2012 के सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि दस लाख निवासियों पर आज भी भारत में महज 137 शोधार्थी हैं, जबकि एशिया के अन्य देशों में औसतन 746 और ओसिनिया में 4,209 शोधार्थी हैं। इससे पता चलता है कि भारत में शोध कार्य और विज्ञान के प्रति लोगों का कैसा दृष्टिकोण रहा है।
भारत में हो रहे वैज्ञानिक शोधों और उनके उपयोग पर नजर दौड़ाएं, तो पाते हैं कि अभी विश्व में हमारी स्थिति एशिया में बहुत नीचे है। 2002 से 2007 तक अनुसंधान विकास में वैश्विक निवेश मात्र दो प्रतिशत के आसपास रहा। 2007 से 2015 तक इसमें मात्र एक प्रतिशत के आसपास वृद्धि हुई। वहीं अमेरिका में इस दौरान यानी 2002 से 2015 तक चालीस प्रतिशत से अधिक वैश्विक निवेश हुआ।
इससे समझ सकते हैं कि भारत में विज्ञान के क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश कितना कम हुआ। सरकारी निवेश की स्थिति तो और खराब है। आंकड़े बताते हैं कि 2010 तक विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले अनुसंधानों के लिए जीडीपी का एक से दो प्रतिशत के बीच खर्च करने का प्रावधान रहा है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि केंद्र की सरकारें विज्ञान के प्रति कितना गंभीर हैं।
हां, केंद्र सरकार ने विज्ञान के क्षेत्र में गहन अनुसंधानों, वैज्ञानिकों और नई उपलब्धियों को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक पुरस्कारों और सहयोगों को आगे बढ़ाने का काम बड़े पैमाने पर अवश्य किया है। इनमें ‘पोस्ट डाक्टरल रिसर्च’, व्यक्तिगत अनुसंधान सहायता और छात्रवृत्तियां, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिए जाने वाले अनेक प्रोत्साहनों के अलावा महिलाओं के लिए ‘स्कालरशिप फार रिसर्च एंड बेसिक/अप्लायड साइंस’ जैसे प्रोत्साहन सम्मिलित हैं।
केंद्र सरकार भी मानती है कि वैज्ञानिक अनुसंधानों का लाभ आम आदमी तक ज्यादा से ज्यादा पहुंचाया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि बढ़ती आबादी और सामाजिक, शैक्षिक समस्याओं का समाधान आम आदमी तक वैज्ञानिक अनुसंधानों का लाभ पहुंचाए बगैर संभव नहीं है। भारत में विज्ञान शोध की प्रबल और प्राचीन परंपरा होने के बावजूद आजादी के बाद से ही विज्ञान के क्षेत्र में किए जाने वाले शोधों को कोई खास तवज्जो नहीं दी गई। 2012 के सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि दस लाख निवासियों पर आज भी भारत में महज 137 शोधार्थी हैं, जबकि एशिया के अन्य देशों में औसतन 746 और ओसिनिया में 4,209 शोधार्थी हैं। इससे पता चलता है कि भारत में शोध कार्य और विज्ञान के प्रति लोगों का कैसा दृष्टिकोण रहा है।
आज भारत विश्व के सबसे तेज गति से जनसंख्या वृद्धि करने वाले देशों में पहले स्थान पर पहुंच चुका है। हम जल्दी ही चीन की जनसंख्या को पीछे छोड़ देंगे। मगर विज्ञान के क्षेत्र में चीन के मुकाबले हमारी स्थिति बहुत चिंताजनक है। चीन में दस लाख जनसंख्या पर शोधार्थियों की संख्या करीब तेरह सौ है। यानी शोध के मामले में चीन हमसे दस गुना आगे है। हम भले प्रगति और विकास का दम भरते न थकते हों, लेकिन हकीकत यह है कि विज्ञान के क्षेत्र में बहुत पीछे हैं। देश में आबादी के अनुपात में शोधार्थियों की संख्या नहीं बढ़ी है। इस मामले में हम छोटे से देश मैक्सिको से भी बहुत पीछे हैं।
2011 के सर्वेक्षण के मुताबिक विज्ञान के क्षेत्र में डाक्टरेट करने वाली साठ फीसद महिलाएं बेरोगार थीं। तबसे लेकर अब तक पिछले छह वर्षों में देश में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक बदलाव आए हैं। यूपीए सरकार ने विज्ञान का लाभ आम आदमी तक पहुंचाने के लिए अनेक कदम उठाए थे, जिनमें विश्वविद्यालयों द्वारा कराए जा रहे विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधानों में सुधार करके उनका फायदा आम आदमी तक पहुंचाने के लिए योजनाओं में सुधार करना, विज्ञान के क्षेत्र में बजटीय आबंटन को बढ़ाना, निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करना, लैंगिक असमानता को खत्म करना, रामानुज फेलोशिप और रामालिंगस्वामी फेलोशिप के जरिए देश से बाहर गए वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करना, ताकि वे भारत आकर अपना बेहतर योगदान दे सकें।
साथ ही व्यक्तिगत अनुंसधान को और अधिक धन आबंटन करना और संभावित अन्य वैज्ञानिक शोधों के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करना, अंतरराष्ट्रीय प्रोत्साहन के तहत मिलने वाले अनुदान और फेलोशिप को गांवों की विज्ञान प्रतिभाओं तक पहुंचाने के लिए कदम उठाना और पोस्ट डाक्टरेट रिसर्च के लिए सहायता पहुंचाने जैसे कदम शामिल थे।
दरअसल, भारत की प्रति व्यक्ति आय के औसत में ही बहुत बड़ी खामी है। एक तरफ पंचानबे प्रतिशत लोगों की बहुत कम आय है, वहीं प्रतिदिन हजारों और लाखों कमाने वाले हैं, उनकी आय को मिलाकर औसत निकालने की गलत परंपरा है। इस तरीके से कभी यह पता नहीं चलता कि वाकई भारत में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय कितनी है। सरकार को इससे व्यक्ति के सामाजिक और शैक्षिक स्थिति की ठीक जानकारी नहीं हो पाती है।
ऐसे में विज्ञान के शोध कार्यों का लाभ और उपयोग गांवों के आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है। जब तक ईमानदारी से गांवों की हालात, वहां की सामाजिक और शैक्षिक स्थिति का ठीक-ठीक आकलन नहीं किया जाता, तब तक वैज्ञानिक अनुसंधानों से निकले परिणामों का फायदा नहीं पहुंचाया जा सकता है।
भारतीय समाज आज भी अंधविश्वसों, पाखंडों और तमाम तरह की बुराइयों में फंसा हुआ है। वैज्ञानिक सिद्धांत, तर्क, विचार और कार्य ही उन्हें इनसे छुटकारा दिला सकते हैं। मगर समस्या यह है कि ज्यादातर वैज्ञानिक सिद्धांत, तर्क, विचार और कार्य आम आदमी तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। मसलन, खानेपीने की चीजों को ही लीजिए। तुरंता आहार सेहत के लिए बेहद नुकसानदायक हैं, यह वैज्ञानिक परीक्षणों से साबित हो चुका है।
फिर भी विज्ञापनों के मकड़जाल में फंसी जनता इसका इस्तेमाल करती है। इसी तरह देवी-देवताओं की मान्यता की वजह से समाज के अधिकांश लोग आज भी यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि घटने वाली घटनाओं का कारण देवी-देवताओं का नाराज या खुश होना नहीं होता, बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक कारण होते हैं।
गौरतलब है कि अंधविश्वास, पाखंड और बुराइयों की वजह से समाज में ऐसी अनेक समस्याएं पैदा होती रहती हैं, जो विकास के लिए बहुत नुकसानदेह हैं। एक आंकडेÞ के मुताबिक अंधविश्वास, पाखंड, सामाजिक और धार्मिक बुराइयों, गलत प्रथाओं और अंधश्रद्धा के कारण भारत में हर साल पचास करोड़ से अधिक लोग किसी न किसी रूप में प्रभावित होते हैं और लाखों लोग भूत-प्रेत, पिचाश, जादू-टोना और ओझा-तांत्रिकों के मकड़जाल में फंस कर बीमारियों और असमय मौत का शिकार हो जाते हैं।
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम वह दिन देखना चाहते, जब भारत में विज्ञान का लाभ आम आदमी तक पहुंचे और लोगों के जीवन स्तर में सुधार आए। उन्होंने इस बाबत अपने तर्इं कोशिशें भी खूब कीं, लेकिन हमारे शासन की कार्यशैली ही ऐसी है कि उनके प्रयासों को पंख नहीं लगने दिया गया।
देश में विज्ञान जागरूकता अभियान और विज्ञान जत्था ने पिछले तीस वर्षों में काफी कुछ सामाजिक और शैक्षिक समस्याओं को विज्ञान के नजरिए से दूर करने की कोशिश की है। इसी तरह अंधश्रद्धा निवारण समिति, महाराष्ट्र और वैज्ञानिक विचार अभियान जैसे संगठनों ने भी वैज्ञानिक शोधों के माध्यम से आम आदमी की सामाजिक और शैक्षिक समस्याओं को हल करने का प्रयास किए हैं।
फिर भी लोगों में अभी वैसी जागरूकता नहीं आ पाई है, जिससे लोग अवैज्ञानिकता और अतार्किकता के भंवर जाल से निकल पाएं। आवश्कता इस बात की है कि अवैज्ञानिकता के कारणों को समझते हुए समाज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विचार को आम आदमी तक पहुंचाने के लिए समाज के जागरूक और जिम्मेदार लोगों को आगे आना होगा और उन सामाजिक और शैक्षिक संस्थाओं को भी अपनी भूमिका सार्थक दिशा में निभानी होगी, जिससे लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति जागरूकता बढ़े और लोग अंधविश्वास, पाखंड और बुराइयों से छूट कर बेहतर जीवन बसर कर सकें।