आजकल युद्ध केवल हथियारों से नहीं, व्यापारिक घात-प्रत्याघात से भी लड़ा जाता है। मगर कुछ वर्षों में देखते ही देखते युद्ध के तेवर बदल गए हैं। पिछले तीन वर्षों से दुनिया रूस-यूक्रेन तथा इजराइल-हमास के बीच विध्वंसक युद्ध देख रही है। अब संवाद की गुंजाइश निकाल कर शांति कैसे कायम की जाए, यह सोचने की बात है। जबकि यह लड़ाई विस्तृत होकर व्यापार की दुनिया तक चली गई है। यह चरम पर तब आई, जब डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में सत्ता संभाली। ट्रंप व्यापारी हैं और मस्क का उन्हें सहयोग प्राप्त है। उनका पूरा चिंतन अमेरिकी हितों के लिए है और वह ‘जैसे को तैसा’ नीति लेकर सामने आए हैं। ‘जैसे को तैसा’ नीति व्यापारिक शुल्कों में पहली बार देखी जा रही है। वसुधैव कुटुंबकम और वैश्वीकरण के आदर्शों की धज्जियां उड़ें तो उड़ें। दुनिया के किसी हिस्से में भी पिछड़ापन, गरीबी और भूख सबकी चिंता का विषय है। मगर अब अमेरिका के लिए नहीं है।
अमेरिका ने घोषणा की है कि हमने इस व्यापार में पिछड़े देशों का कल्याण करते हुए, उनकी सेहत और भूख की चिंता करते हुए बहुत कुछ खोया है, अब हम व्यापार बराबरी के धरातल पर करेंगे। ‘एक हाथ दे और दूसरे हाथ ले’ की नीति का पालन करेंगे। तब ऐसे में विश्व चिंतन पर स्व-चिंतन हावी होना ही था। डोनाल्ड ट्रंप ने शुल्क नीति की घोषणा की और दुनिया के साठ देशों को अपने दायरे में ले लिया। उनका कहना था कि ऐसे व्यापार में कोई औचित्य नहीं, जहां दूसरा देश अपनी गरीबी और पिछड़ेपन के नाम पर आपसे अधिक राजस्व प्राप्त कर ले और अपनी बारी आने पर अधिक से अधिक रियायतें और छूट की बात करे। अमेरिका को दुनिया के अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अपने डालर की साख भी बचानी है। इसलिए अमेरिका ने एशिया या तीसरी दुनिया के देशों को चेतावनी दे दी कि अगर डालर की जगह कोई और वैकल्पिक मुद्रा व्यापार का माध्यम बनेगी, तो उन देशों पर सौ फीसद अतिरिक्त कर लगा कर उसके विदेशी व्यापार को लड़खड़ाहट दे दी जाएगी।
निस्संदेह अमेरिका दुनिया में विश्व व्यापार की धुरी है। जिस चीन के साथ उसकी नाराजगी है, उसके साथ कुल व्यापार का कम से कम पंद्रह फीसद होता है। उसकी सबसे पहली गाज चीन पर गिरी। कोई नहीं बचा, न कनाडा, न यूरोपीय संघ के देश और न ही भारत, जिसे ट्रंप ने अपना पुराना मित्र कहा था। हमारी आयात आधारित व्यवस्था ऐसे शुल्क युद्ध में किस प्रकार लड़खड़ा जाएगी, इसका नजारा पिछले दिनों देखा गया जब शेयर बाजार में उठा-पटक होने लगी। हालांकि अमेरिका ने अपनी शुल्क नीति को नब्बे दिनों के लिए टाल दिया, तो शेयर बाजार में भी जान आने लगी।
मगर बात यहीं पर खत्म नहीं हो जाती। अमेरिका ने अपनी शुल्क दरों को नब्बे दिनों के लिए स्थगित कर दिया है, इसे समाप्त नहीं किया है। उसका नया बयान तो यह है कि दवा और सेमीकंडक्टर क्षेत्र में भी शुल्क वृद्धि की जाएगी। अमेरिका चरणबद्ध तरीके से शुल्क बढ़ा रहा है।
कोई भी क्षेत्र नहीं बचेगा। कुछ देशों, जिन्होंने इस संग्राम में अपने शुल्क में वृद्धि कर मुकाबला करने का प्रयास किया, अमेरिका उनके प्रति सहृदय नहीं है, लेकिन भारत ने शुरू से ही अपनी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, बल्कि व्यापारिक संवाद और समझौतों के बाद किसी द्विपक्षीय निर्णय पर पहुंचने की कोशिश कर रहा है। अब भारत में अर्थनीति के जानकार कह रहे हैं कि चूंकि यहां घरेलू बाजार की प्रधानता है और घरेलू निवेशक भी बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाते हैं, इसलिए अमेरिका के इस शुल्क बोझ से भारत बच निकलेगा। यह भी कहा जा रहा है कि भारत ने अमेरिका से सबसे पहले व्यापार वार्ता शुरू कर ली थी, इसलिए हो सकता है कि द्विपक्षीय व्यापार समझौता हो जाए। अगर समझौता हो जाता है, तो भारत आयात और निर्यात पर शुल्क संग्राम से निकल जाएगा। तो क्या इस प्रकार भारत द्विपक्षीय व्यापार करते हुए तनाव मुक्त हो पाएगा? शायद नहीं।
हर देश की उत्पादकता, वैज्ञानिक प्रगति और लागत स्थिति अलग-अलग होती है। अमेरिका भारत से शोध, अनुसंधान और आविष्कार के मामले में कहीं आगे है। वहां डिजिटल और रोबोट को अपनाए वर्षों हो गए। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के मुकाबले अमेरिका के निवेश अपनी उत्पादक वस्तुओं को कम लागत और बेहतर गुणवत्ता प्रदान कर सकते हैं। भारत का बाजार तो आयात के मामले में लोचदार है, उसे अमेरिका से माल खरीदना ही पड़ेगा। मगर ऐसा न हो कि अमेरिका को देखते ही देखते भारत की मंडियों पर कब्जा करने का मौका मिल जाए और भारतीय उत्पादक अधिक लागत एवं उत्पादन व्यवस्था के पिछड़ेपन के कारण मुकाबले से बाहर हो जाएं। ऐसी परिस्थिति में एक ही रास्ता रह जाता है, जिसका सुझाव बहुत पहले प्रधानमंत्री ने दिया था, ‘वोकल फार लोकल’ यानी देश की अर्थव्यवस्था को हम आत्मनिर्भर बनाएं।
अब नई स्थिति में सच्चाई के नए धरातल को स्वीकार करना होगा। यानी चीजें भारत में बनाओ और देश में ही बेचो। जानकार कहते हैं कि हमारी आर्थिक विकास दर सबसे तेज है। दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले इस देश में विस्तृत घरेलू मंडियां हैं। इसलिए निवेशकों को भारत में ही काम करते रहने के मौके मिलेंगे। हमारे घरेलू बाजार को ऐसी स्थिति में नए तरीके से काम करना होगा। जब हम बाहर और विशेष रूप से अमेरिका के भारी-भरकम शुल्क को अंतत: सहन नहीं कर पाएंगे, तो कंपनियां भारत में तैयार किए गए माल अपने यहां के विशाल बाजार में ही बेचने पर गौर करेंगीं।
हमारे शेयरों का प्रदर्शन बेहतर होता जाएगा। मौजूदा शुल्क संग्राम के जल्द थमने की संभावना कम है, इसलिए विदेशी निवेशक भी अंतत: भारत की ओर लौटने लगेंगे। सच्चाई यही है कि हमारा पड़ोसी चीन इस युद्ध का सबसे अधिक बोझ और दुष्परिणाम झेलेगा। भारत अगर चतुराई से इस संग्राम से बच निकलता है, तो उसे देश में ही अपनी वस्तुओं की मंडियों को विस्तृत करने की चेष्टा करनी चाहिए।
जिस घरेलू और कुटीर उद्योग को हमने पुरानी धारणा कह कर नकार दिया था, उसे फिर से जिंदा किया जाए। एक योजना पहले बनी थी कि इस बड़े और विस्तृत देश में क्षेत्रीय उत्पादन को विशिष्ट बनाया जाए। इस तरह जब देश का हर हिस्सा अपने-अपने शीर्ष पर पहुंच जाएगा, तो हम भारतीय वस्तुओं को खरीदते हुए न केवल गर्व महसूस करेंगे, बल्कि अमेरिका और धनी देशों के कुठाराघात से भी बच निकलेंगे।
ऐसे माहौल में जब बेरोजगारी सबसे बड़ा संकट बन गई है, तो लघु और कुटीर उद्योगों की वापसी न केवल उन्हें रोजगार देगी, बल्कि निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग को भी नव-उद्यम में कुछ स्थान ग्रहण करने देगी। इस दृष्टि से अगर पूरे घटनाक्रम पर विचार किया जाए तो निश्चय ही भारत इस शुल्क युद्ध की भयावहता से बच कर अपने कदमों पर दृढ़ता से खड़ा हो सकता है।