निस्संदेह देश ने आर्थिक तरक्की की है। यह देखते ही देखते विश्व अर्थव्यवस्था के पांचवें पायदान पर आ गया और अब अपनी मौद्रिक नीति की सफलता, कीमतों के नियंत्रण और बाजार में बढ़ती मांग के कारण विश्व भर की मंदी को छका रहा है। बेशक, पिछले वर्षों में भारत ने न केवल अपनी आर्थिक गरिमा को बढ़ाया, बल्कि सामाजिक और कूटनीतिक स्तर पर भी तरक्की की अभूतपूर्व मंजिलें तय की हैं। दुनिया की बड़ी ताकतें भी अपनी जटिल समस्याओं में भारत की सलाह ले रही हैं। भारत की सलाह तो एक ही है कि हिंसा और युद्ध से मानवता को विदीर्ण न करें और कतार में खड़े आखिरी आदमी या आखिरी देश की परवाह करते हुए विश्व के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी यथोचित स्थान दें।

जनता से वादा- अगर शिलान्यास होंगे तो परियोजनाएं पूरी भी होंगी

देश के आर्थिक नीतिकार कहते हैं कि वे दिन गए जब योजनाओं के शिलान्यास हो जाते थे और फिर उन पर समय की धूल पड़ती रहती थी। अब देश की जनता से वादा है कि अगर शिलान्यास होंगे तो परियोजनाएं पूरी भी होंगी। हर क्षेत्र में हजारों करोड़ रुपए की विकास परियोजनाएं घोषित होती हैं और देश के हर क्षेत्र में आधुनिकतम प्रगति के आसार पैदा करने की कोशिश की जाती है। कहा जा रहा है कि देश की जीडीपी बढ़ गई। महंगाई पर नियंत्रण हो गया और लोगों को बेरोजगार भटकने के स्थान पर अब उत्सव-त्योहार की तरह हजारों नौकरियों के नियुक्ति पत्र बांटे जाते हैं। मगर वास्तविकता के धरातल पर दिखता है कि आर्थिक प्रगति के रणनीतिकार विकसित भारत के लिए दौड़ तो लगा रहे हैं, लेकिन यह दौड़ ऊबड़-खाबड़ सड़क पर लगा रहे हैं। देश की सकल घरेलू आय बढ़ रही है।

भारी महंगाई के जमाने में भी महंगी वस्तुओं की मांग कम नहीं हो रही

यह भी कहा जा रहा है कि इस समय देश उच्च मध्यवर्गीय लोगों का देश कहलाने की दौड़ में लगा है। इसका साक्ष्य यह है कि भारी महंगाई के जमाने में भी, जबकि सरकार ने अपनी मौद्रिक नीति में उदारता को तिलांजलि देकर सख्त साख नीति अपना रखी है, फिर भी महंगी वस्तुओं की मांग कम नहीं हो रही। सबसे अधिक तो बड़ी कारों और महंगे मकानों की बिक्री हो रही है। निवेशकों के लिए ऋण महंगे हो गए, लेकिन उनकी किस्तें बढ़ने के बावजूद निवेशकों में ऋण की मांग कम नहीं हुई। आज भी घरेलू निवेशकों को भरोसा है अपने देश के आर्थिक प्रतिदान का, बाजारों में मांग स्तर के बने रहने का और भरोसा है उन गारंटियों का, जो प्रशासन उन्हें देता है। ऐसी सहज विश्वासी जनता जिस देश में हो, भला उसे आर्थिक विकास की दौड़ में कौन पछाड़ सकता है!

अंतरराष्ट्रीय सूचकांक बता रहे कि देश 8 फीसद की विकास दर पार कर गया

इसके बावजूद यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि क्या यह प्रगति और उसकी रोशनी हर घर तक पहुंची? संविधान में दिए गए गरीब और अमीर का भेद मिटाने, उच्च और निम्नवर्ग के जीवन स्तर में अंतर कम करने और देश के खुशहाली सूचकांक को उदासीनता के चक्रव्यूह से निकालने का लक्ष्य पूरा हुआ। अंतरराष्ट्रीय सूचकांक बता रहे हैं कि देश 8 फीसद की विकास दर को पार कर गया और उसे 7 फीसद की विकास दर आने वाले वर्षों में प्राप्त करते रहने का भरोसा होना चाहिए।

अगर यह भरोसा बना रहेगा तो वह दिन दूर नहीं, जब इस विकास की जागरण यात्रा एक सार्थक सत्य बनकर सामने आएगी। मगर तरक्की की यह राह फिसलन भरी न हो, इसके लिए केवल इतनी घोषणा काफी नहीं है कि हम देश में शीघ्र ही उच्च मध्यवर्गीय संस्कृति पैदा कर देंगे। कोविड से लेकर महामंदी तक के कठिन आर्थिक दिनों में दुनिया में जितने अरबपतियों की संख्या बढ़ी, उसमें भारत आगे है, मगर इसमें देश के असंख्य गरीबों का भला नहीं हुआ। आज भी उन्हें दिलासा यही है कि उन्हें मुफ्त अनाज उपलब्ध कराया जा रहा है।

इससे आगे बढ़ते हैं तो चिकित्सा की समस्या सामने आ जाती है। उसके लिए आयुष्मान योजना से लेकर नए-नए माडल पेश किए जाते हैं, मगर उसमें भी प्रारंभिक कठिनाइयां आज तक मुंह बाए खड़ी हैं। कठिनाइयां यह कि योजना बन गई, लेकिन निजी क्षेत्र कहता है कि हम योजना का पालन करते हुए मुफ्त उपचार बांट तो दें, लेकिन हमें भुगतान ही नहीं मिलता। किसान आज भी अपनी आय दोगुनी होने की उम्मीद लगाए बैठा है, लेकिन उसके रास्ते में अवरोध खड़े कर दिए जाते हैं। नई शिक्षा नीति घोषित हो गई है।

देश डिजिटल हो गया और अपने अच्छे-बुरे परिणामों के साथ इसका असर पूरे देश में नजर आने लगा, लेकिन क्यों महसूस होता है कि देश की अधिकतर आबादी, जो महंगाई से भयाक्रांत, भ्रष्टाचार से प्रताड़ित है, उसे पढ़ाने वाले अध्यापक कब सीखेंगे इस डिजिटल दुनिया के नए सच। कब बदलेंगे अपने पाठ्यक्रम या कि सच से कट कर उन्हें वही कला और विज्ञान संकायों की पढ़ाई करवा दी जाएगी, जिसका बदलती दुनिया में बहुत मोल नहीं है।

यह ठीक है कि आम आदमी का विश्वास जीतने के लिए उसकी आस्था का ध्यान रख लिया गया है। देश में धार्मिक पर्यटन के विकास में तेजी आई है। देखते ही देखते देश का सशक्त सेवा क्षेत्र, पर्यटन क्षेत्र पर निर्भर हो रहा है, लेकिन यह याद रखा जाए कि पर्यटन क्षेत्र का एक हिस्सा चिकित्सा क्षेत्र भी है। आज दुनिया भर के लोग भारत में आकर चिकित्सा सुविधाओं का लाभ उठाना चाहते हैं, लेकिन इन चिकित्सा सेवाओं में उतनी तरक्की नहीं, जितनी नकली दवाओं की खबरें देश की गरिमा को बिगाड़ देती हैं। देश को अगर विश्वगुरु बनना है, तो उसे अपनी सांस्कृतिक गरिमा, आदर्शों के लक्ष्य जिंदा रखने होंगे।

आज भौतिकवाद का जो प्रसार हो गया, उसमें लक्ष्यों की बात कोई नहीं करता, एक ‘शार्टकट’ संस्कृति पैदा हो गई है। परिवारवाद से लेकर ‘डबल क्रासिंग’ जिंदगी का एक हिस्सा बन गई। अब तो इसकी कोई आलोचना-प्रत्यालोचना भी नहीं करता। जब इस तरह की अपने या अपने परिवार के लिए भौतिक मूल्यों की अभिवृत्ति की दौड़ होगी, तो भला भारत विश्वगुरु बनेगा कैसे? हम चाहे कहते रहें कि हमने बहुत आर्थिक प्रगति कर ली, लेकिन यह अनुकंपा की संस्कृति क्यों देश की उद्यम और कर्मनीति पर हावी है?

देश का नौजवान आज भी उस आर्थिक जीवन की तलाश में मुल्क छोड़ पलायन क्यों कर रहा है? क्या तस्करी और अवैध धंधे उसे जीने का आसरा दे रहे हैं? बेशक भारत का भविष्य उज्ज्वल है। उसे देश के आर्थिक मसीहाओं ने चमकता हुआ बनाने का पूरा प्रयास किया है, लेकिन बीच में यह सत्य क्यों उभर आया कि शीर्षक अच्छा है, लेकिन सच झूठ लगता है और झूठ सच कर बन लोगों को उत्सव मनाने को प्रेरित कर देता है। कब इस उत्सव संस्कृति से छूटकर यह देश कर्म संस्कृति की ओर बढ़ेगा। तेजी से प्रगति करने वाले देश के सामने आज भी यह परेशान करने वाला सवाल खड़ा हो जाता है।