।