One Nation One Election: कुछ दिन से यह सोचने में पूरा देश लगा है कि आखिर ‘एक देश एक चुनाव’ क्या होता है और कैसे संभव होगा? फिर सरकार इसे किस तरह व्यवस्थित कराएगी? सच में बहुत गंभीर मुद्दा है कि इस विशाल भारत में एक साथ लोकसभा, विधानसभा तथा निकाय तक के चुनाव कैसे कराए जा सकते हैं? वैसे यह विषय बहुत गंभीर है तथा जिसके लिए सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता मे कमेटी भी बना दी है, जिसमें गृहमंत्री अमित शाह, राज्‍यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व चेयरमैन एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष सी. कश्‍यप, सीनियर एडवोकेट हरीश साल्‍वे और पूर्व चीफ विजिलेंस कमिश्‍नर संजय कोठारी सदस्‍य के रूप में शामिल हैं।

टीम नियमों और संविधान पर विचार करेगी

टीम के इन धुरंधरों को इस पर विचार करना है कि ऐसा करने के लिए नियमों और संविधान में कैसा और कितना संशोधन करना होगा। इसे समझने के लिए हमें स्वतंत्र भारत के इतिहास के लिए पीछे जाना होगा।

1950 में हुआ आईसीएस सुकुमार सेन का चयन

देश वर्ष 1947 में आजाद हुआ और उसके दो साल के बाद यहां एक चुनाव आयोग का गठन किया गया। उसके अगले ही महीने जन प्रतिनिधि कानून संसद में पारित कर दिया गया। इस कानून को पेश करते हुए सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने उम्मीद जताई कि साल 1951 के बसंत तक चुनाव करा लिए जाएंगे। अब इसके लिए जिम्मेदारी किसे सौंपी जाए, क्योंकि जिस व्यक्ति को चुनाव कराना था, वह उसके लिए दुर्लभ काम था, लेकिन 1950 में आईसीएस. सुकुमार सेन का चयन किया गया। आज भी देश के बहुत लोगों को सुकुमार सेन के संबंध में पर्याप्त जानकारी नहीं है।

तब 85 फीसदी मतदाता न तो पढ़ सकते थे और न लिख सकते थे

उस समय मतदाताओं की संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनकी उम्र 21 साल या उससे ऊपर थी और जिनमें से 85 प्रतिशत न तो पढ़ सकते थे, न लिख सकते थे। उनमें से हरेक की पहचान करनी थी, उनका नाम लिखना था और उन्हें ही पंजीकृत करना था। मतदाताओं का निबंधन तो महज पहला कदम था, क्योंकि समस्या यह थी कि अधिकांश अशिक्षित मतदाताओं के लिए पार्टी प्रतीक चिह्न मतदान-पत्र और मतपेटी किस तरह से बनाई जाए। इसके बाद मतदान केंद्र का भी चयन किया जाना था। साथ ही ईमानदार और सक्षम अधिकारी की भी नियुक्ति करनी थी।

पहली बार आम चुनाव और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे

इसके अतिरिक्त आम चुनाव के साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव होने थे। इस काम में सुकुमार सेन के साथ विभिन्न राज्यों में मुख्य चुनाव अधिकारी भी काम कर रहे थे। 15 अगस्त, 1947 को आजादी मिलने के बाद भारत सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि चुनाव प्रणाली का ढांचा कैसा हो? सुकुमार सेन भारत के पहले चुनाव आयुक्त थे, जिन्होंने 25 अक्टूबर, 1951 से लेकर फरवरी 1952 के बीच पहला आम चुनाव करवाया। उन्हीं की बदौलत 70 साल पहले भारत के नागरिक पहली बार अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर पाए।

सुकुमार सेन की ख्याति से प्रभावित होकर सूडान ने भी बुलाया था

उनकी इस ख्याति से प्रभावित होकर सूडान ने भी उन्हें अपने यहां चुनाव करवाने के लिए बुलाया था। कहा जाता है कि सुकुमार सेन की ही बदौलत भारत के दूसरे आम चुनाव में साढ़े चार करोड़ रुपये की बचत हो सकी। इनकी सेवाओं के लिए सन 1954 में उन्हे पद्म भूषण से सम्मानित किया गया । श्री सेन पश्चिम बंगाल राज्य से थे।

हालांकि, यह व्यवस्था 1967 तक जारी रही, लेकिन 1968 और 1969 में कुछ राज्य विधानसभाओं के समय से पहले विघटन होने के कारण एक साथ चुनाव की व्यवस्था बाधित हो गई। वर्ष 2014 से नरेन्द्र मोदी, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे, इसमें उन्होंने कहा था कि एक साथ चुनाव का वे समर्थन कर रहे हैं, क्योंकि इससे सार्वजनिक धन की बर्बादी कम होगी और विकास कार्य की क्रमिक निरंतरता सुनिश्चित होगी, जो अन्यथा मॉडल कोड के कारण बाधित हो जाती है। आचरण का नियम लागू होता है।

अगस्त 2018 में भारत के विधि आयोग ने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट जारी की। इसमें कहा गया है कि ऐसे में एक साथ चुनाव के लिए संविधान, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और विधानसभाओं की प्रक्रिया में संशोधन की आवश्यकता है। इसमें कहा गया है कि संविधान, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 और राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया में एक साथ चुनाव के लिए संशोधन की आवश्यकता होगी। आयोग ने यह भी कहा कि उसे कम से कम 50 प्रतिशत राज्य से अनुसमर्थन प्राप्त हो। हालांकि, एक साथ चुनाव के संबंध में आयोग ने कहा कि इससे सार्वजनिक धन की बचत होगी, व्यवस्थापन और सुरक्षा समेकित तनाव कम होगा, सरकारी संस्थाओं का समय पर गठन होगा और विकास क्षेत्र पर संस्थागत ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

अब जनता और विपक्ष यहां तक कि सत्तापक्ष के नेता यह जानना चाहते हैं कि भारत- जहां इतनी बड़ी आबादी है, इतने राज्य व केंद्र शासित राज्य हैं, यदि वहां की किसी राज्य की विधानसभा गिरती है, तो क्या उस राज्य को बिना सरकार के राम भरोसे छोड़ दिया जाएगा? उदाहरण देते हुए जनता सवाल करती है कि जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित राज्य बनाने से वहां की जनता को क्या लाभ मिला? क्योंकि, ये राज्य तो धारा-370 हटाए जाने के बावजूद अब तक राष्ट्रपति शासन के अधीन ही है और इतना समय गुजर जाने के बावजूद अब तक वहां सरकार गठित नहीं हो सकी है।

यह तो फिलहाल एक-दो राज्यों तक ही बात सीमित है, लेकिन यदि एक देश एक चुनाव का नियम लागू हो गया, तो कौन चाहेगा कि वह स्वतंत्र राज्य में निरंकुश होकर जीवन जिए। क्या यह किसी राज्य की जनता के लिए संभव है कि वह इस पर आपत्ति न उठाए और इस बात का विरोध न करे? उसकी जिंदगी जैसे जा रही है, उसी तरह चले और इसी गति से चले। फिर देश की आर्थिक स्थिति में मजबूती लाने के लिए क्या समुचित कार्य किए जाएं। वैसे, अब तो यह स्थिति बन गई है कि देश के किसी-न-किसी हिस्से में चुनाव होते ही रहते हैं।

देश की जनता को यह बात समझ में नहीं आ रही है। उन्हे यह बात समझ में इसलिए नहीं आती क्योंकि वह आज यहां कल वहां के चुनाव की गणना में ही अपना सारा समय जाया करती नजर आती है।

अभी ‘एक देश एक चुनाव’ के निमित्त जिनकी कमिटी बनाई गई है, उससे तो यही लगता है मानो भारतीय संविधान के निर्माणकाल में ड्राफ्टिंग कमेटी का जिस प्रकार गठन किया था, ठीक उसी प्रकार देश के इतने गंभीर मसले को महत्व देते हुए सरकार ने इसकी घोषणा की है। अब इन सारे प्रश्नों का उत्तर तलाश कर उसके निदान की बातों का उल्लेख करते हुए अपनी राय संसद के किसी सत्र में प्रश्नोत्तर के लिए रखा जाएगा। फिर संसद में सारे प्रश्नों की रायशुमारी करके देश के समक्ष कानून के रूप में लाया जाएगा।

वैसे, यह सोच बिल्कुल उचित है कि देश में हर महीने किसी-न-किसी राज्य में चुनाव कराए जा रहे हैं। देश की जनता उसी में सदैव उलझी रहती है। ऐसे में देश की राजनीति कैसी होगी? हर किसी का सारा ध्यान उसी पर केंद्रित हो जाता है कि देश के अमुक राज्य में चुनाव होने जा रहा है और यदि वहां अमुक पार्टी की सरकार बनती है, तो आगे क्या होगा और यदि वह पार्टी हार जाती है, तो फिर देश की स्थिति क्या बन जाएगी। दुर्भाग्य यह है कि हर व्यक्ति यहां तक कि बच्चा-बच्चा राजनीतिक विश्लेषक हो जाता है और आगे के लिए अपने भविष्य की चिंता करने लगता है।

जो भी हो, सरकार का यह यह सोचना कि ‘एक देश एक चुनाव’ कराए जाने चाहिए, उचित है। सवाल है कि आजादी के बाद जब कम संसाधनों के बावजूद पूरे देश में एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं, तो फिर अब क्यों नहीं? यह ठीक है कि प्रारंभिक काल में इसके लिए कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ जाए, लेकिन देशहित में इतना कष्ट उठाने के लिए देश का हर नागरिक कृत संकल्पित था, आज भी है और आगे भी रहेगा। चुनौतियां हमें बल देती हैं, मजबूती देती हैं।

Senior Journalist Nishikant Thakur | One Nation One Election |

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)