वसुंधरा राजे भाजपा आलाकमान की आंख की किरकिरी बन गई हैं। भाजपा के सहयोगी रालोपा सांसद हनुमान बेनीवाल ने राजस्थान भाजपा की सबसे कद्दावर नेता मानी जाने वालीं वसुंधरा राजे पर अशोक गहलोत की सरकार बचाने में सहयोग देने का आरोप लगाकर सनसनी मचाई थी। पर पार्टी के एक भी नेता ने बेनीवाल की लानत-मलानत नहीं की। उधर वसुंधरा ने भी कांग्रेस की दबे स्वर से आलोचना कर खुद पर उठ रही संदेह की उंगलियों को पैना होने से रोकने का उपक्रम तो जरूर किया पर अपने ट्वीट से सबको पशोपेश में भी डाल दिया।
उन्होंने नसीहत कांग्रेस ही नहीं अपनी पार्टी भाजपा के नेतृत्व को भी यह कहकर दी कि जनता के बारे में सोचिए। हर कोई जानता है कि गहलोत सरकार गिराने के खेल से वसुंधरा दूरी बनाए हुई हैं। तभी तो विधायक दल के नेता गुलाब चंद कटारिया ने जब पिछले दिनों पार्टी की बैठक बुलानी चाही तो वसुंधरा का रुख भांप ऐन वक्त यह कहकर बैठक टाल दी कि अभी भाजपा की भूमिका का समय नहीं आया है। हकीकत यह थी कि वसुंधरा समझ चुकी हैं कि गहलोत सरकार गिरेगी भी तो पार्टी उनकी जगह सत्ता संभालने वाली अपनी सरकार का नेतृत्व उन्हें नहीं सौंपेगी। इसके लिए आलाकमान के पसंदीदा केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत होंगे। मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के अपनी पार्टी में आने का भी उनकी बुआ होने के बावजूद वसुंधरा ने गर्मजोशी से स्वागत नहीं किया।
वसुंधरा भांप चुकी हैं कि देर सवेर सचिन पायलट भी भाजपा में आएंगे। ज्योतिरादित्य से सचिन की दोस्ती से भी वे बखूबी वाकिफ हैं। उन्हें आभास है कि उनका भतीजा सचिन पायलट के जरिए उनकी सियासी जड़ों को ही खोखला करना चाहेगा। आलाकमान से तो उनकी शुरू से ही नहीं पटी। तमाम कोशिश के बावजूद लगातार चौथी बार धौलपुर सीट से लोकसभा चुनाव जीत रहे अपने बेटे दुष्यंत को केंद्र सरकार में मंत्रिपद नहीं मिलने का भी वसुंधरा को कम मलाल नहीं है।
राजस्थान की सियासत के आने वाले दिन वसुंधरा के लिए निर्णायक होंगे। गहलोत सरकार गिरी और भाजपा को सत्ता में आने का अवसर मिला तो वसुंधरा के सामने पार्टी के 72 विधायकों पर अपनी पुख्ता पकड़ साबित करने की गंभीर चुनौती होगी। उनकी खामोशी और आलाकमान का उनकी अनदेखी का निरंतर चला आ रहा सिलसिला आने वाले दिनों में कुछ गुल खिलाएंगे जरूर।
गफलत में कांग्रेस
कांग्रेस आलाकमान गफलत में लगता है। हर जगह असंतोष और बगावत का सिलसिला चालू है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत और दल-बदल ने मध्यप्रदेश की सत्ता से तो कांग्रेस को मार्च में ही बेदखल कर दिया था पर विधायकों के इस्तीफों का क्रम अभी भी जारी है। दो सीटें पहले से खाली थीं। सिंधिया समर्थक 22 पार्टी विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफे दिए तो यह आंकड़ा 24 हो गया। उम्मीद थी कि उप चुनाव 24 सीटों पर ही होगा। मंत्रिपद तो अब शिवराज चौहान किसी और बागी कांग्रेसी को देने की हालत में बचे नहीं। लेकिन कांग्रेस में जैसे आलाकमान पंगु है। तभी तो एक-एक कर तीन और कांग्रेसी विधायक पार्टी और विधानसभा दोनों से इस्तीफा दे बैठे हैं। पहले बड़ा मलहरा के प्रद्युम्न सिंह लोधी ने कांग्रेस छोड़ी थी। फिर नेपा नगर की सुमित्रा कासडेकर भी भाजपा में शामिल हो गईं। कांग्रेस को तीसरा झटका नारायण पटेल ने दिया है।
दिग्विजय और कमलनाथ की जोड़ी हाथ झाड़ कर बैठी हैै। कमलनाथ से आलाकमान को जो उम्मीदें थी, वे पूरी नहीं हो पाई। सरकार तो गई ही, अब पार्टी की एकजुटता को भी खतरा बरकरार है। भाजपा में जाकर भी इन बागियों को शायद ही कुछ अहम हाथ लगे। उपचुनाव में टिकट तो भाजपा दे देगी पर जीत की गारंटी तो मतदाता ही दे सकते हैं। तीन विधायकों के इस्तीफों के बाद कांग्रेस के अब सदन में 89 विधायक ही बचे हैं। जबकि भाजपा के 107 जस के तस हैं। 22 विधायकों के मार्च में हुए इस्तीफों से पहले दो सदस्यों के निधन के कारण 230 सदस्यीय विधानसभा में 228 सदस्य थे। मुरैना के कांग्रेस विधायक बनवारी लाल शर्मा और मालवा के भाजपा विधायक मनोहर ऊंटवाल दिवंगत हो गए थे। ऐसा नहीं है कि बगावत केवल कांग्रेस के भीतर ही हो रही हो। इस्तीफों का सिलसिला भाजपा में भी चालू हो चुका है।
संस्कृति नई
नौकरशाही को ज्यादा भाव मिलने का रोना भाजपा के निर्वाचित नुमांइदे हर सूबे में रोते मिल जाएंगे। उत्तराखंड भी अलग नहीं है। ऊधमसिंह नगर के जिला कलक्टर नीरज खैरवाल प्रशासनिक कौशल के दम पर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के चहेते बने हैं। जिले के एक विधायक राजीव शुक्ला को प्रभारी मंत्री मदन कौशिक की बैठक में आईना दिखाया तो विधायक को अखरा। चिढ़कर बैठक बीच में छोड़ अनर्गल प्रलाप कर चले गए। नौकरशाही से शिकायत मंत्री मदन कौशिक को भी है।
कुंभ के आयोजन के सिलसिले में देहरादून सचिवालय में बैठक बुलाई। कोई आला अफसर तो आया ही नहीं, कुंभ प्रशासन ने भी किनारा कर लिया। यहां तक कि कौशिक के अपने शहरी विकास विभाग के सचिव भी नहीं पहुंचे। कौशिक आग बबूला हुए और मुख्य सचिव व मुख्यमंत्री से शिकायत कर दी। आखिर मुख्यमंत्री को निर्देश देने पड़े कि मंत्री की बुलाई बैठक में अफसरों को वक्त पर पहुंचना भी चाहिए और उसे गंभीरता से भी लेना चाहिए। इस विवाद में तंज कसने का मौका नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश भी नहीं चूकीं। फरमाया कि घुड़सवार कमजोर होगा तो घोड़ा उसे पटखनी देगा ही।
(प्रस्तुति : अनिल बंसल)