अभिषेक कुमार सिंह

अभी तक मुख्य चिंता यह थी कि जीवाणुरोधी यानी एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण वे ज्यादातर बीमारियों के खिलाफ अपनी ताकत खो चुकी हैं। मगर अब पता चल रहा है कि देश में ऐसी-ऐसी एंटीबायोटिक दवाएं बेची जा रही हैं, जो या तो अस्वीकृत हैं या प्रतिबंधित। निश्चय ही यह एक बड़ा गोरखधंधा है, जिस पर ज्यादा नजर नहीं गई है। कुछ ही समय पहले ‘जर्नल आफ फार्मास्युटिकल पालिसी एंड प्रैक्टिस’ में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2020 तक भारतीय दवा बाजार में सत्तर फीसद से ज्यादा ‘फिक्स्ड-डोज एंटीबायोटिक फार्मूलेशन’ या तो प्रतिबंधित थे या उन्हें बेचने की मंजूरी नहीं दी गई थी।

‘फिक्स्ड-डोज कांबिनेशन’ की हिस्सेदारी 16 फीसदी है

इस अध्ययन से पता चलता है कि ‘फिक्स्ड-डोज कांबिनेशन’ (एफडीसी) एंटीबायोटिक बिक्री में इन दवाओं की हिस्सेदारी करीब सोलह (15.9) फीसद है। ये दवाएं बाजार में क्यों बिक रही हैं, इसके जवाब में अध्ययन कहता है कि इन नामंजूर दवाओं को बाजार से हटाने की सरकारी पहलकदमियां बेअसर रही हैं। प्रतिबंधित एफडीसी एंटीबायोटिक दवाओं का बाजार में बिकना इसलिए भी चिंताजनक है, क्योंकि वर्ष 2008 में इनकी बिक्री करीब तैंतीस फीसद थी, जो 2020 में बढ़कर सवा सैंतीस फीसद हो गई। आंकड़े बताते हैं कि बाजार में वैसे तो एंटीबायोटिक एफडीसी फार्मूलेशन की कुल संख्या 2008 के 574 से 2020 में गिरकर 395 रह गई, लेकिन इनमें से 70.4 फीसद यानी 395 में से 278 अस्वीकृत या प्रतिबंधित पाए गए।

ऐसी दवाओं से संक्रमणों का इलाज कठिन हो जाता है

समस्या का दूसरा बड़ा पहलू यह भी है कि हमारे देश में रोगाणुरोधी प्रतिरोध तेजी से बढ़ रहा है। इसका मतलब है कि दवाएं बीमारियों के खिलाफ अपनी ताकत खो चुकी हैं। ऐसा प्राय: तब होता है, जब बैक्टीरिया, वायरस, कवक और परजीवी समय के साथ अपना स्वरूप बदल या एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ ताकत विकसित कर लेते हैं। ऐसे में दवाओं का असर नहीं होता और संक्रमणों का इलाज कठिन हो जाता है। कोरोना विषाणु के प्रसार से पहले ही दुनिया इस पर चिंतित रही है कि कहीं रोगाणुरोधी प्रतिरोध रूपी एक मूक महामारी दुनिया भर के सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा न बन जाए। चूंकि इंसानों के अलावा पशुओं-मवेशियों, मत्स्य पालन और फसलों तक में एंटीबायोटिक का बेइंतहा इस्तेमाल और दुरुपयोग बढ़ रहा है, इसलिए एंटीबायोटिक अप्रभावी होते जा रहे हैं। अस्पतालों, खेतों और कारखानों में एंटीबायोटिक्स का बेजा इस्तेमाल और गलत तरीके से अपशिष्ट प्रबंधन समस्या को और बढ़ा रहा है। अब वक्त आ गया है कि हमें एंटीबायोटिक दवाओं का प्रयोग करने से पहले इस पर विचार करना चाहिए कि कहीं उन्हें बिना जरूरत तो नहीं लिया जा रहा है।

विकल्प नहीं होने से वैश्विक स्वास्थ्य के लिए खतरा

यों, यह सही है कि दुनिया में एक दौर ऐसा भी था, जब सामान्य से आपरेशन के बाद होने वाला कोई संक्रमण जानलेवा साबित होता था। यह एंटीबायोटिक दवाओं के आविष्कार से पहले की बात है। बीती करीब एक सदी में एंटीबायोटिक दवाओं ने संक्रामक बीमारियों के खिलाफ मजबूत ढाल का काम किया है, लेकिन अब उनकी ताकत कमजोर पड़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) कई बार चेतावनी जारी चुका है कि एंटीबायोटिक्स के अंधाधुंध इस्तेमाल से बैक्टीरिया इतने ताकतवर होते जा रहे हैं कि ये दवाएं उन पर असर नहीं कर रही हैं। चूंकि अभी इन दवाओं का कोई विकल्प मौजूद नहीं है, इसलिए यह समस्या वैश्विक स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बन गई है।

हालांकि अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास बीमारियों के इलाज के लिए एंटीबायोटिक के अलावा भी कई हल मौजूद हैं। पर डाक्टर एंटीबायोटिक्स पर हद से ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। ब्रिटेन की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के वर्ष 2015 के एक शोध के मुताबिक 2001 से 2010 के बीच भारत में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रयोग में 62 फीसद का इजाफा हो गया था। इसके अगले दशक में भी यह रुझान जारी रहा। यह दुनिया में सबसे ऊंची दर है। भारत में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल बढ़ते जाने का एक संकेत यह है कि पर्याप्त जांच-परख के बिना इन्हें दिया जा रहा है।

इन दवाओं का उपयोग इस तेजी से बढ़ा है कि अब ज्यादातर रोगाणुओं में आम प्रचलित एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई है। इस कारण ‘सुपरबग’ जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं। इन जानकारियों के बावजूद हमारे देश में वायरल बुखार, डेंगू और चिकनगुनिया के सैकड़ों-हजारों मामले सामने आने पर डाक्टर और मरीज, दोनों एंटीबायोटिक दवाओं का जमकर इस्तेमाल करते हैं। यह जानने की कोशिश तक नहीं की जाती कि क्या मरीज को उस एंटीबायोटिक दवा की जरूरत है भी या नहीं।

जाहिर है, ज्यादा बड़ी चुनौती एंटीबायोटिक दवाओं के उलटे असर की है। यानी लाभ के बजाय ये दवाएं नुकसान पहुंचाने लगी हैं। चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि एंटीबायोटिक्स के गलत इस्तेमाल से लगभग सारे बैक्टीरिया ‘ड्रग-रेजिस्टेंट’ हो चले हैं। अगर किसी मरीज की बीमारी की सही जांच हुए बगैर कोई डाक्टर अड़तालीस घंटे तक उसे एंटीबायोटिक दवाएं देता है, तो यह बेहद खतरनाक बात है। भारत में डाक्टरों की लापरवाही और मरीजों की नीमहकीमी के अलावा एक समस्या खराब जांचों की भी है। अच्छी पैथोलाजी लैब का देश में अब भी अभाव है और लोग भी दवाओं और डाक्टर की फीस के बाद जांच के तीसरे खर्च से बचना चाहते हैं। बीमारी का बिल्कुल सही निर्धारण और उसी के अनुरूप एंटीबायोटिक का सटीक इस्तेमाल हमारे जीवन-व्यवहार का हिस्सा बनना चाहिए। इसके बजाय अंधाधुंध एंटीबायोटिक्स लेकर हम न सिर्फ अपने, बल्कि पूरी दुनिया के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।

अमेरिका की राकफेलर यूनिवर्सिटी के माइक्रोबायलाजिस्ट अलेक्जेंडर टोमाज ने ऐसी वजहों को ‘मेडिकल डिजास्टर’ की संज्ञा दी है। एक अन्य चिकित्सक थामस हुसलर ने अपनी किताब ‘वायरसेज वर्सेस सुपरबग्स’ में आंकड़ा दिया है कि 2005 में अमेरिका में बीस लाख लोग संक्रामक बीमारियों की चपेट में आए, जिनमें से नब्बे हजार की मौत हो गई। यह एंटीबायोटिक दवाओं की विफलता का स्पष्ट उदाहरण है।

हालांकि, इधर इन्हें लेकर देश के कुछ हिस्सों में जागरूकता अवश्य आई है। मसलन, केरल ऐसा पहला राज्य बनने की ओर अग्रसर है, जहां एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल पर अंकुश रखने का प्रयास किया जा रहा है। वहां देश का पहला ‘एंटीबायोटिक स्टेवार्डशिप’ कार्यक्रम करीब एक दशक से चल रहा है, जिसका मकसद इन दवाओं के इस्तेमाल के बारे में सरकारी और निजी अस्पताओं और डाक्टरों को प्रशिक्षित करना है। मगर देश के बाकी इलाकों में स्थिति उलट है।

आम लोगों में भी ऐसी धारणा बनी हुई है कि बीमारियां तो एंटीबायोटिक से ही खत्म होती हैं। इसलिए कभी वे डाक्टरों पर तगड़ा एंटीबायोटिक लिखने का दबाव डालते हैं, तो कभी किसी सगे-संबंधी के पर्चे से टीप कर ऐसे एंटीबायोटिक दुकान से खुद ही खरीद लाते हैं। बिना सोचे-समझे एंटीबायोटिक का इस्तेमाल नाक पर बैठी मक्खी मारने के लिए तोप दागने जैसा होता है, लेकिन कम ही लोग इसको इस रूप में लेते हैं।

चूंकि यह साबित हो चुका है कि एंटीबायोटिक दवाएं इलाज से ज्यादा मर्ज साबित हो रही हैं, इसलिए इनके इस्तेमाल पर अंकुश लगाने की मांग भी जोर पकड़ रही है। इस अंकुश का मतलब एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल पूरी तरह रोक देना नहीं है। जरूरत इन दवाओं के सतर्क इस्तेमाल की है। केरल में जो नीति बनाई जा रही है, वह इसी दिशा में है, जिसमें एंटीबायोटिक का प्रयोग पूरी जांच के बाद जरूरत पड़ने पर ही किए जाने की हिदायत दी जाती है।