बेटियों को बचाने, उनका सही पालन-पोषण करने व शिक्षा की गारंटी देने के लिए पूरे जोर-शोर से शुरू हुई बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना में सरकार के तरफ से फंड तो आया, लेकिन जमीन तक उतर नहीं पाया। यह खुलासा महिला और बाल विकास मंत्रालय की वार्षिक रपट से हुआ है।
रपट के मुताबिक पिछले 11 सालों में करीब एक तिहाई फंड का इस्तेमाल नहीं हो पाया।
साल 2024-25 (31 दिसंबर तक) में सबसे कम करीब 13 फीसद राशि ही खर्च हो पाई। पिछले 11 सालों में आंकड़ा कभी भी 100 फीसद को नहीं छू पाया। जबकि योजना के तहत फंड का इस्तेमाल जमीनी स्तर पर प्रभाव डालने वाली गतिविधियों पर करना था। रपट के मुताबिक राशि की मदद से लड़कियों के बीच खेलों को बढ़ावा देना, आत्मरक्षा शिविर आयोजित करना, लड़कियों के लिए शौचालयों का निर्माण करना, विशेष रूप से शैक्षणिक संस्थानों में सैनिटरी नैपकिन व्यापारिक मशीन और सैनिटरी पैड उपलब्ध कराना, पीसी-पीएनडीटी अधिनियम के बारे में जागरूकता बढ़ाना सहित अन्य काम करने हैं।
640 जिलों में फैली योजना
जिला स्तर पर बहु-क्षेत्रीय हस्तक्षेप माध्यम से इन योजनाओं को लागू करने के लिए धनराशि राज्य सरकार के माध्यम से प्रदान की जाती है। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इस दिशा में उचित काम नहीं हो पाया। रपट बताती है कि कई जगह पोस्टर, नारे और कार्यक्रमों पर ही पैसा अधिक खर्च हुआ, जबकि बालिका शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं पर वास्तविक खर्च सीमित रहा।
वहीं जन्म के समय लिंगानुपात में सुधार के लिए अलग-अलग जिलों को 20 से 40 लाख रुपये तक की सहायता दी जा रही है। लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय के एचएमआइएस आंकड़े बताते हैं कि 2020-21 तक भी कई राज्यों में लिंगानुपात में खास सुधार नहीं हुआ।
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सौ जिलों से 22 जनवरी 2015 को शुरू हुई इस योजना (2011 की जनगणना के अनुसार) का विस्तार आज 640 जिलों तक हो चुका है। अधिकारियों का कहना है कि इस योजना का उद्देश्य लिंग-भेदभावपूर्ण, लिंग-चयनात्मक उन्मूलन को रोकना, बालिकाओं का अस्तित्व, सुरक्षा, शिक्षा और विकास सुनिश्चित करना है। यह योजना मिशन शक्ति का एक घटक है। इसके कार्यान्वयन की राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर निगरानी की जा रही है।
67.82 फीसद के करीब रहा औसत आंकड़ा
पिछले 11 साल में खर्च का औसत आंकड़ा 67.82 फीसद रहा। रपट के मुताबिक 2014-15 में 69.68 फीसद, 2015-16 में 79.16 फीसद, 2016-17 में 66.65 फीसद, 2017-18 में 84.55 फीसद, 2018-19 में 87.40 फीसद, 2019-20 में 42.89 फीसद, 2020-21 में 60.57 फीसद, 2021-22 में 58.8 फीसद, 2022-23 में 85.16 फीसद, 2023-24 में सर्वाधिक 97.93 फीसद और 2024-25 में (31 दिंबसर तक) सबसे कम 13.23 फीसद राशि ही खर्च हो पाया।