योगेश कुमार गोयल

पुलों का निर्माण किसी भी देश के बुनियादी ढांचे का एक अहम हिस्सा होता है। पुल केवल भौगोलिक दूरी नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक रिश्तों को जोड़ने का माध्यम भी होते हैं। मगर जब यही पुल अचानक टूटने लगें और उन पर से गुजरते लोग मौत के मुंह में समा जाएं, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर यह कैसा ‘विकास’ है? देश में पिछले कुछ वर्षों में पुलों के गिरने की घटनाएं जिस भयावहता और निरंतरता के साथ सामने आई हैं, वे न केवल सरकारी तंत्र की लापरवाही की कहानी बयां करती हैं, बल्कि एक भ्रष्ट, गैर-जवाबदेह और संवेदनहीन व्यवस्था की तस्वीर भी प्रस्तुत करती हैं।

ताजा मामला गुजरात के वडोदरा जिले का है, जहां महिसागर नदी पर बना पुल अचानक उस समय ढह गया, जब उस पर वाहन गुजर रहे थे। दो ट्रक, दो कारें और एक आटो पुल के टूटे हिस्से के साथ नदी में समा गए। इस हादसे में कम से कम 16 लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए। यह घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि भारत के उन अनगिनत पुल हादसों की एक और कड़ी है, जिनमें से प्रत्येक के पीछे कोई न कोई प्रशासनिक विफलता, भ्रष्टाचार या लापरवाही अवश्य मौजूद रही है।

मौजूदा पुल अंग्रेजों के बनाए पुलों की तुलना में जल्दी क्यों टूट रहे हैं

चौंकाने वाली बात यह है कि वडोदरा में जो पुल गिरा, वह कोई सौ साल पुराना नहीं था। यह 45 साल पहले ही बना था। इतने कम समय में पुल का पूरी तरह जर्जर हो जाना तकनीकी विफलता नहीं तो और क्या है? क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि जब आज हम कहीं अधिक उन्नत तकनीकी दौर में जी रहे हैं, तब मौजूदा पुल अंग्रेजों के बनाए पुलों की तुलना में इतनी जल्दी क्यों टूट जाते हैं? कानपुर-उन्नाव के बीच गंगा पर बना पुल, जिसे वर्ष 1875 में अंग्रेजों ने बनाया था, वह 1998 तक सेवा में था। कासगंज के नदरई पुल ने सौ साल तक साथ निभाया और प्रयागराज का करजन ब्रिज 90 साल से अधिक चला, लेकिन आज बनाए जा रहे पुल बीस-तीस साल में ही कमजोर हो जाते हैं।

देश में पुलों के ढहने की त्रासदी केवल गुजरात तक सीमित नहीं है। बिहार, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, झारखंड और कई अन्य राज्यों में हर साल पुल गिरने की घटनाएं दर्ज होती हैं। बिहार में तो हालात सबसे खराब हैं। वहां हाल के वर्षों में दर्जनों पुल या तो निर्माण के दौरान ढह गए या उद्घाटन से पहले ही गिर गए। पटना और हाजीपुर के बीच गंगा पर बने ऐतिहासिक गांधी सेतु की हालत इसका सबसे जीवंत उदाहरण है। वर्ष 1982 में इसकी पहली लेन और 1987 में दूसरी लेन शुरू हुई, लेकिन 1991 तक ही उसकी मरम्मत की नौबत आ गई। वर्ष 2000 तक पुल जर्जर हो चुका था और उसके ढांचे को बदलने में 21 हजार करोड़ रुपए खर्च करने पड़े।

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आखिर इतने कम समय में पुल की यह दुर्दशा क्यों हुई? स्थानीय लोग खुल कर कहते रहे हैं कि ‘आटे में नमक नहीं, नमक में आटा मिलाया गया’ यानी भ्रष्टाचार इतना हावी था कि निर्माण में गुणवत्ता को ताक पर रख दिया गया। पुलों के निर्माण और रखरखाव की जिम्मेदारी सरकारी महकमों की है, लेकिन क्या यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि जब ऐसे हादसे होते हैं, तब उनकी जांच रपटें क्यों सार्वजनिक नहीं होतीं? यदि होती भी हैं, तो उन पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती? क्या कभी यह बताया गया कि गांधी सेतु की इतनी खराब हालत के लिए कौन इंजीनियर, ठेकेदार और अधिकारी जिम्मेदार थे? और क्या उनमें से किसी को सजा दी गई? जवाब है, नहीं।

यही कारण है कि लापरवाही और भ्रष्टाचार का यह चक्र बिना किसी रोक-टोक के चलता जा रहा है। कुछ महीनों पहले ही महाराष्ट्र के पुणे जिले में इंद्रायणी नदी पर बना एक पुल भी टूट गया था। वह पुल पहले से ही जर्जर था और प्रशासन ने उसे बंद कर दिया था। मगर न तो उस पर निगरानी थी, न ही कोई रोक-टोक। भारत में अब यह एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है। मोरबी पुल हादसे को कोई कैसे भूल सकता है। अक्तूबर 2022 में एक झूला पुल टूट जाने से 135 लोगों की जान चली गई थी। उस समय भी यह कहा गया था कि सभी पुलों की जांच की जाएगी। कमजोर पुलों की मरम्मत कराई जाएगी।

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सुरक्षा मानकों को सख्ती से लागू किया जाएगा, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हुआ? यदि हुआ होता, तो क्या वडोदरा और पुणे की ये त्रासदियां होतीं? दरअसल, समस्या केवल तकनीकी नहीं है, यह प्रणालीगत है। जिस वक्त कोई पुल बन रहा होता है, उसी समय उसमें भ्रष्टाचार की नींव रख दी जाती है। निविदा प्रक्रिया में धांधली होती है, सस्ती और घटिया निर्माण सामग्री इस्तेमाल होती है। निरीक्षण के नाम पर खानापूर्ति की जाती है। यदि कोई अधिकारी ईमानदारी से काम करना भी चाहता है, तो उसे या तो बाहर निकाल दिया जाता है या किनारे कर दिया जाता है।

इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि हमारी सार्वजनिक चेतना बहुत सीमित है। हर हादसे के बाद कुछ दिन शोक, कुछ दिन आक्रोश और फिर भूल जाने की प्रवृत्ति आम हो गई है। सरकारें जांच की घोषणा करती हैं, मुआवजे का एलान करती हैं, लेकिन न तो किसी दोषी को सजा मिलती है और न ही कोई स्थायी समाधान सामने आता है। नतीजा, हर एक अंतराल पर कोई नया पुल गिरता है। कुछ और जिंदगियां खत्म हो जाती हैं। यदि इन हादसों को रोकना है, तो केवल जांच समितियां बनाने से काम नहीं चलेगा। देश के निर्माण और बुनियादी ढांचे की आत्मा को बचाने के लिए जरूरी है कि निर्माण प्रक्रिया में पारदर्शिता लाई जाए। निर्माण कार्यों की तीसरी-पक्षीय निगरानी हो, जहां निष्पक्ष एजंसियों द्वारा निरीक्षण और आडिट प्रक्रिया सुनिश्चित की जाए। जिन पुलों की हालत खराब है, उन्हें तत्काल बंद किया जाए और वैकल्पिक मार्ग बनाए जाएं।

यह भी जरूरी है कि पुल टूटने या गिरने के हादसों में दोषियों पर सख्त कार्रवाई हो, चाहे वह अधिकारी हो, ठेकेदार हो या फिर कोई जनप्रतिनिधि। जब तक किसी को सजा नहीं मिलेगी, तब तक इस देश में निर्माण की गुणवत्ता सुधरने की कोई उम्मीद नहीं की सकती है। यदि कानूनी प्रक्रिया लचर होगी तो भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा और देश की जनता इसी तरह पुलों के नीचे दबी रह जाएगी। हर बार एक ही कहानी दोहराई जाती है, मुआवजा, जांच समिति, रपट और फिर खामोशी। मगर अब इस मौन को तोड़ना होगा।

जनता को भी जागरूक होना होगा, सवाल पूछने होंगे। ठेकेदारों, इंजीनियरों और अधिकारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। यह बेहद शर्मनाक है कि जिस देश में करोड़ों की योजनाएं एक दिन में मंजूर हो जाती हैं, वहां लोगों की जान लेने वाले पुल हादसे की जांच रपट वर्षों तक दबा कर रखी जाती है। यदि यह रवैया नहीं बदला गया, तो पुल गिरते रहेंगे और हम केवल आंसू बहाते रहेंगे।