हकीकत से मुंह मोड़ने का हुनर राजनीतिकों से बेहतर कोई नहीं रखता। बहिनजी को ही लीजिए। पिछले साल मार्च में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद से बसपा सुप्रीमो मायावती सियासी पटल से नदारद थीं। विधानसभा चुनाव भी मन से नहीं लड़ा था। इसी बुधवार को लखनऊ में अचानक मीडिया से रूबरू हुईं। फरमाया कि उनके लिए ‘इंडिया’ और राजग दोनों ही गठबंधन एक जैसे हैं। लिहाजा अगला लोकसभा चुनाव वे अकेले लड़ेंगी। वजह भी अपने हिसाब से बता दी कि गठबंधन से बसपा को कभी फायदा नहीं हुआ। अलबत्ता दूसरे दलों को जरूर फायदा हो गया। उदाहरण 2019 के लोकसभा चुनाव का दिया।
2014 के चुनाव में BSP अकेले मैदान में थी, लेकिन एक भी सीट नहीं पाई थी
बताया कि सपा से गठबंधन के बावजूद पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। अच्छा होता कि बहिनजी 2014 को भी याद रखती। जब बसपा ने लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा था, खाता तक नहीं खुल पाया था बसपा का। ऐसा दो दशक में पहली बार हुआ था कि लोकसभा में बसपा का एक भी नुमाइंदा चुनकर नहीं पहुंचा। सपा से तालमेल किया तो 2019 में दस सीटें जीत गई बसपा। शून्य से दस के सफर को घाटे का सौदा बहिनजी ही कह सकती हैं। इसके उलट सपा को जरूर कोई फायदा नहीं मिला। उसके 2014 में भी पांच सांसद चुने गए थे और 2019 में भी आंकड़ा इतना ही रहा।
2022 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी अकेली लड़ी और एक ही सीट पाई
ताजा उदाहरण तो 2022 के विधानसभा चुनाव का है। जिसे बसपा ने अकेले लड़ा था। बस एक सीट आई उसके खाते में। वोट भी 20 फीसद से घटकर 13 फीसद से कम रह गए। मायावती भूल रही हैं कि 1989 में पहली बार विधानसभा और लोकसभा में खाता खुला था बसपा का। राम लहर के कारण 1991 में सूपड़ा साफ हो गया। दोनों बार बसपा अकेले लड़ी थी। गनीमत रही कि 1991 में ही कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लिया। तभी वे इटावा से हुए लोकसभा उपचुनाव को जीत पाए। इसी दोस्ती ने 1993 में भाजपा के मंदिर मुद्दे की हवा निकाल दी। बसपा को पहली बार सपा से गठबंधन के चलते उत्तर प्रदेश में 67 सीटों पर सफलता तो मिली ही, सपा-बसपा की साझा सरकार भी बनी। मायावती को अगर 1995 में भाजपा ने बाहर से समर्थन देकर मुख्यमंत्री नहीं बनाया होता तो कौन कह सकता है कि वे देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री बन पाती।
आहत अनुशासन
अनुशासन का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा की पोल मध्यप्रदेश में खुल गई है। पार्टी की गुटबाजी इस समय चरम पर है। कई कद्दावर नेता पहले ही भाजपा छोड़ कांग्रेस में जा चुके हैं। अमित शाह भोपाल गए थे तो कहा कि पार्टी किसी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करके चुनाव नहीं लड़ेगी। शिवराज चौहान और उनके समर्थकों के चेहरे तभी से लटके हुए हैं। ऊपर से पार्टी आलाकमान जिस तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया को अहमियत दे रहा है, उससे भी पुराने वफादार और संघी अतीत वाले भाजपाई नाखुश हैं। आलाकमान ने पिछले हफ्ते सूबे की 39 सीटों के उम्मीदवारों की सूची जारी की थी।
मकसद यह जताना था कि पार्टी को इसकी कोई परवाह नहीं कि कांग्रेस किसे उम्मीदवार बनाएगी। ये वही सीटें हैं जहां पिछले चुनाव में पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा था। असंतोष के पहले शिकार हुए केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर। सूबे की चुनाव प्रबंध समिति के मुखिया तोमर ही बनाए गए हैं। राजेंद्र वर्मा के समर्थकों ने उनका पार्टी दफ्तर में ही घेराव किया। कार के आगे लेट गए। वर्मा की जगह राजेश सोनकर को टिकट देने पर गुस्सा जताया। अगुआई देवास के जिला भाजपा उपाध्यक्ष जितेंद्र सिंह कर रहे थे। उन्होंने आरोप लगाया कि सिंधिया समर्थकों को टिकट देने के चक्कर में पार्टी के पुराने और वफादार नेताओं की अनदेखी की जा रही है। अपना टिकट कटने से ममता मीणा लाल पीली हुई और गुरुवार को पार्टी दफ्तर जाकर कहा कि मैं शेरनी हूं, पर घायल हूं। वे अपने विधानसभा क्षेत्र में बाहरी उम्मीदवार को सहन नहीं करेंगी। पार्टी में विरोध प्रदर्शन यों 17 अगस्त को सूची जारी होते ही शुरू हो गए थे।
नई किताब पर चर्चा में पुराने जख्म
कांग्रेस की नई कार्यसमिति उस पुराने ‘चिंतन’ को लेकर सवालों में है ही जो उदयपुर में उठाए गए थे। खास कर पचास साल से कम उम्र के लोगों को शामिल करने की बात को लेकर। हालांकि, पार्टी को ऐसे किसी वादे से पहले यह सोचना चाहिए कि पार्टी संगठन में शामिल करने के लिए रातोंरात लोग तैयार नहीं हो जाते हैं। लेकिन, जी-23 से लेकर शशि थरूर की मौजूदगी बता रही है कि खरगे ज्यादातर लोगों को साथ लेकर चलने में भरोसा कर रहे है। वहीं अब मणिशंकर अय्यर ने कांग्रेस पर हल्ला बोल दिया है। पार्टी के किसी पुराने नेता का पार्टी से नाराजगी जाहिर करने का सबसे बेहतर तरीका अपना संस्मरण लाना ही होता है।
मणिशंकर अय्यर की किताब ‘मेमोयर्स आफ अ मैवरिक-द फर्स्ट फिफ्टी ईयर्स (1941-1991)’ बाजार में आ गई है। मणिशंकर अय्यर ने अपनी खास व्यंग्यात्मक शैली में कांग्रेस के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को ‘भाजपा का पहला मुख्यमंत्री’ बता दिया है। अब किताब आई है तो कुछ दिनों तक मणिशंकर अय्यर चर्चा में बने रहेंगे। जिस तरह से उन्होंने चर्चा के शुरू में ही कांग्रेस के सांप्रदायिक चेहरे पर सवाल उठाया है, उससे लगता है आगे भी कुछ ऐसे विस्फोटक बयान आएंगे।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)