यह सही है कि भय हमें कमजोर बनाता है। कमजोर इंसान स्वत: ही हर मोर्चे पर हार जाता है। लेकिन महापुरुषों ने जिस संदर्भ में निर्भय बनने की बात कही है, उसे उसी संदर्भ में समझना होगा। जब महापुरुष निर्भय बनने की बात कहते हैं तो इसका सही अर्थ होता है कि हम ईमानदारी और सदाचार के रास्ते पर चलते हुए हमारे अंदर अनावश्यक रूप से पैदा हुए भय को खत्म करें।
कई बार हमारे दिल में गैरजरूरी डर बैठ जाते हैं। इस तरह के डर हमारी प्रगति में बाधक होते हैं। अगर हमारा उद्देश्य सही और साफ-सुथरा है तो भी हमारे अंदर एक अनावश्यक डर रहता है। हमारे महापुरुषों ने इस गैरजरूरी डर को खत्म करने की बात कही है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे अंदर कोई डर नहीं होना चाहिए।
डर के संबंध में महापुरुषों के आदर्श विचार अपनी जगह ठीक है लेकिन व्यावहारिक रूप से इनको हर जगह और परिस्थिति में लागू नहीं किया जा सकता। व्यावहारिक बात तो यह है कि हमारे अंदर गैरजरूरी डर नहीं होने चाहिए लेकिन जरूरी डर अवश्य होने चाहिए। सवाल यह है कि गैरजरूरी और जरूरी डर में फर्क कैसे किया जाए ?
दरअसल अगर किसी अच्छे काम को क्रियान्वित करने से पहले या इस प्रक्रिया के दौरान हमें डर लग रहा है तो यह गैरजरूरी डर है। इसी तरह किसी बुरे काम को क्रियान्वित करने से पहले या इस प्रक्रिया के दौरान अगर हम डर रहे हैं तो यह जरूरी डर है। वास्वविकता यह है कि किसी अच्छे काम को करने में हम गैरजरूरी डर के शिकार हो जाते हैं लेकिन बुरे काम को करने में जरूरी डर के शिकार नहीं होते हैं।
इसी वजह से बुरे काम और विभिन्न तरह के अपराध होते हैं। भय पर केन्द्रित इस आलेख पर हुई चर्चा में मेरे बहुत ही कुछ विद्वानों का मानना है कि डर की जगह सजगता शब्द का इस्तेमाल हो तो बेहतर है क्योंकि डर को हमारी संस्कृति में नकारात्मक ही माना गया है। यह सही है कि हमारी संस्कृति में डर को सकारात्मक रूप से नहीं देखा जाता है। दरअसल केवल सजगता से काम नहीं चलता है।
उदाहरण के लिए यदि कोई अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के काम की एक साल तक निगरानी न करे और प्रतिदिन सुबह ही कर्मचारियों के मोबाइल पर सिर्फ यह संदेश भेज दे कि उन्हें अपना काम ईमानदारी और सजगता से करना है। फलस्वरूप जब एक साल बाद इस काम के परिणाम का निरीक्षण किया जाएगा तो परिणाम अच्छे और संतोषजनक नहीं आएंगे। सजगता और ईमानदारी से काम करने के उपदेश धरे रह जाएंगे।
इसके विपरीत जो अधिकारी अपने कर्मचारियों के काम का प्रतिदिन या फिर दो-तीन दिन बाद निरीक्षण करता है तो उसके परिणाम अच्छे और संतोषजनक आते हैं। इसका अर्थ यह है कि केवल उपदेश से काम नहीं होता है। काम के लिए थोड़ा डर भी रहना चाहिए। जब कर्मचारियों को यह डर रहता है कि हमारा अधिकारी काम के संबंध में हमसे जवाब मांगेगा तो काम के बेहतर परिणाम सामने आते हैं।
ऐसा नहीं है कि इनसान केवल डर कर ही काम करता है। अपनी जिम्मेदारी समझने वाले इनसान का स्वयं ही बेहतर काम करने का स्वभाव होता है। लेकिन सामान्य मानवीय प्रवृत्ति यह है कि हम बिना दबाव के काम नहीं करते हैं। थोड़े डर या दबाव की वजह से हमारे काम की तीव्रता और जिम्मेदारी बढ़ जाती है। इसके बेहतर परिणाम सामने आते हैं।
निर्भय होना अच्छा है लेकिन यदि हम हर जगह निर्भय हो जाएंगे तो कई नई समस्याएं जन्म ले लेगीं। अगर हम निर्भयता के साथ किसी पर अत्याचार कर रहे हैं तो ऐसी निर्भयता बेकार है। बुरे काम के लिए निर्भयता को ढाल बनाना शर्मनाक है। हम अपने जीवन में कई गलत काम इसीलिए करते हैं क्योंकि हमें उस गलत काम के परिणाम का भय नहीं होता है।
‘जो होगा देखा जाएगा’ की मानसिकता हमारे अंदर से हर तरह के डर को खत्म कर देती है। इसलिए जीवन के विभिन्न पड़ावों पर कई जगह थोड़ा डरना भी जरूरी है। डर को केवल परम्परागत अर्थ में ही नहीं समझा जाना चाहिए। जीवन के कल्याण के लिए परंपरा से हटकर भी डर के संबंध में विचार करना चाहिए।