योगेश कुमार गोयल
प्राय: देखा जाता है कि लोग फसलों की सिंचाई के लिए अपने खेत में बोरिंग कराते हैं, पर उसके सफल न होने पर उसके गड्ढे को बंद करने के बजाय खुला छोड़ देते हैं, जो अक्सर दर्दनाक हादसों का कारण बनते रहे हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर निरंतर सामने आते हादसों के बावजूद खुले बोरवेलों में मासूम जानें कब त इसी तरह दम तोड़ती रहेंगी!
देश के विभिन्न हिस्सों में नलकूप के लिए खोदे गए गड्ढे यानी ‘बोरवेल’ मासूम बच्चों के लिए लगातार काल बन रहे हैं। दो हफ्ता पहले मध्यप्रदेश में विदिशा के कजरी बरखेड़ा गांव में बोरवेल में गिरी ढाई साल की एक बच्ची ने भी दम तोड़ दिया। पुनर्वास दल उसे बोरवेल से निकाल कर अस्पताल ले गया था, मगर वहां उसे मृत घोषित कर दिया गया।
अपने घर के आंगन में खेल रही यह बच्ची उसी आंगन में खुदे बोरवेल के खुले गड्ढे में गिर गई थी। हालांकि प्रदेश सरकार पहले ही कड़ा रुख अख्तियार करते हुए खुले बोरवेलों को बंद कराने का निर्देश दे चुकी है, लेकिन जिस प्रकार ऐसे दर्दनाक हादसे बार-बार सामने आ रहे हैं, उससे सरकारी दावों की पोल खुल रही है। पिछले महीने गुजरात के जामनगर जिले में भी दो साल की एक बच्ची की गहरे बोरवेल में गिरकर मौत हो गई थी। ऐसी घटनाओं की लंबी सूची है।
बीते कुछ वर्षों में बोरवेल के ऐसे अनेक हादसे सामने आ चुके हैं, जिनमें कई मासूम दर्दनाक मौत की नींद सो चुके हैं। मगर विडंबना है कि ऐसे हादसों को रोकने के लिए समाज में कहीं कोई जागरूकता नजर नहीं आती। आश्चर्य की बात है कि न तो इन पर लगाम लगाने के लिए प्रशासन द्वारा कड़े कदम उठाने की कहीं कोई कारगर पहल होती दिखती है और न ही बोरवेल हादसों को लेकर समाज को जागरूक करने के प्रयास हो रहे हैं।
लगातार होते ऐसे हादसों से लोग स्वयं भी सबक सीखने को तैयार नहीं दिखते। हर बार ऐसी हृदयविदारक घटनाओं से सबक सीखने की बातें तो दोहराई जाती हैं, लेकिन कुछ ही दिनों बाद जब ऐसी ही घटना फिर सामने आती है, तो पता चलता है कि न आमजन ने और न ही प्रशासन ने ऐसी घटनाओं से कोई सबक सीखा।
प्राय: देखा जाता है कि लोग फसलों की सिंचाई के लिए अपने खेत में बोरिंग कराते हैं, पर उसके सफल न होने पर उसके गड्ढे को बंद करने के बजाय खुला छोड़ देते हैं, जो अक्सर दर्दनाक हादसों का कारण बनते रहे हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर निरंतर सामने आते बोरवेल हादसों के बावजूद खुले बोरवेलों में मासूम जानें कब तब इसी तरह दम तोड़ती रहेंगी?
देश में प्रतिवर्ष औसतन पचास बच्चे खुले बोरवेल में गिर जाते हैं। ऐसे हादसों में न केवल अबोध मासूमों की जान जाती, बल्कि बचाव अभियानों पर काफी धन, समय और श्रम भी नष्ट होता है। प्राय: होता यही है कि तेजी से गिरते भू-जल स्तर के कारण नलकूपों को चालू रखने के लिए कई बार उन्हें एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित करना पड़ता है और पानी कम होने पर जिस जगह से नलकूप हटाया जाता है, वहां लापरवाही के चलते बोरवेल खुला छोड़ दिया जाता है।
कहीं बोरिंग के लिए खोदे गए गड्ढों या सूख चुके कुओं को लापरवाही और पैसा बचाने के लालच में बोरी, पालीथीन या लकड़ी के फट्टों से ढंक दिया जाता है, तो कहीं इन्हें पूरी तरह से खुला छोड़ दिया जाता है। कुछ किसान बोरवेल को इस कारण भी खुला छोड़ देते हैं कि अगले साल उन्हें इसमें पानी आने की उम्मीद रहती है। खुले बोरवेल में अनजाने में ही कई बार ऐसी अप्रिय घटना घट जाती हैं, जो किसी परिवार को जिंदगी भर का असहनीय दर्द दे जाती हैं।
निरंतर होते ऐसे दर्दनाक हादसों को लेकर सबसे बड़ा सवाल यही है कि मासूम बच्चों की समाधि बनते इन बोरवेल हादसों के प्रति समाज और पूरा तंत्र आखिर कब गंभीर होगा? एनडीआरएफ यानी राष्ट्रीय आपदा मोचन बल की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में कई बच्चे बोरवेल में गिर चुके हैं, लेकिन उन्हें बचाने में करीब सत्तर फीसद बचाव अभियान नाकाम रहे हैं।
एनडीआरएफ के अनुसार बोरवेल उपयोग के मामले में भारत पूरी दुनिया में शीर्ष स्थान पर है और इससे जुड़े अधिसंख्य हादसों में छोटे बच्चे ही शिकार बनते हैं, जिनमें से महज तीस फीसद बच्चों के सुरक्षित बाहर निकाले जाने की संभावना होती है। बोरवेल में गिरने के करीब बानवे प्रतिशत मामलों में दस वर्ष से कम आयु के बच्चे होते हैं।
एनडीआरएफ की एक रिपोर्ट के अनुसार बोरवेल के पानी से शहरी और औद्योगिक जरूरतों की करीब पचास फीसद पूर्ति होती है, इसके अलावा बोरवेल के पानी से कृषि संबंधी करीब पचपन फीसद जरूरतें पूरी होती हैं। ग्रामीण क्षेत्र तो पानी के लिए अस्सी फीसद से भी ज्यादा बोरवेल पर ही निर्भर हैं। भूगर्भ जल विभाग के अनुमान के अनुसार देश भर में करीब 2.7 करोड़ बोरवेल हैं, लेकिन सक्रिय बोरवेल की संख्या, अनुपयोगी बोरवेल की संख्या और उनके मालिकों का राष्ट्रीय स्तर पर कोई आंकड़ा नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुसार बोरवेल की खुदाई से पहले कलेक्टर या ग्राम पंचायत को लिखित सूचना देनी होगी। खुदाई करने वाली सरकारी, अर्द्धसरकारी संस्था या ठेकेदार का पंजीयन होना चाहिए। बोरवेल खुदवाने के कम से कम पंद्रह दिन पहले डीएम, भूजल विभाग, स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम को सूचना देना अनिवार्य है।
बोरवेल की खुदाई वाले स्थान पर चेतावनी लगाई और खुदाई के दौरान आसपास कंटीले तारों की बाड़बंदी की जानी चाहिए तथा पाइप के चारों ओर सीमेंट या कंक्रीट का 0.3 मीटर ऊंचा प्लेटफार्म बनाना चाहिए। बोरवेल के मुहाने पर स्टील की प्लेट वेल्ड की जाएगी या उसे नट-बोल्ट से अच्छी तरह कसना होगा। बोरवेल की खुदाई पूरी होने के बाद खोदे गए गड्ढे और पानी वाले मार्ग को समतल किया जाएगा।
खुदाई अधूरी छोड़ने पर मिट्टी, रेत, बजरी, बोल्डर से बोरवेल को जमीन की सतह तक भरा जाना चाहिए। चिंता की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणियों के बावजूद प्रशासन ऐसे हादसों को लेकर गंभीर नहीं है। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों, कानूनी संशोधनों और तमाम सख्ती के बावजूद ऐसे हादसे रुक नहीं रहे। अदालत के इन दिशा-निर्देशों का पालन कहीं होता नहीं दिख रहा और न ही नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई होती दिखती है।
बोरवेल खुदाई को लेकर अलग-अलग राज्यों के उच्च न्यायालयों के भी कई निर्देश हैं। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी कलेक्टर की होगी, जो सुनिश्चित करेंगे कि केंद्रीय या राज्य की एजेंसी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों का सही तरीके से पालन हो। मगर इसका सही तरीके से पालन आज तक सुनिश्चित नहीं किया गया है।
हालांकि कोई भी बोरवेल हादसा होने के बाद प्रशासन द्वारा बोरवेल खुला छोड़ने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर सख्ती की बातें हर बार दोहराई जाती हैं। मगर ये बातें कोई अप्रिय घटना सामने आने पर उपजे लोगों के आक्रोश के शांत होने तक ही बरकरार रहती हैं। सरकारी या गैर-सरकारी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा बिना सुरक्षा मानकों का पालन किए गड्ढे खोदना और खुदाई के बाद उन्हें खुला छोड़ देने का सिलसिला जारी है।
अपवाद स्वरूप किसी बच्चे को ऐसे हादसे में बचाने में सफलता मिल भी जाती है तो ‘जिंदगी की जंग’ जीत लेने का जश्न मनाते हुए प्रशासन द्वारा बहादुरी के गीत गाए जाते हैं, अन्यथा ऐसे अधिकांश मामलों में मासूम बचपन मौत से हार जाता है। आए दिन होते ऐसे भयावह हादसों के बावजूद न तो आम आदमी जागरूक हो पाया है, न ही प्रशासन को इस ओर ध्यान देने की फुर्सत है।