कश्मीर घाटी के रुख से उत्साहित भाजपा ने वहां के विधानसभा चुनाव में अपने 44 प्लस के मिशन को मिशन 50 में बदल दिया है। जिस तरह से उसने अयोध्या मुद्दे के बिना ही लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल किया था उसी रणनीति को अपनाते हुए पार्टी अनुच्छेद 370 के मुद्दे के बिना ही जम्मू कश्मीर में चुनाव लड़ने जा रही है। उसका लक्ष्य आजादी के बाद पहली बार राज्य में सत्ता में भागीदारी करना है।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने घाटी में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए जबरदस्त रणनीति तैयार की है। इसके तहत उसका लक्ष्य अब 50 सीटें हासिल करना है। मालूम हो कि जम्मू कश्मीर में विधानसभा की 87 सीटों के लिए चुनाव होता है। हांलाकि 1988 में राज्य के संविधान में संशोधन करके वहां सीटों की संख्या बढ़ा कर 111 कर दी गई थी। इनमें से 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर में हैं। वहां विधानसभा का कार्यकाल छह साल का है।

केंद्र में अपने बलबूते सरकार बनाने में सफल हो जाने के बाद अब पार्टी ने इस राज्य में सरकार बनाने का सपना देखा है। इसकी वजह भी है। इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य की छह लोकसभा सीटों में से तीन पर जीत हासिल की थी। बाकी तीन पर महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को जीत हासिल हुई थी। अहम बात यह है कि भाजपा राज्य में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। उसे लोकसभा चुनाव में 32.4, कांग्रेस को 22.9, पीडीपी को 20.5 और नेशनल कांफ्रेंस को 11.1 फीसदी वोट हासिल हुए।

जिस तरह से पार्टी ने लोकसभा चुनाव में मिशन 272 को बढ़ा कर 300 कर दिया था ठीक उसी तरह यह मिशन 44 अब 50 हो चुका है। वह घाटी में भी अपना खाता खोलना चाहती है। आज तक कभी भी उसका कोई विधायक घाटी में नहीं जीत पाया था। घाटी में मुसलिम वोटों में सेंध लगाने के लिए उसने अब तक घोषित 70 उम्मीदवारों में से 31 टिकट मुसलमानों को दिए हैं। घाटी में अमीर कदल से उसने दांतों की डाक्टर हिना भट को उम्मीदवार बनाया है।

राज्य में सबसे ज्यादा 44 सीटें कश्मीर घाटी में जम्मू में 37 और लद्दाख में चार सीटें हैं। पिछली बार 2008 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को 11 सीटों, कांग्रेस को 17, नेशनल कांफ्रेंस को 28 और पीडीपी को 21 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। पैंथर्स पाटी को तीन और बाकी सीटें अन्य दलों को हासिल हुई थीं। इस बार भाजपा का लक्ष्य जम्मू और लद्दाख के साथ ही घाटी में आधा दरजन सीटें हासिल करने का है। अगर ऐसा नहीं होता है तो भी उसने अपने भावी सहयोगी तय कर रखे हैं।

खास बात यह है कि पार्टी ने पृथकतावादी नेताओं के साथ भी संपर्क बनाया हुआ है, जो कि चुनाव लड़ सकते हैं। इनमें सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस। वे यासीन मलिक की जेकेएलएफ शामिल हैं। दिवंगत पृथकतावादी नेता अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद लोन तो हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एकांत में बातचीत कर चुके हैं। प्रधानमंत्री से मिलने के बाद उन्होंने कहा था,‘जब मैं उनसे मिला और उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मुझे लगा कि जैसे में अपने बड़े भाई से बात कर रहा हूं।’ उनका मानना था कि कांग्रेस की तुलना में भाजपा कहीं बेहतर है। मालूम हो कि घाटी के बारामूला और कुपवाड़ा इलाकों में पीपुल्स कांफ्रेंस का प्रभाव है।

कमोबेश यही स्थिति यासीन मलिक की भी है। उनसे भाजपा महासचिव राम माधव ने मुलाकात की थी। यासीन मलिक ने जहां एक ओर चुनाव के पहले भाजपा के साथ किसी तरह के तालमेल से इनकार किया वहीं दो टूक शब्दों में कहा कि हम ऐसे किसी भी दल के साथ चुनाव बाद तालमेल कर सकते हैं जो कि जमीनी हकीकत से वाकिफ हो और घाटी के विकास के लिए काम करे। उनके अलावा कृषि मंत्री गुलाम हसन मीर,माकपा नेता मोहम्मद युसुफ तारीगामी, हकीम यासीन और इंजीनियर अब्दुल रशीद ने अपना अलग गुट अवामी मुताहिदा महाज बना रखा है।

मालूम हो कि ये सभी मौजूदा विधायक हैं। महबूबा मुफ्ती कह रही हैं कि पीडीपी का मुकाबला तो भाजपा से होगा। इससे यह तय है कि मुसलिम बाहुल्य घाटी में यह गठबंधन या छोटे दल इन वोटों को विभाजित करेंगे। पृथकतावादियों की दिक्कत यह है कि लोकसभा चुनाव में उन्होंने बायकॉट की अपील की थी। इसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ। अबकी बार भी कई कोणीय मुकाबला होना तय है। पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस दोनों ही मुसलिम वोटों के बलबूते पर चुनाव लड़ती आईं हैं।

भाजपा प्रचार में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी दोनों पर ही परिवार की राजनीति करने और घाटी के विकास का पैसा उड़ा देने का आरोप लगा रही है। पार्टी ने घाटी के सभी 10 जिलों में इकाइंया सक्रिय कर दी हैं। बाढ़ के दौरान जिस तरह नरेंद्र मोदी तुरंत घाटी पहुंचे और राहत कार्यों पर ध्यान दिया उससे भी उनकी छवि एक अलग नेता के रूप में उभरी है। सेवा भारती ने राहत कार्यों के लिए उस दौरान घाटी में 114 चिकित्सा शिविर लगाए थे।

लोकसभा चुनाव के पहले मोदी ने कहा था कि अनुच्छेद 370 पर बहस होनी चाहिए। इसके अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। जहां एक ओर 2010 में कुपवाड़ा में हुए माछिल कांड में दोषी सैनिकों को सजा दिए जाने से केंद्र सरकार के प्रति थोड़ा विश्वास बढ़ा वहीं हाल ही में सेना के हाथों दो निर्दोष युवकों का मारा जाना एक बड़ा झटका है। हांलांकि सेना ने अपनी गलती मान कर मामले की जांच शुरू करवाई है, इसे अच्छा कदम कहा जा सकता है।

भाजपा ने तय किया है कि इस चुनाव में वह अनुच्छेद 370 का नाम भी नहीं लेगी। उसकी जगह विकास का एजेंडा पेश किया जाएगा। पार्टी नेताओं ने तो इसकी भूमिका बनाते हुए कहना शुरू कर दिया है कि 370 तो राष्ट्रीय मुद्दा है, इसका राज्य की राजनीति से क्या लेने देना?