रेल दुर्घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं। 30 जुलाई को सुबह-सुबह झारखंड के चक्रधरपुर में मुंबई-हावड़ा मेल के अठारह डिब्बे पटरी से उतर गए। इसमें दो लोग मारे गए और करीब आठ लोग घायल हो गए। एक दिन पहले उसी जगह पर एक मालगाड़ी पटरी से उतर गई थी। इससे दस दिन पहले 20 जुलाई को गोंडा से गाजियाबाद जा रही एक मालगाड़ी के दस डिब्बे अमरोहा रेलवे स्टेशन के नजदीक पलट गए, जिनमें से दो टैंकरों में रसायन भरा था। 19 जुलाई को गुजरात में वलसाड और सूरत स्टेशन के बीच भी एक मालगाड़ी के पटरी से उतर गई थी। इससे पहले 18 जुलाई को उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में एक बड़ा रेल हादसा हुआ था, जब गोंडा-गोरखपुर रेलमार्ग पर चंडीगढ़ से असम जा रही चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस की करीब उन्नीस बोगियां पलट गर्इं। हादसे में चार लोगों की मौत हो गई और कई यात्री घायल हो गए।
वरिष्ठ रेलवे अधिकारियों की पांच सदस्यीय जांच टीम की शुरुआती जांच रपट में डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस ट्रेन हादसे के पीछे इंजीनियरिंग अनुभाग की लापरवाही उजागर हुई है। उसमें कहा गया है कि जिस स्थान पर ट्रेन बेपटरी हुई, वहां ट्रैक में चार दिन से ‘बकलिंग’ (गर्मी से पटरी में फैलाव होना) हो रही थी। वहां ट्रेन को तीस किलोमीटर प्रति घंटे की गति से चलाना था, लेकिन सूचना देर से दी गई, जिससे लोको पायलट को सतर्क होने का समय ही नहीं मिला। झटका लगने पर लोको पायलट ने इमरजेंसी ब्रेक लगाया, लेकिन उस समय ट्रेन की रफ्तार 86 किलोमीटर प्रति घंटा थी और ट्रेन 400 मीटर दूर जाकर रुकी, तब तक उन्नीस बोगियां पटरी से उतर चुकी थीं। इससे पहले 17 जून को एक मालगाड़ी से टकराने के बाद अगरतला से सियालदह जा रही कंचनजंघा एक्सप्रेस की कुछ बोगियों के पटरी से उतरने के कारण पायलट तथा सह-पायलट सहित करीब पंद्रह लोगों की मौत हो गई थी। ‘सिग्नल’ में खराबी और ‘मेमो’ में गड़बड़ी के कारण वह दुर्घटना हुई थी। लगातार हो रहे रेल हादसे गंभीर चिंता का विषय हैं।
पिछली लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने बताया कि 2014 से 2023 के दौरान हर वर्ष औसतन इकहत्तर रेल दुर्घटनाएं हुईं, जबकि 2004 से 2014 के बीच प्रतिवर्ष औसतन 171 रेल हादसे होते थे। 2014 से पहले के दस वर्षों की अवधि में हुई रेल दुर्घटनाओं के मुकाबले इन दस वर्षों में रेल हादसों की संख्या में कमी आई है। रेलवे की सुरक्षा पर हर साल औसतन 17801 करोड़ रुपए खर्च किए गए, जो 2014 से पहले की तुलना में ढाई गुना ज्यादा है। पटरियों के सुधार और मरम्मत पर वित्तवर्ष 2015 से 2023 के बीच प्रतिवर्ष औसतन 10201 करोड़ रुपए खर्च किए गए, जबकि वित्तवर्ष 2005 से 2014 के बीच हर साल औसतन 4702 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इसके बावजूद मौजूदा तस्वीर कम भयावह नहीं है, क्योंकि अब भी ऐसे हालात बने रहते हैं, जिनमें बालासोर और न्यू जलपाईगुड़ी जैसी हृदयविदारक रेल घटनाएं सामने आ जाती हैं।
पिछले पांच वर्षों में प्रतिवर्ष औसतन चौवालीस गंभीर रेल दुर्घटनाएं हुई हैं। भारतीय रेलवे के अनुसार, गंभीर रेल दुर्घटनाओं में वे घटनाएं शामिल हैं, जिनमें यात्रियों को गंभीर चोटें लगती हैं, रेल यातायात बाधित होता और रेलवे की संपत्ति को नुकसान पहुंचता है। केंद्र सरकार द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक मानवीय विफलताओं के कारण होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए मई 2023 तक 6427 स्टेशनों पर ‘सिग्नल’ और ‘प्वाइंट’ के केंद्रीकृत परिचालन वाली इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रानिक ‘इंटरलाकिंग’ प्रणाली की व्यवस्था की गई। इसके अलावा 11043 समपार फाटकों पर ‘इंटरलाकिंग’ का प्रबंध किया गया, लेकिन करीब एक वर्ष पहले बालासोर में तीन ट्रेनों के आपस में टकरा जाने का जो भयानक हादसा हुआ, उसमें शुरुआती तौर पर यांत्रिक गड़बड़ियों और मानवीय त्रुटियों को ही जिम्मेदार बताया गया था।
रेलवे सुरक्षा और यात्री सुरक्षा से जुड़े एक सवाल के जवाब में संसद में बताया गया था कि रेल हादसों की बड़ी वजह रेलवे स्टाफ की नाकामी, गाड़ियों, मशीनों की खराबी और तोड़-फोड़ थी। रेल दुर्घटनाओं पर लगाम न लग पाने का बहुत बड़ा कारण है रेल पटरियों की जर्जर हालत, जिन पर सरपट दौड़ती रेलें कब किस जगह बड़े हादसे की शिकार हो जाएं, कहना मुश्किल है। देशभर में लगभग सभी स्थानों पर पटरियां अपनी क्षमता से कई गुना ज्यादा बोझ झेल रही हैं। भारतीय रेलवे के करीब 1219 रेलखंडों में से करीब चालीस फीसद पर ट्रेनों का जरूरत से ज्यादा बोझ है। एक रपट के मुताबिक 247 रेलखंडों में से करीब 65 फीसद तो अपनी क्षमता से सौ फीसद से भी अधिक बोझ ढोने को मजबूर हैं और कुछ रेलखंडों में पटरियों की कुल क्षमता से 220 फीसद तक ज्यादा ट्रेनें चल रही हैं।
अमेरिका, रूस और चीन के बाद दुनिया का चौथा सबसे लंबा रेल संजाल भारतीय रेलवे ही है, जिसे भारत की ‘जीवनरेखा’ भी कहा जाता है। प्रतिदिन ढाई करोड़ से ज्यादा यात्री रेल में सफर करते हैं और 28 लाख टन से ज्यादा की माल ढुलाई होती है। 2016-17 के रेल बजट में तत्कालीन रेलमंत्री ने रेल दुर्घटनाएं रोकने के लिए ‘मिशन जीरो एक्सीडेंट’ नामक विशेष अभियान शुरू करने की घोषणा की थी, जिसके बाद त्वरित पटरी नवीकरण, अल्ट्रासोनिक रेल पहचान प्रणाली तथा प्राथमिकता के आधार पर मानवरहित रेलवे क्रासिंग खत्म करने जैसे विभिन्न सुरक्षा उपायों पर काम शुरू किया गया। इन कामों में अब तेजी लाने की जरूरत है। रेल मंत्रालय को उन मूल कारणों का भी निदान करना होगा, जिनके चलते ऐसे हादसे निरंतर होते रहे हैं।
ऐसा नहीं कि अन्य देशों में रेल दुर्घटनाएं नहीं होतीं, लेकिन हम जहां अभी तक बुलेट ट्रेन का सपना देख रहे हैं, वहीं जापान, चीन, फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी आदि देशों में तीन सौ किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से ट्रेनों का चलना आम बात है, लेकिन फिर भी वहां रेल दुर्घटनाओं की संख्या नगण्य होती है। हमारे यहां रेल दुर्घटनाओं का एक बड़ा कारण रखरखाव का अभाव तथा पुरानी तकनीकों का उपयोग है। रेल दुर्घटनाओं के कुछ प्रमुख कारणों में परिचालन स्टाफ की थकान और नजर का कमजोर होना भी माना गया है। रेल हादसों को देखते हुए रेलवे बुनियादी ढांचे की युद्धस्तर पर मरम्मत करने और नए तकनीकी उपकरणों का उपयोग करने के साथ-साथ ट्रेन चालकों के लिए नियमित प्रशिक्षण और सुरक्षा के बारे में जागरूकता बढ़ाने की अब सख्त जरूरत है। रेलवे सुरक्षा के मामले में नई नीतियों को अद्यतन करने की भी जरूरत है, ताकि ऐसे हादसों को रोका और जान-माल के नुकसान को न्यूनतम किया जा सके। टक्कररोधी ‘कवच’ के उत्पादन में भी अब तेजी लाने की जरूरत महसूस की जाने लगी है।
रेल दुर्घटनाओं पर लगाम न लग पाने का बहुत बड़ा कारण है रेल पटरियों की जर्जर हालत, जिन पर सरपट दौड़ती रेलें कब किस जगह बड़े हादसे की शिकार हो जाएं, कहना मुश्किल है। देशभर में लगभग सभी स्थानों पर पटरियां अपनी क्षमता से कई गुना ज्यादा बोझ झेल रही हैं। भारतीय रेलवे के करीब 1219 रेलखंडों में से करीब चालीस फीसद पर ट्रेनों का जरूरत से ज्यादा बोझ है। एक रपट के मुताबिक 247 रेलखंडों में से करीब 65 फीसद तो अपनी क्षमता से सौ फीसद से भी अधिक बोझ ढोने को मजबूर हैं और कुछ रेलखंडों में पटरियों की कुल क्षमता से 220 फीसद तक ज्यादा ट्रेनें चल रही हैं।