भारतीय अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है और यह सदैव रहेगी। मगर विगत वर्षों में इसकी गति अपेक्षाकृत धीमी रही है। विनिर्माण क्षेत्र में कच्चे पदार्थ को मूल्यवान उत्पाद में बदला जाता है। इस क्षेत्र में मशीनरी, औजार और श्रम का इस्तेमाल किया जाता है। जैविक या रासायनिक प्रसंस्करण या निर्माण भी इसी क्षेत्र में शामिल है। उत्पादित सामानों का इस्तेमाल खुद के इस्तेमाल के लिए या बेचने के लिए किया जाता है। विनिर्माण क्षेत्र में टिकाऊ सामानों की तुलना में गैर-टिकाऊ सामानों का निर्माण अपेक्षाकृत अधिक होता है। ये राष्ट्र निर्माण, रोजगार के अवसरों के सृजन, वस्तु और सेवाओं की आपूर्ति और आधारभूत संरचना तैयार करने में योगदान देते हैं।

देश के विनिर्माण क्षेत्र में उत्पादन पर नजर डालें, तो हम पाते हैं कि वर्ष 2023 में भारत का विनिर्माण उत्पादन 455.77 अरब डालर था, जबकि इसके पिछले वर्ष 2022 में यह 440.06 अरब डालर था। यह वृद्धि 3.57 फीसद अधिक थी। भारत के विनिर्माण क्षेत्र ने सकल घरेलू उत्पाद में 15.17 फीसद का योगदान दिया। भारत सरकार ने वर्ष 2025 तक इस क्षेत्र का योगदान 25 फीसद तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा है। विद्युत उपकरण, मूल धातु और मोटर वाहन जैसे प्रमुख उद्योगों में मजबूत प्रदर्शन के कारण इस क्षेत्र में लगातार सुधार हुआ है।

विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ प्रमुख पहल

विनिर्माण क्षेत्र में निवेश बढ़ा है। वर्ष 2022-23 के बजट में सरकार ने इलेक्ट्रानिक्स और आइटी हार्डवेयर विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए 2,403 करोड़ रुपए आबंटित किए। वर्ष 2021-22 में इलेक्ट्रिक और हाई ब्रिड वाहनों के निर्माण को प्रोत्साहित करने वास्ते ‘फेम इंडिया’ योजना के लिए 757 करोड़ रुपए आबंटित किए गए, ताकि इस क्षेत्र को प्रोत्साहन मिल सके। विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए अन्य बहुत-सी योजनाएं भी बनाई हैं। इनमें ‘मेक इन इंडिया’ प्रमुख पहल है, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाने तथा घरेलू विनिर्माण क्षेत्र के विकास को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। सरकार ने इस क्षेत्र में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए कई विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) भी स्थापित किए हैं।

विनिर्माण क्षेत्र विशेष रूप से श्रम आधारित है। इस क्षेत्र में यद्यपि उत्पादन बढ़ा है, लेकिन आर्थिक विश्लेषक इसमें अभी कमजोर प्रदर्शन मानते हैं। उनका मानना है कि व्यापार नीति में निरंतरता का अभाव और जटिल कानूनी प्रावधानों तथा निष्प्रभावी शैक्षणिक एवं कौशल व्यवस्था आदि सभी इसको प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार रोजगार के क्षेत्र में इनका योगदान पर्याप्त नहीं है। उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रम देश की कुल फैक्टरियों में 96 फीसद की हिस्सेदार हैं, लेकिन उनमें दस से कम कर्मचारियों वाले सूक्ष्म उपक्रमों की हिस्सेदारी 99 फीसद है। इनमें रोजगार सृजन की गति अपेक्षाकृत बहुत धीमी है।

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अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यन एवं अन्य का विश्लेषण दिखाता है कि समस्या उद्योगों के एएसआई सालाना सर्वे के आंकड़ों से कहीं अधिक गंभीर है। एएसआई ने बड़ी फैक्टरियों की संख्या को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया है। ऐसा लगता है कि कई कंपनियां एक ही राज्य में अलग-अलग उत्पादन इकाइयां स्थापित करती हैं। इससे एक ही कंपनी के स्वामित्व वाली कंपनियों की फैक्टरियां अलग-अलग होती हैं, लेकिन सर्वेक्षण में इन्हें एक फैक्टरी के रूप में दर्शाया जाता है, जिससे इनसे संबंधित आंकड़ों में गड़बड़ी हो जाती है। बड़े संयंत्र कई वजहों से उत्पादक साबित होते हैं। छोटे संयंत्रों के साथ और दिक्कतें भी हैं, जिनकी जांच परख करने की आवश्यकता और आवश्यक सुधार की जरूरत है। बड़े संयंत्र में पूंजी निवेश अधिक उत्पादक साबित हो सकता है और वे मूल्य शृंखला में तेजी से ऊपर जा सकते हैं, लेकिन इस मामले में छोटे संयंत्र पिछड़ जाते हैं।

भारत के विनिर्माण क्षेत्र को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें बुनियादी ढांचे का अभाव, कुशल श्रम की कमी और ऋण प्राप्त करने की कठिनाइयां आदि शामिल हैं। इसके अलावा, यह क्षेत्र वैश्विक मांग में कमी और चीन जैसे देशों से बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भी प्रभावित हुआ है। दूरसंचार सुविधाएं मुख्य रूप से बड़े शहरों तक ही सीमित हैं। अधिकांश राज्य विद्युत बोर्ड घाटे में चल रहे हैं। वे दयनीय स्थिति में हैं। सामान्यत: मध्यम और बड़े पैमाने के औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्रों की तुलना में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के लिए ऋण तक अनुकूल पहुंच की कमी और कार्यशील पूंजी की उच्च लागत की स्थिति है।

भारत के विनिर्माण क्षेत्र में प्रशिक्षित और कुशल श्रम की कमी है जो इस क्षेत्र के विकास को सीमित करती है। विनिर्माण क्षेत्र लाइसेंस, निविदाएं और लेखा-परीक्षण जैसे कई जटिल विनियमनों के अधीन है। ये व्यवसायों के लिए बोझ हैं और उनके विकास में प्राय: बाधक बनते हैं। इसके अतिरिक्त प्राय: कमजोर या खराब आपूर्ति शृंखला प्रबंधन से इस क्षेत्र की लागत में वृद्धि होती है। भारत के विनिर्माण क्षेत्र को अन्य देशों से तीव्र प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है, जिससे घरेलू व्यवसायों के लिए वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करना कठिन हो सकता है। इसके अलावा, भारत अभी भी परिवहन उपकरण, मशीनरी, लोहा एवं इस्पात, कागज, रसायन एवं उर्वरक, प्लास्टिक सामग्री आदि के लिए विदेशी आयात पर निर्भर है।

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सड़कों, बंदरगाहों और बिजली आपूर्ति जैसी अवसंरचनाओं की गुणवत्ता एवं उपलब्धता में सुधार लाने से विनिर्माण क्षेत्र में अधिक निवेश और व्यवसायों को आकर्षित करने में मदद मिल सकती है। निर्यात-उन्मुख विनिर्माण को प्रोत्साहित करने से भारतीय व्यवसायों को नए बाजारों में प्रवेश करने और उनमें प्रतिस्पर्धा बढ़ाने में मदद मिल सकती है। इसमें नए बाजारों में प्रवेश करने के इच्छुक व्यवसायों के लिए सहायता प्रदान करना और निर्यात उन्मुख विनिर्माण को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को लागू करना शामिल हो सकता है। विनिर्माण क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास का समर्थन करना जरूरी है। हमें नई प्रौद्योगिकियों के अपनाने पर बल देना होगा। शोध और अनुसंधान के लिए धन मुहैया कराना और नई प्रौद्योगिकी अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को लागू करना आवश्यक है।

विनिर्माण क्षेत्र में छोटे एवं मध्यम आकार के उद्यमों के लिए ऋण और अन्य प्रकार के वित्तपोषण तक पहुंच को सुगम करने से उनकी वृद्धि तथा विकास में सहायता मिल सकती है। इसमें उन नीतियों को लागू करना जो बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को विनिर्माण क्षेत्र में लघु मध्यम और सूक्ष्म उद्यमों को ऋण देने के लिए प्रोत्साहित करें। विनियमों को सरल और सुव्यवस्थित करने से व्यवसायों पर बोझ कम करने और विनिर्माण क्षेत्र में अधिक निवेश को प्रोत्साहित करने में मदद मिल सकती है।

प्रशिक्षण और कौशल विकास के लिए अधिक अवसर प्रदान करने से विनिर्माण क्षेत्र में कुशल श्रम की कमी को दूर करने में सहायता प्राप्त हो सकती है। इसमें व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में निवेश करना या उन नीतियों को लागू करना शामिल हो सकता है, जो व्यवसायों को कर्मचारी प्रशिक्षण में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करती हों। विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने की दृष्टि से सरकार, उद्योग जगत, व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों आदि सभी हितधारकों आदि के मिले-जुले प्रयासों की आवश्यकता है।