प्रकृति के उद्भव के साढ़े तीन अरब साल का ज्ञान जैव विविधता में संचित है। इस जैविक पूंजी का लगातार कम होना पूरी मानवता के लिए खतरा है, क्योंकि अगर यह एक बार खत्म हुई, तो हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। विश्व के पचास से अधिक शीर्ष विशेषज्ञों के एक समूह ने चेतावनी दी है कि इस समय जैव विविधता और कई वन्य-समुद्री प्रजातियों के विलुप्त होने के जिस संकट से दुनिया गुजर रही है, उससे निपटने के लिए प्रकृति संरक्षण के उपाय अभी अपर्याप्त हैं। इससे पहले संयुक्त राष्ट्र का, जलवायु परिवर्तन पर विज्ञान सलाहकार समूह भी इसी तरह की चेतावनी जारी कर चुका है। वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का समूह चाहता है, इसकी शुरुआत खाद्य उत्पादन और प्रकृति के दोहन के तौर-तरीकों में बदलाव के साथ हो।
धरती पर पाई जाने वाली तमाम प्रजातियां मानव जीवन के लिए अपरिहार्य हैं। इस जैव विविधता पर ही टिका है, साफ पानी, ईंधन, दवा, आवासीय सृजन की सामग्री, स्वास्थ्य, पोषण, खाना, कपड़ा और पूरे रहन-सहन का दारोमदार। दो तिहाई से ज्यादा फसलें परागण के लिए कीटों पर निर्भर हैं। जैव विविधता के बिना फसलों का परागण संभव नहीं है। आज स्थिति यह है कि इन कीटों की लगभग एक तिहाई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। चिकित्सा वैज्ञानिकों का भी मानना है कि जैव विविधता खत्म होने से चिकित्सा क्षेत्र में भूचाल आ सकता है, क्योंकि ज्यादातर दवाओं की प्रमुख स्रोत प्राकृतिक संपदा है। कैंसर के उपचार की सत्तर फीसद दवाएं प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं।
जैव विविधता का हिस्सा है मानव संस्कृति
मानव संस्कृति जैव विविधता का हिस्सा है। दिखने वालों से लेकर सूक्ष्मतर जीव, पेड़-पौधे और फंगी आदि अपने तमाम रूपों में फैले विविध जीवन का विस्तार जैव विविधता है। अगर किसी भी जीव की आबादी अपनी स्वाभाविक मौजूदगी की तुलना में काफी गिर जाती है, तो खाद्य शृंखला पर उसका असर पड़ता है। वह प्रजाति अपने प्राकृतिक दायित्व पूरे नहीं कर पाती है। बीती आधी सदी में वन्यजीव आबादी का औसत आकार तिहत्तर फीसद तक घट गया है। वैसे तो समूची दुनिया ही वन्यजीवन की कमी से प्रभावित हो रही है, लेकिन कुछ हिस्सों पर गंभीर असर देखा गया है। लैटिन अमेरिका और कैरेबियन में सबसे ज्यादा 95 फीसद तक की गिरावट आई है। अफ्रीका में यह कमी 76 फीसद, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में 60 फीसद है। कुदरती परिवेश का लुप्त होना, प्रकृति को हो रहे व्यापक नुकसान में सबसे ज्यादा चिंताजनक है। खाद्य व्यवस्था को इसका प्रमुख कारण माना जा रहा है।
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पारिस्थितिकीय गुणवत्ता मापने की मेढक, तितली, गौरैया, मधुमक्खी, उल्लू और मूंगे की चट्टानें आदि कई एक संकेतक हैं। इनसे हमारे पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत का पता चलता रहता है। ये संकेतक बता रहे हैं कि प्रकृति अत्यंत चिंताजनक रफ्तार से सिकुड़ती जा रही है। मूंगे की चट्टानें खत्म होने से मछलियां नष्ट हो जाएंगी। भोजन और रोजगार के लिए मछलियों पर निर्भर करोड़ों लोग प्रभावित हो सकते हैं। खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। बर्फीली परतों के पिघलने से समुद्र का स्तर तो कई मीटर बढ़ेगा ही, कार्बन और मीथेन का अकूत उत्सर्जन हो सकता है। समुद्री बर्फ में तेजी से बदलाव, जलवायु परिवर्तन और खाद्य पदार्थों की कमी से बीते तीन दशक में पेंगुइन की आबादी 61 फीसद तक घट गई है।
अभी भी जंगलों में रहते हैं तीस करोड़ लोग
यह भी उल्लेखनीय है कि लगभग तीस करोड़ लोग जंगलों में रहते हैं और करीब 1.6 अरब लोगों की आजीविका का सहारा भी जंगल हैं। इंसानों के साथ-साथ धरती पर जैव विविधता में वनों का अस्सी फीसद से अधिक योगदान होता है। करीब अस्सी फीसद उभयचर और पचहत्तर फीसद पक्षी इन पर आश्रित हैं। पृथ्वी पर मौजूद आधे से ज्यादा कशेरुकी जीव जंगलों से ही पलते हैं। उष्णकटिबंधीय वर्षा वन जब काटे जाते हैं, तो हर दिन लगभग सौ प्रजातियों के विलुप्त होने का जोखिम मंडराने लगता है। इस तरह इंसानों के अस्तित्व के लिए जैव विविधता बुनियादी जरूरत है।
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तापमान नियंत्रण के लिए जंगलों को बचाना जरूरी है। कभी पृथ्वी की पचास फीसद से अधिक जमीन घने जंगलों से आच्छादित होती थी। बीती एक शताब्दी से इस कटाई में नाटकीय तेजी आई है। जैव विविधता को इतना ज्यादा नुकसान पहले कभी नहीं हुआ। वैज्ञानिक आगाह कर रहे हैं कि अगर जंगल इसी तरह सिकुड़ते रहे, तो यह पृथ्वी इंसानों के रहने लायक नहीं बचेगी। औद्योगिक देशों में इस दिशा में बहुत ही कम प्रभावी कदम उठाए गए हैं। लक्ष्यों को कैसे प्राप्त किया जाना है, इस बारे में भी काफी अस्पष्टता है।
वैज्ञानिक लगातार कर रहे आगाह
जलवायु आपदा और जैव विविधता पर खतरा, एक-दूसरे से जुड़े हैं। जलवायु आपदा से उत्पन्न हालात के कारण भी कई प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। जंगल काटे जा रहे हैं, नदी किनारे की गीली जमीन खाली हो रही है। यह न सिर्फ प्रजातियों के लिए खतरा है, कार्बन सोखने की उनकी शक्ति भी समाप्त हो रही है। वैज्ञानिक लगातार आगाह कर रहे हैं कि वर्ष 2030 तक जमीन और समुद्री क्षेत्र के तीस फीसद हिस्से को संरक्षित किया जाना जरूरी है, लेकिन अभी तक संरक्षण शब्द ही पूरी तरह रेखांकित नहीं। इसी से जुड़ा वित्तीय संरक्षण भी एक अहम मसला है। अमीर देशों में औद्योगीकरण के कारण प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र बहुत कम बचा है, जबकि गरीब देशों में अभी भी काफी जैव विविधता शेष है। गरीब देशों की मांग है कि इनके बेहतर संरक्षण के लिए अमीर देश वित्तीय सहायता को 160 अरब डालर से बढ़ा कर 700 अरब डालर करें।
‘फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया’ की एक रपट बताती है, भारत में 721 वर्ग किलोमीटर जंगलों की वृद्धि हुई है। इसका अर्थ है कि इस दौरान वृक्ष आवरण में कोई भी नुकसान नहीं हुआ, लेकिन ये आंकड़े कितने विश्वसनीय हैं, यह बात अब भी सवालों में है। बीते चालीस वर्षों में देश के जंगलों की 9.9 लाख हेक्टेयर जमीन गैर-वनीय कार्यों में उपयोग की गई है। बीते डेढ़ दशक में वनों की लगभग 60 हजार हेक्टेयर जमीन कोयला और खनिज खनन के लिए, 45 हजार हेक्टेयर जमीन सड़क के लिए, 36 हजार हेक्टेयर जमीन सिंचाई परियोजनाओं और 26 हजार हेक्टेयर जमीन ट्रांसमिशन प्रोजेक्ट के लिए दी गई। इस तरह जंगल का बहुत बड़ा हिस्सा इतर कार्यों में इस्तेमाल किया गया है।
दुनिया देख रही अमीर देशों का मुंह
आज जैव विविधता संरक्षण नियमों और कानूनों को कठोर बनाना बहुत जरूरी है। जैव-विविधता बचाने के लिए, एक अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2030 तक हर वर्ष कम से कम 824 अरब डालर खर्च करना जरूरी हो गया है, जिसके लिए दुनिया अमीर देशों का मुंह ताक रही है। हालांकि भारत में कुल वन क्षेत्र में लगभग एक फीसद की वृद्धि बताई जा रही है, लेकिन कई जगह जंगल उजाड़े जा रहे हैं। विकास के नाम पर प्रकृति के लगातार दोहन, तेज औद्योगिकी और शहरीकरण के कारण देश के वनक्षेत्रों में गिरावट आ रही है।