आज मानव सभ्यता विकास के चरम पर है। भौतिक और तकनीकी प्रगति ने जीवन को बहुत आसान बना दिया है। मगर भौतिक और तकनीकी प्रगति की इस आपसी प्रतिस्पर्धा ने मानव जीवन को भी खतरे में डाल दिया है। जबकि मानव के लिए यह पृथ्वी ही सबसे सुरक्षित ठिकाना है। विज्ञान आज तक इसका दूसरा विकल्प नहीं खोज पाया है। विभिन्न कार्यों के माध्यम से हमने अपने पर्यावरण को इस कदर दूषित और विषैला बना दिया है कि हमारी सांस ही हमारी दुश्मन बन बैठी है। एक आम धारणा है कि पर्यावरण प्रदूषण, भूमंडलीय ताप, ग्लेशियर के पिघलने से पर्यावरण और पृथ्वी को खतरा है। सबसे बड़ा खतरा मानव जाति को है। आज जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि समस्त मानव जाति है।
विश्व की करीब एक चौथाई जमीन पूरी तरह से बंजर हो चुकी है
अगर एक नजर पर्यावरण संकट पर डालें तो स्पष्ट है कि विश्व की करीब एक चौथाई जमीन बंजर हो चुकी है और यही रफ्तार रही तो सूखा प्रभावित क्षेत्रों की करीब सत्तर फीसद जमीन कुछ सालों में बंजर हो जाएगी। यह खतरा इतना भयावह है कि इससे विश्व के सौ देशों की एक अरब से ज्यादा आबादी का जीवन संकट में पड़ जाएगा। पर्वतों से विश्व की आधी आबादी को पानी मिलता है। हिमखंडों के पिघलने, जंगलों की कटाई और भूमि के गलत इस्तेमाल के चलते पर्वतों का पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में है। विश्व का आधे से अधिक समुद्र तटीय पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा चुका है। यह गड़बड़ी यूरोप में अस्सी फीसद और एशिया में सत्तर फीसद तक पहुंच चुकी है। इतना ही नहीं, पर्यावरण के नष्ट होने से बहुत सारी जीव प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। यही स्थिति रही तो करीब ग्यारह हजार प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ जाएगा।
सबसे अमीर और सबसे गरीब की आय में ढाई सौ फीसद का अंतर
विगत कुछ दशकों में पर्यावरण पर बहुत बातचीत हुई है, मगर स्थिति यह है कि विषमता की खाई और चौड़ी हो गई है। आक्सफेम और अन्य संस्थाओं के आकलन के मुताबिक, दुनिया में सबसे अमीर और सबसे गरीब आदमी की आय में लगभग ढाई सौ फीसद का अंतर है। विकसित या अमीर देशों के लगभग तेईस फीसद लोगों के पास विश्व की आय का पचासी फीसद हिस्सा है। जबकि विकासशील देशों में लगभग सतहत्तर फीसद लोग रहते हैं, जिनके पास विश्व की आय का पंद्रह फीसद हिस्सा ही है। पर्यावरण सुरक्षा को लेकर बातचीत और बैठकों का दौर तो खूब चला है, मगर धरातल पर सार्थक परिणाम के बजाय विषमता और बढ़ती जा रही है। यों कहें कि मानवीय सोच और विचारधारा में इतना अधिक बदलाव आ गया है कि भविष्य की जैसे मानव को कोई चिंता ही नहीं है।
पर्यावरण असंतुलन के चलते भूमंडलीय ताप, ओजोन क्षरण, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जल-स्तर का बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट परिस्थितियां उत्पन्न होने लगी हैं। यह सारा किया-कराया मनुष्य का है और आज विचलित, चिंतित भी स्वयं मनुष्य हो रहा है। बहरहाल, भूमंडलीय तापमान में वृद्धि का सिलसिला जारी है। बीते दो दशक में यह स्पष्ट हुआ है कि वैश्वीकरण की नवउदारवादी और निजीकरण की नीति ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। इससे आर्थिक विकास के माडल लड़खड़ाने लगे हैं। भूख, खाद्य असुरक्षा और गरीबी ने न केवल गरीब देशों पर असर डाला है, बल्कि पूर्व के धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है।
प्रकृति के बगैर जीवन असंभव है। शुद्ध पानी, पृथ्वी, हवा हमारे स्वस्थ जीवन की प्राथमिक शर्तें हैं। मानव और प्रकृति का संतुलित सहअस्तित्व जरूरी है, लेकिन अफसोस कि आज दोनों का अस्तित्व संकट में है। सन 2050 तक विश्व की जनसंख्या में और वृद्धि हो जाएगी, तब धरती पर भार और बढ़ जाएगा। इसको लेकर कई तरह की भविष्यवाणियां की जा चुकी हैं। ज्यादातर ऐसा शोर पश्चिमी देशों से ही उठता रहा है, जिन्होंने अपने विकास के लिए न जाने प्रकृति के विरुद्ध कितने ही कदम उठाए हैं और ये लगातार उठ रहे हैं। आज भी कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में सत्तर फीसद हिस्सा पश्चिमी देशों का है, जो विकास की अंधी दौड़ का परिणाम है। मगर विकासशील और अविकसित देशों को भूमंडलीय ताप का भय दिखाकर उन्हें ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया जा रहा है। हालांकि हर वर्ष इस गंभीर समस्या को लेकर विश्व स्तर पर शिखर सम्मेलन का आयोजन किया जाता है, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही रहते हैं।
कार्बन उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान विकसित देशों का है, मगर वे इसमें जरा भी कटौती नहीं करना चाहते। कहीं कारखानों का गंदा जल हमारे पीने के पानी में मिलाया जा रहा है, तो कहीं गाड़ियों से निकलता धुंआ हमारे जीवन में जहर घोल रहा है। जिस पृथ्वी को मां का दर्जा देते हैं उसे हम खुद अपने ही हाथों दूषित करने में लगे रहते हैं। जलवायु परिवर्तन आज पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है। दरअसल, वैश्वीकरण से उपजे उपभोक्तावाद ने मनुष्य की संवेदना को सोखकर उसे निर्मम भोगवादी बना दिया है। धरती को बचाने के लिए गुहार लगानी पड़ रही है, क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुध दोहन के परिणामस्वरूप आज उसके सामने अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। इस विषम स्थिति में अपने जीवन की रक्षा के लिए हमें धरती को बचाने का संकल्प लेना होगा। मगर दुखद स्थिति यह है कि न तो विश्व स्तर पर कोई जागरूकता दिखाई दे रही है और न राजनीतिक स्तर पर कोई ठोस पहल।
आज विश्व के सामने पर्यावरण को बचाने की कड़ी चुनौतियां हैं। वायु प्रदूषण के साथ समुद्री तल कार्बन से भर चुका है। अगर हम अब भी नहीं समझे तो विनाश से कोई नहीं बचा सकता। पर्यावरण को बचाने के लिए पौधारोपण, जंगल सुरक्षा की मुहिम चलानी होगी। हर व्यक्ति को पर्यावरण मित्र बनना होगा, तभी हम स्वच्छ वातावरण में सांस ले सकेंगे। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएन पर्यावरण तथा यूएनईए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न समझौतों के जरिए जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए एक प्रभावी मंच प्रदान कर रहे हैं। मगर मौजूदा प्रयास इन चुनौतियों को दूर करने में कारगर साबित नहीं हो रहे हैं।
फिनलैंड ने विभिन्न देशों और समझौतों से आगे बढ़ कर वर्ष 2035 तक स्वयं को ‘कार्बन न्यूट्रल’ करने का निर्णय किया है। अन्य देशों को भी फिनलैंड से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। देशों को आर्थिक विकास को ही एकमात्र उद्देश्य बनाने के बजाय विकास की धारणीयता पर भी विचार करना आवश्यक है। यह भी सही है कि कोई देश अपने बल पर वैश्विक चुनौती से पार नहीं पा सकता इसलिए सभी देशों को मिलकर प्रयास करने होंगे। इन देशों के मध्य बेहतर तालमेल तथा समन्वय के लिए पर्यावरण से संबंधित निकायों को एक मंच पर लाना होगा, साथ ही संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था को भी पर्यावरण उन्मुख बनाना होगा।