प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण और प्रदूषण के मामले में ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’ वाला कथन चरितार्थ हो रहा है। एक तरफ अंधाधुंध विकास है, तो दूसरी तरफ प्राकृतिक संसाधनों का अतार्किक दोहन और उससे पैदा हुई चुनौतियां हैं, जिससे निपटने में आधुनिक विज्ञान नाकाम साबित हो रहा है। पानी और हवा जिंदगी के लिए पहली जरूरत हैं, लेकिन मुफ्त उपलब्ध होने के बावजूद इनका संकट दुनिया में तेजी से बढ़ रहा है। ‘पाड्सडैम इंस्टीट्यूट फार क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च’ जर्मनी तथा नीदरलैंड के शोधकर्ताओं के मुताबिक वर्ष 2025 तक पहले के अनुमान की तुलना में चार करोड़ वर्ग किलोमीटर नदी घाटी क्षेत्र और तीन अरब अतिरिक्त लोगों को साफ पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा।
यह शोध ‘नेचर कम्युनिकेशन जर्नल’ में प्रकाशित हुआ है। गौरतलब है कि दुनिया के विकासशील और कई विकसित देशों में पिछले तीस वर्षों से साफ पीने योग्य पानी तथा साफ हवा की भारी किल्लत महसूस की जा रही है। इसकी वजह से वहां के जनजीवन पर बुरा असर पड़ता रहा है। दुनिया के तमाम देशों ने प्रदूषित पानी और हवा से निपटने के लिए योजनाएं बनाईं और उन्हें लागू भी किया गया, मगर सबको साफ पानी और साफ हवा नहीं मिल पा रही है।
शोध पर आधारित ‘नेचर जर्नल’ से मिली जानकारी के मुताबिक इस संकट के महत्त्वपूर्ण कारणों में नदियों में नाइट्रोजन प्रदूषण प्रमुख है। 2050 तक इसमें 39 फीसद की वृद्धि होने का अनुमान है। इसलिए पानी की किल्लत का अनुमान लगाने वाले वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि पाताल और बरसात के पानी का संरक्षण करने के साथ इसे पीने योग्य बनाने के लिए अभी से काम करने की जरूरत है।
दस हजार से ज्यादा नदी घाटियों पर शोध से पता चला है कि जल प्रदूषण की वजह से दुनिया भर में दो हजार से ज्यादा नदी घाटियों में पानी की कमी आई है। गौरतलब है कि 2010 में पानी की किल्लत का सामना करने वाले नदी घाटी क्षेत्रों की तादाद 984 थी। 2050 तक इनकी तादाद बढ़ने की उम्मीद तीन गुना हो सकती है। पीने के साफ पानी की किल्लत यूरोप, चीन, भारत, अमेरिका और मध्य अफ्रीकी देशों में देखी जा रही है।
पिछले अध्ययनों के मुताबिक 1995-2005 में 65 फीसद आबादी गंभीर रूप से पानी की किल्लत वाले इलाकों में रहती थी। नए शोध के मुताबिक 2010 में वैश्विक आबादी का पैंतालीस फीसद हिस्सा पानी की गंभीर कमी वाले क्षेत्रों में रहता था। अगर पानी की गुणवत्ता को इसमें शामिल करें, तो दुनियाभर की अस्सी फीसद आबादी संकट में थी। कई देशों में तो साफ पानी न मिल पाने की वजह से बीमारियां लगातार बढ़ रही हैं। तमाम देशों में पलायन की बड़ी वजह पानी का संकट रहा है।
गौरतलब है कि जलवायु सम्मेलनों में बढ़ते प्रदूषण और पानी की किल्लत को लेकर गंभीर चर्चाएं होती रही हैं, लेकिन हवा और पानी की समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं। दुनिया के तमाम देशों के सामने साफ पानी और हवा उपलब्ध कराना सबसे बड़ी चुनौती है। अगर वक्त के साथ हवा और पानी की बढ़ती चुनौतियों से निपटने के लिए कारगर तरीके नहीं अपनाए गए और बेहतर परिणाम देने वाली योजनाएं नहीं बनाई गईं, तो मानव अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो जाएगा।
प्राकृतिक संसाधनों में पानी और हवा के अलावा मिट्टी में बढ़ते प्रदूषण की वजह से अनेक गंभीर समस्याएं पैदा हो गई हैं। इससे दुनिया भर में कृषि पर गंभीर संकट मंडराने लगा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के साथ ही हवा, मिट्टी और पानी के प्रदूषण से कृषि क्षेत्र की चुनौतियों में लगातार वृद्धि हुई है। हवा-मिट्टी के अंतर्संबंधों में बदलाव का असर खाद्य सुरक्षा पर देखा जा रहा है। अनेक प्रयासों के बावजूद न केवल इंसान, बल्कि जीव-जंतुओं पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
हवा और जल प्रदूषण का असर इंसान के साथ-साथ कीटों, जलचर, पतंगों, पक्षियों और जानवरों की सेहत पर भी पड़ रहा है। हवा विषैली होने की वजह से भंवरे फूलों से दूरी बनाने लगे हैं। हवा के प्रदूषित होने की वजह से फूलों की परागण प्रक्रिया पर असर देखा जा रहा है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी का ताजा शोध बताता है कि पौधों में परागण (प्रजनन) तितलियों, भंवरों के जरिए होता है। फूलों की खुशबू हवा में मौजूद रासायनिक तत्त्वों से प्रतिक्रिया कर एक अलग गंध पैदा कर रही है। इससे अनजान मधुमक्खी और भंवरे फूलों से दूरी बनाने लगे हैं। नए शोध के अनुसार वायु प्रदूषण की वजह से पौधों में परागण तो रुकता ही है, फलों के उत्पादन में भी कमी आई है। इसके अलावा उन कीड़ों की आबादी भी संकट में है, जो फूलों के पराग पर निर्भर हैं।
जानकारों के मुताबिक दुनिया के कई शहरों में प्रदूषण की वजह से महक का फैलना बंद हो गया है। इससे दुर्गंध को खत्म करना दुश्वार हो गया है। शोध बताते हैं कि औद्योगीकरण की वजह से फूलों की महक में पचहत्तर फीसद तक की कमी आ गई है। वाशिंगटन में हुए शोध के मुताबिक अधिक खुशबू देने वाले फूलों से भी महक धीरे-धीरे गायब हो रही है। यूनिवर्सिटी आफ रीडिंग इग्लैंड के जीवविज्ञानी रयाल्स के मुताबिक डीजल निकास और ओजोन प्रदूषण दोनों को जोड़ने से नब्बे फीसद प्रदूषण तक कीड़े उन फूलों को ढूंढ़ने में सक्षम नहीं हो पाए, जिनकी उन्हें भोजन के लिए जरूरत होती है। अब समस्या यह है कि फूलों का इस्तेमाल कर जो महक वाली चीजें बनाई जाती थीं, उनके स्तर में लगातार कमी आती जा रही है।
भारतीय वैज्ञानिकों के अनुसार पर्वतीय इलाकों में पैदा होने वाले बुरांश के फूल पर भी विषैली गैसों या वायु प्रदूषण का बुरा असर पड़ रहा है। प्राकृतिक रूप से उगने वाले बुरांश के जंगल भी लगातार प्रदूषण की वजह से घट रहे हैं। पर्वतीय इलाकों में उगे जंगलों में आए दिन आग लगती रहती है, इससे फूल लगातार नष्ट होते रहते हैं। कई फूलों की प्रजातियां हमेशा के लिए अपना अस्तित्व खो रही हैं। इनको बचाने के लिए जरूरी है कि हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषण में कमी लाने के लिए कारगर कदम उठाए जाएं।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक शहरों के अलावा गांवों में भी मिट्टी, जल और धूल प्रदूषण की समस्या लगातार बढ़ रही है। गांवों में फूलों की खेती बड़े पैमाने पर होती है। परीक्षण के अनुसार पिछले दस सालों में फूलों की पैदावार में कमी देखी जा रही है। मिट्टी की गुणवत्ता में कमी तो आ ही रही है। सवाल है कि जिस विकास के बूते इंसान मंगल और चंद्रमा की सैर कर आया है, वह विकास मानव सभ्यता के लिए विनाश की वजह क्यों बन रहा है? इस पर गौर कर बढ़ रहे तमाम संकटों और समस्याओं का समाधान निकालने के कारगर उपाय किए जाने ही चाहिए।
