पिछले कुछ दिनों से देश के कई राज्यों में मानसून आफत बनकर बरस रहा है। भारी बारिश के कारण केरल के वायनाड में हुए भूस्खलन में तीन सौ से ज्यादा लोगों को जान गंवानी पड़ी, कई गांव तबाह हो गए। हिमाचल और उत्तराखंड में लगातार बादल फटने की घटनाओं से तबाही का मंजर देखा जा रहा है। विभिन्न राज्यों में कावेरी, कपिला सहित कई नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं और अनेक इलाके भीषण बाढ़ के कारण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। मौसम विभाग के अनुसार देश में इस वर्ष जुलाई महीने में औसत से नौ फीसद ज्यादा बारिश हुई। मौसम विभाग के मुताबिक, भारत के मुख्य मानसून क्षेत्र, जिसमें देश के अधिकांश वर्षा आधारित कृषि क्षेत्र शामिल हैं, में इस मौसम में सामान्य से अधिक वर्षा होने का अनुमान है। मौसम एजंसियों को उम्मीद है कि इस महीने ला-नीना की स्थिति बन जाएगी।

देश में 1 जून से 30 जुलाई तक सात राज्यों में सामान्य से अधिक बारिश हुई

हालांकि ऐसा नहीं कि सभी राज्यों में एक समान पानी बरस रहा है। उत्तर भारत के कुछ राज्यों में लोग कम बारिश के कारण उमस भरी गर्मी से बेहाल हैं। भारतीय मौसम विभाग (आइएमडी) के आंकड़ों के अनुसार देश में 1 जून से 30 जुलाई तक कुल सात राज्यों में सामान्य से बहुत अधिक बारिश दर्ज हुई, वहीं बारह राज्यों में सामान्य बारिश हुई और आठ राज्यों में सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई। मौसम विभाग के अनुसार इस बार पूर्वोत्तर भारत में सामान्य से कम, उत्तर-पश्चिम में सामान्य और देश के मध्य तथा दक्षिण प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में सामान्य से अधिक वर्षा होने की संभावना है।

केरल, हिमाचल, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश सहित कुछ राज्यों में भारी बारिश से जनजीवन अस्त-व्यस्त है, जहां बाढ़ और बारिश के कारण सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है। असम सहित पूर्वोत्तर इलाकों में बाढ़ का रौद्र रूप पिछले दिनों देखा जा चुका है। कई जगहों पर नदियां पूरे उफान पर हैं, तो कई स्थानों पर नदी किनारे बसे घर आदि जल-प्रलय में समा गए हैं। भारी बारिश के कारण कई इलाकों का संपर्क एक-दूसरे से कट गया है। एक ओर जहां पहाड़ों पर मानसूनी आफत बरस रही है, वहीं मैदानी इलाके उमस भरी गर्मी से परेशान हैं।

प्रकृति की मार यह है कि देश के कुछ इलाके अच्छी बारिश के लिए तरस रहे हैं

अब इसे प्रकृति की मार कहें या मानवीय करतूतों का दुष्परिणाम कि एक ओर जहां देश के कुछ इलाके अच्छी बारिश के लिए तरस रहे हैं, वहीं कुछ राज्य बारिश के कारण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। इसे मानसून की दगाबाजी कहें या पर्यावरण असंतुलन का दुष्परिणाम कि मानसून से होती तबाही की तीव्रता साल-दर-साल बढ़ रही है। मानसून का मिजाज इस कदर बदल रहा है कि कुछ राज्यों में जहां मानसून के दौरान महीने के अधिकांश दिन सूखे निकल जाते हैं, वहीं एक-दो दिन में ही इतना पानी बरस जाता है कि लोगों की मुसीबतें कई गुना बढ़ जाती हैं।

दरअसल, वर्षा की प्रकृति या स्वरूप में अब ऐसा बदलाव नजर आने लगा है कि बहुत कम समय में ही बहुत ज्यादा पानी बरस जा रहा है, जो प्राय: तबाही का कारण बनता है। मानसून के बदलते मिजाज के साथ-साथ बारिश से होती इस तबाही एक प्रमुख कारण यह भी है कि गांव हो या शहर, पहले हर कहीं बड़े-बड़े तालाब और गहरे-गहरे कुएं होते थे, जिनमें बारिश का पानी धीरे-धीरे अपने आप समा जाता था, जिससे भूजल स्तर भी बढ़ता था और बाढ़ जैसी स्थितियां भी निर्मित नहीं होती थीं।

विकास की अंधी दौड़ में तालाबों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतों ने ले ली है

बीते कुछ दशक में विकास की अंधी दौड़ में तालाबों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतों ने ले ली है। हमारी फितरत कुछ ऐसी हो गई है कि हम किसी भी छोटी-बड़ी आपदा के उत्पन्न होने की प्रबल आशंकाओं के बावजूद उससे निपटने की तैयारी नहीं करते। इसीलिए बदइंतजामी और प्रकृति के बदले मिजाज के कारण अब प्रतिवर्ष प्रचंड गर्मी के बाद बारिश रूपी राहत को देशभर में मानसूनी आफत में बदलते देर नहीं लगती।

वर्ष भर ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ का शोर तो बहुत सुनते हैं, लेकिन ऐसी योजनाएं सिरे कम ही चढ़ती हैं। इन्हीं नाकारा व्यवस्थाओं के चलते चंद घंटों की बारिश में ही दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, बंगलुरू जैसे बड़े-बड़े शहरों में भी प्राय: जल-प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। हर प्राकृतिक आपदा के समक्ष उससे बचाव की हमारी समस्त व्यवस्था ताश के पत्तों की भांति ढह जाती है। लगभग सभी राज्यों में प्रशासन के पास पर्याप्त बजट के बावजूद हर साल छोटे-बड़े नालों की तक की सफाई नहीं हो पाती है, जिसके चलते थोड़ी सी बारिश में ही नाले उफनने लगते हैं। ऐसे में गंभीर सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर मानसून की बारिश अपना व्यवहार क्यों बदल रही है? अतिवृष्टि और बाढ़ की स्थिति के लिए जलवायु परिवर्तन के अलावा विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों में अवैध खनन आदि प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं, जिससे मानसून प्रभावित होने के साथ-साथ भू-क्षरण और नदियों में कटाव की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते तबाही के मामले बढ़ रहे हैं।

भारी बारिश और बाढ़ अब केवल भारत की समस्या नहीं है, दुनिया भर में इससे भारी तबाही हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण अब अमेरिका, चीन, जर्मनी जैसे संपन्न देश भी ऐसी कुदरती आफतों के सामने अकसर बौने नजर आते हैं। मौसमी परिवर्तन पर ‘नेचर कम्युनिकेशन’ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के एक हिस्से में जहां सूखे का संकट गहराने की आशंका है, वहीं देश के बड़े हिस्से को अगले तीस वर्षों में भारी बारिश का सामना करना पड़ सकता है। अध्ययन में उत्तर भारत में सूखे का संकट गहराने और वर्ष 2050 तक देश के कई हिस्सों में 15 से 30 फीसद ज्यादा बारिश होने की संभावना जताई गई है। इन अप्रत्याशित बदलावों पर चिंता जताते हुए शोधकर्ताओं ने वर्ष 2100 तक देश के बड़े हिस्से में 30 फीसद ज्यादा बारिश का अनुमान व्यक्त किया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि उत्तर भारत की ही भांति दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया में भी आगामी 30 वर्षों में सूखे का संकट गहरा सकता है।

‘पाट्सडैम इंस्टीट्यूट फार क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च’ के एक अध्ययन में भी बताया गया है कि भारतीय मानसून की चाल को जलवायु परिवर्तन और ज्यादा गड़बड़ बना रहा है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार भारत के कई हिस्सों में अत्यधिक बारिश ने जो तबाही मचा रखी है, वह वैश्विक तापमान वृद्धि का ही दुष्परिणाम है। जलवायु परिवर्तन से मौसमी घटनाएं बढ़ रही हैं और मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के तापमान में प्रत्येक डिग्री सेल्सियस वृद्धि से मानसूनी वर्षा में करीब पांच फीसद बढ़ोतरी हो रही है। बादल फटने और आकाशीय बिजली गिरने की घटनाओं में होती बढ़ोतरी को भी जलवायु परिवर्तन से ही जोड़कर देखा जा रहा है।