भाजपा भले ही देश को कांग्रेस मुक्त करने का बीड़ा उठा चुकी हो पर वह उसके अवगुणों को अपनाने के लिए बेहद लालायित है। उसने वे सब हथकंडे और अवगुण सीख लिए हैं जिनके लिए कांग्रेस बदनाम थी। बल्कि कहना तो यह चाहिए कि इस मामले में उसने कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया है।

दिल्ली विधाानभा चुनाव नतीजों ने भाजपा की कलई उतार दी है। कांग्रेस की परंपरा रही है कि यहां जीत का सेहरा हमेशा शीर्ष नेतृत्व के सिर पर बंधता है जबकि हार की जिम्मेदारी सामूहिक होती है। भाजपा ने उसे कहीं पीछे छोड़ दिया है। दिल्ली में महज तीन सीटें जीतने के बाद जब हार की समीक्षा के लिए बैठक बुलवाई गई तो उसमें एक भी वो नेता नहीं था जिसने पार्टी की करारी हार में अहम भूमिका अदा की थी।

इससे ज्यादा हास्यास्पद और क्या हो सकता है कि जिन किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके पार्टी ने चुनाव लड़ा था उन्हें भी इस बैठक में नहीं बुलाया गया। इसके लिए जो दलील दी गई वह लाजवाब थी। यह वजह बताई गई कि वे हमारी पार्टी की पदाधिकारी नहीं हैं इसलिए उन्हें कैसे बुलाया जा सकता था। चुनाव हारने की वजह यह बताई गई कि किरण बेदी को देर से भाजपा में शामिल करवाया और इसी कारण से यह नतीजे आए। उन्हें पहले लाया जाना चाहिए था। और तो और पार्टी के चुनावी चाणक्य अमित शाह समेत किसी भी उस नेता ने इस समीक्षा बैठक में हिस्सा ही नहीं लिया जिसकी चुनाव प्रचार में प्रमुख भूमिका रही।

दिल्ली के नेता भला यह कैसे कहते कि आप लोगों के कारण ही पार्टी हारी। इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि भाजपा दिल्ली में अपना चुनावी घोषणापत्र ही नहीं ला सकी। यह पूरी तरह से तैयार था पर जब मोदी की रैली में भीड़ न जुटने के बाद पार्टी ने किरण बेदी को लाने का फैसला किया तो मुख्यमंत्री पद की इस उम्मीदवार ने साफ कह दिया कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और बिजली के दामों में 30 फीसद की कमी करने का वादा नहीं किया जा सकता है। और बड़ी विडंबना क्या हो सकती थी कि जो पार्टी दशकों से दिल्ली को पूर्ण राज्य देने का मुद्दा उठाती आई थी वह खुद ऐन मौके पर इस बारे में चुप्पी साध गई। बिजली के दामों में तो 30 फीसद की कमी करने की रामलीला मैदान से घोषणा की जा चुकी थी। दृष्टिपत्र पेश करके भाजपा ने साबित कर दिया कि वह राजनीतिक दृष्टिहीनता का शिकार हो चुकी है।

यह सच किसी से छिपा नहीं है कि इस चुनाव में दिल्ली के भाजपा नेताओं-विजय कुमार मल्होत्रा, विजय गोयल, डा. हर्षवर्धन, जगदीश मुखी और विजेंद्र गुप्ता को चुनाव से पूरी तरह दूर रखा गया था। सुषमा स्वराज, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी तक को एक भी सभा संबोधित नहीं करने दी गई। पिछली बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रभारी रहे नितिन गडकरी ने तो इस दौरान शहर में पैर तक नहीं रखा। शायद उन्हें हालात का पहले ही अनुमान लग गया था। उनकी जगह निर्मला सीतारमण, राजीव प्रताप रूडी, नंद कुमार और रविशंकर प्रसाद ने प्रचार की कमान संभाली। यह लोग साबित करने पर तुल गए कि वे राखी बिड़ला या सोमनाथ भारती की कमी खलने नहीं देंगे। निर्मला सीतारमण ने केजरीवाल को चोर कहा तो नुपुर शर्मा ने उन्हें बंदर करार दे दिया। इन लोगों ने शालीनता की सभी सीमाएं तोड़ डालीं।

 

विवेक सक्सेना