अब तो प्रकृति का बदलता स्वभाव सबको साफ समझ आने लगा है। हालांकि ज्यादा पुरानी बात नहीं, लेकिन यकीनन किस्से, कहानियों-सी लगती है, जब गांवों में खपरैल के कच्चे मकान होते थे और चारपाई पर घरों के बाहर गहरी और बेफिक्र नींद सोते थे। न मच्छर का डर न बजबजाती नालियों की बदबू। मगर दो-तीन दशक में ही सब कुछ तेजी से बदल गया। विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी बहुमंजिला इमारतें, घरों की पतली सीमेंट की दीवारें और इनके जल्द ठंडे या गर्म होने से कमरों के अंदर का हर दिन बदलता तापमान। तपते आंगन, तलवे जलाती कंक्रीट की सड़कें और घरों के सामने बजबजाती नालियां, भिनभिनाते मच्छर-मक्खियां। इस विकास के नाम पर बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन के दौर में पहुंच कर हम इतराएं, घबराएं या सिर धुनें?
‘ग्लोबल वार्मिंग’ पूरी तरह मानव जनित है
मगर विडंबना है कि सारा कुछ जलवायु परिवर्तन के सिर पर मढ़ कर बेफिक्री की चादर ओढ़े एसी, कूलर और मच्छरदानी के अंदर कैद होकर भी नहीं समझ पा रह हैं कि प्रकृति के जिस बदलाव को हमने देखा है, वह किसकी देन है? संकट में कौन है, पृथ्वी, आसमान, पाताल, इंसान या सभी? पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ रहा है। इसका असर जलवायु पर कितने व्यापक तरीके से पड़ रहा है, सब सामने है। हर वर्ष बदलता मौसम, समुद्र का बढ़ता स्तर, बर्फ का लगातार पिघलना, लू, भारी बारिश, आंधी, तूफान, तड़ित झंझा और दावानल, जिसमें पहाड़ों के जंगल धधक उठते हैं। लगता है कि प्रकृति अपने रौद्र रूप में आ गई है। मगर हम यह क्यों नहीं विचारते कि ऐसा क्यों है? आज वैज्ञानिक भी कहते हैं कि तपिश जिसे ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कहते हैं, पूरी तरह मानव जनित है।
जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, वैसा पहले नहीं था
पृथ्वी पर ग्रीनहाउस गैसें ही गर्मी को रोकने वाली गैसों का एक प्रकृति प्रदत्त आवरण है। इसकी तुलना उस कंबल से की जा सकती है, जो पृथ्वी को उतना ही गर्म रखती है जितनी जरूरत है। मगर जब यही दूषित हो जाएंगी तो संतुलन तो बिगड़ेगा ही। ग्रीन हाउस गैसों के संतुलन का यह आवरण जितना डगमगाएगा या दूषित होगा, ग्लेशियर भी उतने ही पिघलते जाएंगे, जो अब अक्सर दिखने लगा है। जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, वैसा पहले नहीं था। आज तो साफ-साफ दिखने लगा है कि इससे हमारे भोजन, पानी तक की पूरी व्यवस्था प्रभावित है। कृषि पर जलवायु परिवर्तन का सीधा असर पड़ रहा है। शहर के शहर चंद हफ्तों के लिए ‘गैस चैंबर’ में बदल जाते हैं। हमारी यह प्रवृत्ति पारिस्थितिक तंत्र के साथ हमारी मानव प्रणालियों के पतन का कारण भी बनेंगी। लेकिन हम हैं कि निश्चिंत बैठे हैं।
ऐसा कब तक चलेगा और क्यों चले? हम अपनी भावी पीढ़ी के साथ भी यह अपराध कर रहे हैं। जन्मे-अजन्मे और गर्भस्थ संतानों को तो पता भी नहीं है कि वह हमारे प्रकृति विरुद्ध अपराध के वातावरण में इस धरती पर हैं या होंगे और बेकसूर होकर भी भुगतेंगे। केवल मानव नहीं, जानवर भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका क्या कसूर? उन्होंने तो कुछ किया नहीं, फिर भी सजा भुगत रहे हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों में, बर्फ पर रहने वाले ध्रुवीय भालू अब बर्फ पिघलने के कारण जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे ही अनेक पशु-पक्षी, वनस्पतियां संघर्ष कर रही हैं, जो अलग-अलग पारिस्थितिक तंत्र में अपने अस्तित्व को बनाए रखती हैं। सभी का संतुलन बुरी तरह बिगड़ा हुआ है।
तापमान और नमी में लगातार बदलाव के कारण कुछ प्रजातियां रहने के लिए नए स्थानों की तलाश में पलायन कर रही हैं, तो कई के वंश भी नष्ट हो जाते हैं। कई बदले वातावरण में जिंदा नहीं रह पाते हैं। प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है, इसीलिए ऐसा नहीं कि कोई भी जीव या वनस्पति कहीं भी समायोजित हो जाए। अभी चंद हफ्तों पहले संयुक्त अरब अमीरात की चकाचौंध को बाढ़ में डूबते दुनिया ने देखा, जब शहर दुबई जबर्दस्त बारिश की चपेट में था। इस रेगिस्तानी क्षेत्र में केवल चौबीस घंटे की लगातार बारिश ने ही लोगों को प्रकृति के साथ छेड़खानी का मजा चखा दिया। दरअसल, यह बारिश कोई प्राकृतिक नहीं थी।
विशेषज्ञ कहते हैं कि ‘क्लाउड सीडिंग’ का दुष्परिणाम है, तो कुछ जलवायु परिवर्तन के चलते बताते हैं। कारण कुछ भी हो, लेकिन यह यह प्रकृति विरुद्ध कृत्य का ही नतीजा है। संयुक्त अरब अमीरात के रेगिस्तानी इलाकों का पारिस्थितिक तंत्र बीते बीस वर्षों में काफी बिगड़ गया है। यहां पर बहुतायत में रेत के भूरे टीले होते थे, जहां बारिश का पानी जमा होता था। बड़े-बड़े रिहाइशी और व्यावसायिक इमारतें बनाने के चक्कर में इन टीलों को खत्म किया जा रहा है और शहर में नए कृत्रिम हरित क्षेत्र बन रहे हैं, जिससे रेगिस्तान का पारिस्थितिक तंत्र बुरी तरह गड़बड़ा गया है।
प्रकृति के प्रकोप की भारत में भी न जाने कितनी घटनाएं हो चुकी और लगातार हो रही हैं। पूर्वोत्तर में हिमालय की पर्वत शृंखलाएं, तो पश्चिम में लंबी तटरेखा से घिरे हमारे देश का लगभग पूरा भौगोलिक क्षेत्र किसी न किसी प्रकार के जलवायु परिवर्तन से प्रभावित है। यह भी सच है कि अस्सी फीसद से अधिक लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जो जलवायु परिवर्तन से उपजी आपदाओं से हर समय घिरे रहते हैं। बारिश का बदलता ढर्रा, बढ़ता तापमान, भूजल में गिरावट, तेज चक्रवात, पिघलते ग्लेशियर, समुद्र का बढ़ता दायरा भविष्य में आजीविका के लिए बड़े संकट के रूप में मुंह बाए खड़ा है। यह न केवल हमरी खाद्यान्न व्यवस्था, बल्कि अर्थव्यवस्था के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती बनने वाला है।
आज भले शहर और गांव की आबादी को अलग-अलग देखा जाता है, लेकिन तथ्य यह है कि शहरी आबादी ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में सबसे ज्यादा है। आधुनिक कहे जाने वाले शहर और महानगरों की पोल पहली ही बारिश में खुल जाती है। लगता नहीं कि यह सब अनियंत्रित तथाकथित विकास की देन है, जो विनाश को निमंत्रण है। नदियों का रात-दिन छलनी होता सीना, अनवरत जारी प्राकृतिक संपदाओं का उत्खनन, बिना भूजल संरक्षण के केवल जल दोहन, गिट्टी और मुरुम के टूटते पहाड़, जंगलों की बेखौफ कटाई, वाहनों, कल-कारखानों से निकलता जहरीला धुंआ, पर्यावरण विरोधी गैसों का बेरोकटोक उत्सर्जन घातक हो रहा है।
मानवीय गतिविधियों से बिगड़ते जलवायु संतुलन और पारिस्थितिक तंत्र को तत्काल गंभीरता से लेना होगा। हर किसी को अपने-अपने प्रयासों से ग्लोबल वार्मिंग को रोकना होगा, वरना देर हो जाएगी। भविष्य के विनाश की पटकथा लिखकर विकास की झांकी सजाना कितना उचित है? बस गांव, शहर, जंगल और पहाड़ के वातावरण को महसूस कर, करीब से समझ-जान कर जो ज्यादा अच्छा लगे उसे अपने घर, आंगन में उतारने की हरेक की ईमानदार कोशिश ही पर्यावरण और ‘ग्लोबिंग वार्मिंग’ के लिए एक अच्छी पहल और भावी पीढ़ी के लिए वरदान हो सकती है।